Sunday, December 19, 2010

सौ दिन अर्जुन मुंडा सरकार के

अर्जुन मुंडा सरकार ने आज सौ दिन पूरे कर लिये। सचमुच बधाई स्वीकार करें, अर्जुन मुंडा जी, क्योंकि आपने सौ दिन पूरे कर लिये, पर क्या आप बता सकते हैं, कि आपने इन सौ दिनों में कौन ऐसा काम कर लिये। जिससे आम जनता के मन में ये विश्वास जगें कि ये सरकार सचमुच में उनके लिए कुछ काम कर रही हैं अथवा आप पर विश्वास कर सकें कि आपके छत्र छाया में उनका जीवन आनन्दित बीतेगा। आप से जब पत्रकार पूछते हैं कि मुंडा जी, इन सौ दिनों में आप अपनी पांच उपलब्धियां बतायें, तो आपका बयान आता हैं कि आप काम करने में विश्वास करते हैं न कि उपलब्धियां गिनाने में। गर आप काम करने में विश्वास रखते हैं तो लगे हाथों अपने काम करने का विश्वास भी तो हमें दिलाये। जिस विश्वास की आप बात करते हैं, वो तो कहीं दिखता नहीं। हमें तो लगता हैं कि आपकी उपलब्धियां न के बराबर हैं, क्योंकि न तो आपके पास झारखंड को आगे बढ़ाने का प्लान हैं और न ही विजन। बस चलते जा रहे हैं, कहां चलना हैं, क्यों चलना हैं, किसलिए चलना हैं, झारखंड को कहां ले जाना हैं, इसका भान न तो आपको हैं और न हीं यहां की जनता को हो पाया हैं कि आप उन्हें अथवा झारखंड को कहां ले जाना चाहते हैं। आपके सौ दिनों के शासनकाल में जो घटनाएं घटी हैं, वो बताता हैं कि सरकार के काम करने के तरीके और लक्षण ठीक नहीं हैं।
जरा गौर फरमाईये -----------------------------------------------
• आप ही के पार्टी के सिमडेगा विधानसभा अंतर्गत पिथरा पंचायत अध्यक्ष मदन साहू गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर लेते हैं, पर उसकी सूध लेनेवाला कोई नहीं होता हैं, न तो आपकी सरकार और न ही आप।
• जमशेदपुर जो आपका संसदीय इलाका हैं, वहां की महिला रेवती के साथ एक गुंडा दुष्कर्म करता हैं, फिर उसे जिंदा जलाने का प्रयास करता हैं, कई दिनों तक वो युवती इलाज कराते हुए दम तोड़ देती हैं, उसकी सुध न तो आपकी पुलिस लेती हैं और न ही आप उसे न्याय दिलाने में दिलचस्पी रखते हैं।
• आपही के इलाके की दीपिका के साथ कुछ मनचले छेड़खानी करते हैं, वो आत्महत्या कर लेती हैं, पर दीपिका को मरणोपरांत भी आप न्याय नहीं दिला पाते।
• आपही की राज्य की रुकमिणी के साथ केन्या में यौन शोषण होता हैं, यौन शोषण करनेवाला व्यक्ति गुजरात में बैठा हैं, गर आप चाहते तो मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से बात कर, उस व्यक्ति को सलाखों के पीछे ढकेल सकते थे, पर आपने अभी तक नरेन्द्र मोदी से बातचीत तक नहीं की, जबकि नरेन्द्र मोदी आप ही के पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं।
• आप जिस राज्य के मुख्यमंत्री हैं, आपका पड़ोसी राज्य हैं बिहार, जिसके कोख से निकला हैं – झारखंड। वहां एक दिन में सरकार बन जाती हैं, ठीक दो दिनों में विधानसभा का सत्र आहूत हो जाता हैं, सरकार ऐसे ऐसे निर्णय लेती हैं कि बिहारवासियों का सर गर्व से उठ जा रहा हैं, लेकिन आप और आपकी सरकार क्या कर रही हैं, आपको एक महीने लग जाते हैं, सरकार गठन करने में और बहाना ढूंढते हैं कि पितृपक्ष चल रहा है। वहां विधानसभा सत्र चल रहा हैं, और आप शीतकालीन सत्र तक नहीं बुला पाते, और इसके लिए भी आपने अच्छा बहाना ढूंढा, ये कह कर कि राज्य में पंचायत चुनाव हो रहे हैं। आप हर गलत काम को, छिपाने के लिए बहाने बनाते हैं और आपका पड़ोसी राज्य हर अच्छे काम को करने के लिए, अनेक प्रकार के बहाने ढूंढ रहा हैं। हैं न कमाल की बात, पर आपको इससे क्या मतलब।
• बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को दिल्ली जाने में मन नहीं लगता, पर आपको दिल्ली – रांची, रांची – दिल्ली करने में बहुत मन लगता हैं अब तक आठ बार आप दिल्ली की परिक्रमा लगा चुके हैं।
• यहां आप सरकार चला रहे हैं, मंत्री लोग सरकार चला रहे हैं या राज्य के प्रशासनिक अधिकारी, सरकार चला रहे हैं, लोगों को पता ही नहीं चल पा रहा हैं, सीएनटी एक्ट पर भूमि सुधार एवं राजस्व सचिव के द्वारा, सभी उपायुक्तों को भेजा गया पत्र तो फिलहाल ये ही बता रहा हैं और हमें लगता हैं कि डोमेसाईल आंदोलन के बाद, कहीं ये मामला राज्य का बंटाधार न कर दें, यानी वो कहावत याद हैं न काम धाम कुछ नहीं, गिलास तोड़ा आठ आना।
• एक तरफ बिहार सरकार भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के लिए लोकपाल विधेयक को मंजूरी दे रही हैं, अपने विधायकों और मंत्रियों से जल्द अपने संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने को आदेश दे दी हैं। एमएलए फंड पर रोक लगा दी हैं और आप इन सबसे अलग कुछ करने, कुछ निर्णय लेने के बजाय, सीधा कहते हैं कि जो बिहार करें, वो ही हम क्यूं करें। जबकि सर्वाधिक एमएलए फंड इसी प्रांत में हैं और इससे यहां की आम जनता का कितना भला होता हैं और विधायक और उनके परिवार तथा अधिकारी कैसे मालामाल होते हैं, वो किसी से छूपा हैं क्या।
• क्या आपको मालूम नहीं कि जिस बाबा रामदेव को आप की सरकार ने राज्य अतिथि घोषित किया हैं, वो ही झारखंड प्रवास के दौरान, यहीं की सड़कों के बारे में जो टिप्पणी की हैं, वो शर्मनाक हैं।
• भ्रष्टाचार चरम पर है, जो एसपी कोयलांचल के कोलमाफियाओं को नाक में दम कर रखी थी, जिसे धनबाद में ही रखने के लिए, धनबादवासी आंदोलनरत हैं, आप मौके की तलाश में थे उनका स्थानांतरण करने का, और जैसे ही धीरेन्द्र प्रकरण आया, आपने कोलमाफियाओं की मुंहमांगी मुराद पूरी कर दी और उन्हें स्थानांतरण करने का फैसला ले लिया, वह भी तब जब राज्य में पंचायत चुनाव की घोषणा और आचार संहिता लागू था। आखिर ऐसा कर आप क्या संदेश देना चाहते हैं।
• क्या आप बता सकते हैं कि आपकी प्लानिंग क्या हैं, विजन क्या हैं, आपके प्लानिंग और विजन को पूरा करने के लिए, कौन कौन लोग प्रयत्नशील हैं और अब तक उन्होंने इन सौ दिनों में कैसा काम किया हैं।
• इन सौ दिनों में तो हमने देखा कि आप ही के मुख्य सचिव, खुलकर स्वीकारते हैं कि राज्य में सिस्टम फेल हैं, बीडीओ – सीओ आफिस नहीं जाते हैं, इसलिए नक्सलिज्म बढ़ रहा हैं। ऐसे में आम जनता आपसे क्या उम्मीद लगायें।
• स्थिति तो ऐसी हैं कि जिन प्रशासनिक अधिकारियों को आपकी सरकार के द्वारा विभिन्न आरोप लगाकर, दंडित किया गया, फिर उन्हें शीघ्र ही महिमामंडित कर, सेवा कार्य में लगा भी दिया गया। आखिर ये दोहरे मापदंड क्यों, इस प्रकार की हरकतें, क्या साबित करती हैं।
हमारे पास एक नहीं अनेक अकाट्य प्रमाण हैं, पर कितने प्रमाण लिखूं। इतने से गर सरकार की आंखे खूल जाती हैं और सरकार कुछ जनता के हित में ठोस निर्णय लेते हुए, प्लान बना कर, अपने विजन को साकार करती हैं, तो झारखंड का बड़ा ही भला होगा, पर हमें ऐसा दीखता नहीं, क्योंकि झारखंड बर्बादी के कगार पर हैं, और बर्बादी के कगार पर पहुंचाने के बाद, इस सरकार और अन्य नेताओं को अपने बचाव के लिए एक सुंदर, उदाहरण भी मौजूद हैं, वो ये कि यहां की जनता, स्थिर सरकार ही नहीं देती, स्पष्ट जनादेश ही नहीं देती तो ऐसे में झारखंड कैसे आगे बढ़े। जो लोग इस प्रकार का तर्क देते हैं, उनसे हमारा एक ही सवाल हैं कि वे बतायें कि देश में एनडीए और उसके बाद चल रहा यूपीए का शासन क्या एक ही पार्टी का हैं, गर नहीं तो फिर इस प्रदेश का बुरा हाल क्यूं। कृपया झूठ बोलने से ये नेता बाज आये और अपने गिरेबां में झांक कर देंखे। अपनी गलतियों का ठीकरा यहां की भोली भाली जनता पर न फोड़ें, अपनी गलतियों को स्वीकार करना, बहुत बड़ा पुरुषार्थ हैं, इन नेताओं और आज की सरकार को ये बात नहीं भूलना चाहिए।

Saturday, December 4, 2010

संघ, भाजपा और गडकरी के बेटे की शादी...!


संघ का एक गीत है --------------
"देश के लिये जीये,
समाज के लिये जीये,
ये धड़कनें, ये श्वास हो,
पुण्यभूमि के लिए, जन्मभूमि के लिए..............."
पर ये गीत, संघ और संघ का एक राजनीतिक संगठन भाजपा से जूड़ें कुछ धनाढ्य लोगों, अंधकूप में रहनेवालों, केवल खुद के लिए जीनेवालों पर लागू नहीं होता, ये लागू होता हैं, उन अंसख्य स्वयंसेवकों पर जो लाठी और गणवेश में खुद को, इस गीत पर झूमा रहे होते हैं और भ्रम में जीने को विवश होते हैं। ये कैसे होता हैं। उसका बानगी देखने को मिला -- झारखंड की राजधानी रांची से प्रकाशित एक समाचार पत्र प्रभात खबर में। इस अखबार ने 03 दिसम्बर को बड़ी ही संजीदगी से प्रथम पृष्ठ पर दो समाचारों को एक साथ स्थान दिया और जनता को सोचने और समझने पर विवश कर दिया कि जनता जाने कि जो भाजपा और संघ उसके समक्ष दिखाई पड़ रहा हैं, सचमुच उसका चरित्र हैं या उसने अपना चरित्र खो दिया हैं। सचमुच प्रभात खबर को, हृदय से बधाई, ऐसे समाचार प्रकाशित करने के लिए। ऐसे भी, इस प्रकार की खबरें, प्रभात खबर में ही दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि बाकी अखबारों में तो इस प्रकार की खबरों को स्थान मिलना, असंभव सा दिखता हैं।
आखिर इस अखबार ने क्या छाप दिया.......................
इस अखबार ने छापा हैं कि झारखंड के शहर सिमडेगा के पिथरा पंचायत के भाजपा अध्यक्ष मदन साहू ने गरीबी से तंग आकर गुरुवार यानी 2 दिसम्बर को आत्महत्या कर ली, जबकि दूसरी ओर इसी तारीख को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने नागपुर में अपने बेटे निखिल की शादी में 60 करोड़ खर्च कर दिये।
अखबार ने आगे लिखा हैं कि केवल एक करोड़ तो नितिन ने निमंत्रण पत्र पर खर्च कर डालें, बेटे निखिल को नौ करोड़ का बंगला और बीएमडब्लयू भी दिया। दो दिनों तक तीन लाख लोगों के लिए स्वादिष्ट व्यंजन बनाने की व्यवस्था, 300 तरह के व्यंजन, रिसेप्शन में चार्टड प्लेन से मेहमानों की आने की व्यवस्था, मेहमानों के लिए 22 विशेष उड़ानों की व्यवस्था आदि कर डाली। और इधर गरीबी का शिकार पिथरा पंचायत के भाजपा अध्यक्ष मदन साहू की हालत देखिये टमाटर की खेती में उसे नुकसान उठाना पड़ा, मदन साहू अपने बच्चों और पत्नी का बोझ उठाने में असमर्थ, एक डिसिमल जमीन तक नहीं, बटाई पर खेती करके, अपने परिवार का भरण पोषण करता था, टमाटर की दर घटने से हुए भारी घाटे ने उसका जीवन बर्बाद कर दिया था, बेटी के इलाज के लिए उसके पास पैसे नहीं थे, लाल कार्ड से उसका नाम तक काट दिया गया था, बेचारा इस हालात से तंग आकर अपनी जिंदगी ही समाप्त कर डाली।
कमाल देखिये, ये अखबार आज प्रमुखता से इस समाचार को प्रकाशित किया हैं, पर भाजपा के बड़े नेता, खासकर झारखंड की राजनीति करनेवाले संघ और उसके लोग, तथा भाजपाई, उस दिवंगत मदन साहू के घर तक जाने की हिमाकत नहीं की, और चल पड़े नितिन गडकरी के नागपुर स्थित आवास, जहां दो दिनों तक चलेगी, नितिन के बेटे निखिल की रिसेप्सन पार्टी। हम आपको बता दें कि जिस नितिन के घर ये झारखंडी नेता व मंत्री सलाम बजाने गये हैं, वो नितिन इन नेताओं को शायद ही भाव देगा। फिर भी, सभी ने नागपुर का दौरा करना, ज्यादा उचित समझा।
यानी इधर गयी जान और उधर शादी आलीशान और वो भी उस पार्टी में, जो कहती हैं कि भाजपा के साथ चले, रामराज्य की ओर चले। उस पार्टी में जहां राम, सुराज, सुशासन की बात कुछ ज्यादा ही कहीं जाती है, अरे जो पार्टी अपने पंचायत अध्यक्ष की मौत की जिम्मेवारी न लें, जो पार्टी अपने पंचायत अध्यक्ष की मौत का समाचार सुनने के बाद उसके परिवार तक का सुध न लें, वो पार्टी आम जनता के सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा क्या करेगी।
इधर हमने देखा हैं कि कुछ राजनीतिज्ञों के द्वारा अपने बेटे बेटियों की शादी के अवसर पर फिजूलखर्ची करना, दिखावे करने का फैशन जगा हैं, खासकर उस देश में जहां गरीबी से तंग आकर, किसानों और सामान्य लोगों का समूह हमेशा आत्महत्या कर रहा होता हैं। इसमें लालू प्रसाद, झारखंड के ही एक पूर्व मंत्री कमलेश सिंह का नाम हमारे बिहार झारखंड में ज्यादा चला हैं, पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने सबको पीछे छोड़ दिया, शायद लालू को चुनौती भी दे दी हो, कि लालू जी आप क्या खर्च करोगे, जो हमने कर दिया। सचमुच नितिन गडकरी जी, आप महान हैं, आप ऐसा ही कर सकते हैं, आप से इससे ज्यादा कुछ आशा भी नहीं की जा सकती, पर ये भी जान लीजिए, कि आप ही की पार्टी की तरह एक राष्ट्रीय पार्टी हैं, जिसका नाम हैं, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस। जिसकी अध्यक्ष हैं सोनिया गांधी। जिन्होंने अपनी बेटी प्रियंका की बिल्कुल सामान्य ढंग से सादगी के साथ शादी संपन्न करायी। ये पूरा देश जानता हैं। ऐसे भी भारत का एक संदेश है --------- सादा जीवन, उच्च विचार। पर आप जैसे लोगों को इस भारतीय संस्कृति का यह सुंदर संदेश दिमाग में नहीं घूसेगा।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की एक राजनीतिक संगठन भाजपा कहती हैं कि उसकी पार्टी पंडित दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के कथन पर चलनेवाली पार्टी हैं, पर भाजपा के बड़े नेता बताये कि जो चरित्र इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने दिखायी हैं, क्या वो चरित्र दीन दयाल उपाध्याय के कथन से मेल खाता है। गर मेल नहीं खाता, तो आनेवाले चुनावों में यहां की जनता भाजपा को क्यों वोट दें। संघ को राष्ट्रवादी संगठन क्यों माने।
संघ ये बतायें और भाजपा भी, कि जिस देश में करोड़ों लोग भूख और गरीबी से तंग आकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हो, ठीक उसी तरह जैसे भाजपा के पंचायत अध्यक्ष ने आत्महत्या कर जीवन लीला समाप्त कर ली। यहीं नहीं जिस प्रांत से नितिन गडकरी आते हैं, उसी प्रांत में कई किसानों ने आत्महत्या की हैं। उसी देश में एक सार्वजनिक जीवन जीनेवाला व्यक्ति को इस प्रकार के समारोह आयोजित करना शोभा देता हैं। भ्रष्टाचार और चरित्र को लेकर हाय तौबा मचानेवाली, भाजपा खासकर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में संसद को जो चलने नहीं दे रही हैं, वो खुद बतायें कि कर्नाटक और झारखंड में उसके लोग क्या कर रहे हैं। अरे भाजपाईयों शर्म करना सीखों, पर तुम्हें शर्म आयेगी। इस पर हमें संदेह हैं, क्योंकि शर्म तो उन्हें आती हैं, जिनका चरित्र होता हैं। पर भाजपाईयों और संघ के लोगों ने तो अब चरित्र, तेल लेने भेज दिये हैं।

Monday, November 29, 2010

स्थानांतरण एक एसपी का ......


जनता चाहती हैं, कि वो मेरे पास रहे, मेरे साथ रहे, मेरे हर दुख सुख में साथ दें, क्योंकि वो जब से आयी, तब से धनबाद में वो चीज थम गया, जिसके लिए धनबाद जाना जाता था। आखिर वो कौन हैं – जिसके बारे में धनबाद की जनता ने धनबाद बंद बुला दिया और यहीं नहीं सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलने को तैयार हो गयी। स्पष्ट हैं – वो नाम हैं, धनबाद के वर्तमान एसपी सुमन गुप्ता का। वो हैं महिला, पर पुरुषार्थ इतना भरा कि उनके सामने पुरुष की पुरुषार्थ भी फेल। जब वो धनबाद की एसपी बनी थी, तब मैं उस वक्त ईटीवी धनबाद का प्रभारी था। मनौज कौशिक एसपी की विदाई हो गयी थी और सुमन गुप्ता प्रभार ले रही थी। व्यवसायी वर्ग रोज रोज की रंगदारी से तंग था, कोल माफियाओं की तूती बोल रही थी। नेताओं-माफियाओं-भ्रष्टाचार में लिप्त कुछ पुलिसकर्मी और पत्रकारों का गठजोड़ अपने रंग में था। ऐसे में इन पर नकेल कसना और धनबाद को रास्ते पर लाना कोई सामान्य काम नहीं था। ऐसे भी कहा जाता हैं कि जो भी आईपीएस झारखंड आता है, और उसे पैसे कमाने होते हैं तो वो एक बार धनबाद की पोस्टिंग चाहता हैं, इसके लिए वो सत्ता में बैठे नेताओं को मुंहमांगी रकम देने को भी तैयार होता है। यहीं नहीं जब पैसे के बल पर, वो एसपी धनबाद आ जाता हैं, तब अपने मनमुताबिक, वो थाना प्रभारियों को नियुक्त करता हैं, सस्पेंड करने का नाटक करता हैं और जम कर पैसे कमाता हैं। ऐसे एसपी को कुछ करने की भी जरुरत नहीं पड़ती, धनबाद हैं, इसलिए पैसे खुद ब खुद इनके पास पहुंच रहा होता हैं, पर इसके बदले में एक सामान्य जनता को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती हैं। चाल धंसते हैं, सामान्य लोग मरते हैं, व्यवसायियों से रंगदारी मांगी जाती हैं, अपहरण उद्योग चलता हैं, रेलवे से लोहे और कोयले की चोरी नहीं, तस्करी होती हैं और अपना प्रांत व देश लूट रहा होता हैं। इधर, भ्रष्ट एसपी, आराम से सो रहा होता हैं, क्योंकि उसे सोने की कीमत हर महीने, कार्यालय, आवास अथवा मनमुताबिक जगहों पर पहुंचा दी जाती हैं।
सुमन गुप्ता, झारखंड का एक जाना पहचाना नाम हैं, इसलिए नहीं कि वो एसपी हैं, इसलिए कि वो अपने कामों से जनता का दिल जीती हैं, साथ ही दिल जीती हैं, उन पुलिसकर्मियों का जो ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ हैं, और उक्त जनता का, जिसे लटपट से कोई मतलब नहीं, सिर्फ उसे मतलब हैं कि चैन से जीने का। जब मैं ईटीवी धनबाद में था, तभी मैं समझ गया था कि इनकी नेताओं, माफियाओं, धनबाद में रह रहे कुछ भ्रष्टपुलिसकर्मियों और पीतपत्रकारिता में संलिप्त लोगों से नहीं बनेगी, और हुआ भी ऐसा ही। सुनियोजित साजिश के तहत शुरु से ही ऐसा ताना बाना बनाया जाने लगा, जैसे लगता हैं कि इनके आने से धनबाद में अमन चैन ही खत्म हो गया हो। और रही सही कसर निकाल दी, धनबाद में धीरेन्द्र प्रकरण ने, जो नेता ये मुद्दा उछाल रहे हैं, उन्हें धीरेन्द्र से कोई मतलब नहीं। मतलब हैं कि इसी की आड़ में, अपना उल्लू सीधा कर लें। यहीं नहीं रांची में बैठे सत्तासीन लोगों को भी पैसे की चाहत हैं, वे भी चाहते हैं कि धनबाद में अपने ऐसे लोगों को बिठा दें, जो आराम से उनके चौखट तक पैसे पहुंचा दे। ऐसे में जब तक धनबाद के एसपी सुमन गुप्ता को नहीं हटायेंगे, तो फिर मनचाहा आदमी कैसे बैठेगा। इसलिए उन्होंने तरकीब निकाली कि क्यूं नहीं, विपक्ष के इस हंगामें को आधार बनाकर, अपना उल्लू सीधा कर लिया जाय। हमें याद हैं कि जिस दिन विधानसभा अपना स्थापना दिवस मना रहा था, उस दिन धनबाद के कई पुलिसकर्मियों और पत्रकारों के फोन हमारे पास आये, उनका एक ही प्रश्न था कि धनबाद के एसपी सुमन गुप्ता का क्या हुआ। आज झाविमो विधायक समरेश सिंह और फूलचंद मंडल ने जो हंगामा किया, उसका कितना असर रहा। और जिस दिन आईपीएस अधिकारियों का तबादला हुआ, उसमें सभी समाचार पत्रों ने सुमन गुप्ता को ही प्रमुखता दे दी, जबकि तबादला सिर्फ सुमन गुप्ता का ही नहीं, औरों का भी हुआ था। ये बातें साबित करती हैं कि एक ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ महिला, कोलमाफियाओं, सत्ता में बैठे अथवा बाहर में रह रहे राजनीतिज्ञों, भ्रष्ट पुलिसकर्मियों और पीत पत्रकारिता करनेवाले पत्रकारों को किस प्रकार खटक रही हैं।
मैं ये भी नहीं कहता कि सुमन गुप्ता हमेशा धनबाद में ही रहे, ऐसी महिला, हर जगह जानी चाहिए, जिससे एक नये समाज की रचना हो, पर उक्त महिला का स्थानांतरण भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, कोलमाफियाओं, भ्रष्टपुलिसकर्मियों और भ्रष्ट पत्रकारों को खुश करने के लिए हो, तो इससे ज्यादा शर्मनाक दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता। धीरेन्द्र सिंह प्रकरण की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए, और इसके दोषियों को दंड भी मिलना चाहिए, पर इस प्रकरण को बहाना बनाकर, बिना जनता को विश्वास में लिए, स्थानांतरण करना, सरकार की नीयत पर भी सवाल खड़ें करता हैं? आखिर सरकार को सोचना चाहिए कि जो लोग रांची से धनबाद अथवा धनबाद से रांची तक ये मामला उठा रहे हैं, वे चाहते क्या हैं, उनका क्या स्वार्थ हैं, पर बिना इन सबकी जांच पड़ताल किये, स्थानांतरण कर देना, बहुत कुछ कह देता हैं। आखिर फुलचंद मंडल, ढुल्लू महतो और समरेश सिंह जैसे विधायक, धनबाद में क्या करते हैं, क्या चाहते हैं, क्या धनबाद की जनता नहीं जानती। कैसे पंचायत चुनाव के दौरान, अर्जुन मुंडा की सरकार ने आनन फानन में, सुमन गुप्ता का स्थानांतरण कर दिया, क्या इस सरकार के क्रियाकलापों को यहां की जनता नहीं जानती। सब जानती हैं, पर जनता करें क्या, यहां तो अंधेर नगरी, चौपट राजा, टके सेर भाजी और टके सेर खाजा वाली कहावत चरितार्थ हो रही हैं।

Thursday, November 25, 2010

चेते लालू, नहीं तो कहीं के नहीं रहेंगे।

रहस्यमय जनादेश बिहार का....!

ये जनादेश बता रही है, कि इस जनादेश में नीतीश की जीत कम एवं लालू, रामविलास और कांग्रेस की करारी हार ज्यादा हैं। गर इस जनादेश के माध्यम से भी लालू, रामविलास और कांग्रेस के राहुल नहीं चेते, तो ये सब आनेवाले समय में कम से कम बिहार में तो समाप्त ही हो जायेंगे। और बिहार से समाप्त होने का मतलब आनेवाले समय में देश की संपूर्ण राजनीति से भी समाप्त हो जाना हैं, ये बातें इन्हें नहीं भूलना चाहिए।
सबसे पहले लालू की बात ----
लालू जी ने जब 1990 में बिहार की पहली बार सत्ता संभाली तो ये सत्ता मिलते ही ऐसे बौराये कि पूछिये मत। अजब गजब के निर्णय, हर किसी को गाली और अपने आगे किसी को नहीं लगाना, मसखरी करना, खुद के लिए लालू चालीसा लिखवाना, अपनी गुणगान कराना इनके रोज का शौक बन गया। मैं, उस लालू की बात कर रहा हूं, जिस लालू के बारे में उस वक्त बिहार की जनता एक भी शब्द नहीं सुनना चाहती थी, और गर किसी ने भूल से भी लालू के बारे में बोला तो उसके बुखार छुड़ा देती थी। यानी इतना शक्तिशाली बिहार का नायक लालू, आज श्रीहीन हैं, आज का लालू सत्ता तो दूर एक एक सीट के लिए तरस रहा है और जनता उसके बारे में कुछ बात करने से भी परहेज करती हैं। शायद उस वक्त सत्ता के मद में लालू प्रसाद श्रीरामचरितमानस की चौपाई वो भूल गये थे कि
बूंद अघात सहहिं गिरि कैसें। खल के बचन संत सह जैसें।।
छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहु धन खल इतराई।।
फिर भी लालू अब सुधरेंगे, कल सुधरेंगे, ऐसा मानते हुए यहां की जनता ने एक नहीं तीन – तीन बार सत्ता सौंपा, पर बिहार की जनता को मिला क्या। इस व्यक्ति ने सत्ता प्राप्त कर ऐसा चक्कर चलाया कि इसी चक्कर में, इनका पूरा परिवार और ससुराल सत्ता का सुख भोगा, पन्द्रह वर्षों तक ये बिहार का भाग्य विधाता, अपने परिवार का भाग्य विधाता बनकर, सत्ता का परमसुख लेता रहा और बिहार की जनता गरीबी के बोझ तले, इधर से उधर भटकती रही, इसी दरम्यान देश के कुछ प्रांतों के लोग बिहारियों को हीन नजरों से देखकर उस पर लात घूंसों का बौछार करने से नहीं चूके। कमाल हैं बिहारी दूसरे प्रांतों में लात जूते खा रहे थे और इधर इनका ज्यादा समय पटना के गांधी मैदान में जातीयता रैली करने, और उसकी अध्यक्षता करने में जाता, यहीं नहीं गरीब रैला, लाठी पिलावन रैला, तेल पिलावन रैला, यहीं करके खुद को आनन्दित करने में यह व्यक्ति मजा लेता रहा और लोग अपने आप को कोसते रहते। यहीं नहीं इस व्यक्ति को विदेश जाने का भी मौका मिला तब विदेश में भी उसने अपने हाव भाव से बिहार के लोगों की वो तस्वीर पेश की, जिसकी जितनी निंदा की जाय कम हैं। कमाल हैं बिहार की राजनीति में आज तक कोई ऐसा व्यक्ति अथवा राजनीतिज्ञ नहीं हुआ, जिसने सत्ता के मद में आकर, अपने परिवार और ससुरालवालों की इतनी आवभगत की हो या मसखरी करते हुए खुद सत्ता में नहीं है, तो अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया हो। क्या इन्हें बिहार की जनता ने इसीलिए सत्ता सौंपी थी।
बिहार को किसी भी कीमत पर नहीं बांटने की बात करनेवाले इस व्यक्ति को जैसे ही बिहार में कम सीटें मिली, इसने बिहार को बांटने का सहर्ष निर्णय ले लिया। कभी इसने कहा कि ये शाकाहारी हो गये, और कभी कहा कि भगवान उनके सपने में आये और कहा कि मांसाहारी हो जा, और वे मांसाहारी हो गये।
इस व्यक्ति के शासनकाल में महिलाएं, रात तो दूर, सायंकाल में घर से निकलना पसंद नहीं करती थी। अपहरण उद्योग तो इनके शासनकाल में ऐसा फैला कि पूछिये मत और भ्रष्टाचार का तो कहना ही नहीं। इस भ्रष्टाचार में तो खुद ऐसे पारंगत हैं कि इन्हें इसकी पाठशाला खोल देनी चाहिए ताकि लोग भ्रष्टाचार का प्रशिक्षण लेकर, देश का सत्यानाश कर सके। ये वो व्यक्ति हैं जो कहता हैं कि वो संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट है गर ऐसा व्यक्ति संपूर्ण क्रांति के आंदोलन का प्रोडक्ट हैं तो मुझे उस संपूर्ण क्रांति आंदोलन पर ही शक हो जाता है। पर लोकनायक जयप्रकाश के आंदोलन पर शक मैं सपने में भी नहीं कर सकता, क्योंकि इसी आंदोलन के प्रोडक्ट कई ऐसे लोग मिले हैं, जो सचमुच में संपूर्ण क्रांति के भाव को जन जन तक पहुंचा रहे हैं। याद करिये, लालू प्रसाद को, कभी ये खुद को किंग मेकर कहा करते थे, पर एक मामूली रेल मंत्रालय लेने के लिए ऐसा जिच किये कि सोनिया ने मनमोहन सिंह से कहा कि लालू को रेल वे दे दें ताकि ये रेल से खेल सकें, जैसा कि एक छोटा सा बच्चा अपनी मां से रेलरुपी खिलौने लेने की जिद कर बैठता हैं। क्या एक किंग मेकर, खुद के लिए ऐसा जिच कर सकता हैं और जो ऐसा जिच करता हैं वो कभी किंग मेकर हो सकता हैं। किंग मेकर क्या होता हैं, लालू को कम से कम सोनिया गांधी से सीखना चाहिए, पर इन्हें मसखरी करने से फुर्सत हो तब न, कुछ सीखेंगे। हर बार ये कहना कि उन्होंने गरीबों, मजलूमों को आवाज दी, जैसे लगता है कि गर ये न होते तो कभी गरीबों और मजलूमों को आवाज ही नहीं मिलती। जरा लालू जी जाकर उन गांवों में देखे कि उनके नाम पर, उनकी जाति के लोगों ने किस प्रकार से आंतक मचा कर लोगों को जीना मुहाल कर दिया, कैसे अल्पसंख्यकों की कब्रिस्तान की जमीन तक इनके लोगों ने कब्जा कर लिया है। आज ही एक चैनल ने दिखाया कि एक पटना के रिक्शेवाले ने कैसे अपनी दुख भरी कहानी सुना दी कि लालू के शासनकाल में जब वो रिक्शावाला सुबह से शाम तक रिक्शे खींचता, पैसे कमाता तो उसके पैसे को अपराधी कैसे, घर जाने के क्रम में लूट लिया करते, पर नीतीश के शासन में अब उसके साथ ऐसा नहीं होता। क्या रिक्शावाला का ये बयां, लालू के दिमाग में नहीं घूसता। कि वो क्या कहना चाहता है।
आज जब एनडीए को तीन चौथाई बहुमत मिला है, तो इस बहुमत को भी नहीं पचाना और इस पर ये टिप्पणी करना कि इसमें रहस्य हैं, ये लालू प्रसाद जैसे लोग ही बयान दे सकते हैं, जबकि दूसरे नेता तो ऐसे मौके पर अपने प्रतिद्वंदियों के घर जाकर, उसे अपनी शुभकामना देते है पर लालू प्रसाद से ऐसी परिकल्पना मूर्खता के सिवा कुछ भी नहीं।
जरा रामविलास पासवान को देखिये कल तक मुख्यमंत्री मुस्लिम हो, इसकी बात करनेवाला ये शख्स ऐन मौके पर ये बयान ही भूल गया और चल पड़ा अपने परिवार को मजबूत करने के लिए। कल तक कांग्रेस पर परिवारवाद का आरोप लगानेवाले ये दोनो शख्स खुद ही परिवार के आगे कुछ सोचना भी नहीं चाहता, क्या ऐसे लोगों को बिहार की जनता से वोट मांगने का हक भी हैं, और जब जनता ने अपना फैसला सुना दिया तो उस फैसले पर रहस्य पैदा करनेवाले ये कौन होते हैं। क्या ऐसा कहकर वे जनता का अपमान नहीं कर रहे।
रही बात राहुल की तो उन्हें ये जान लेना चाहिए कि ये उत्तर प्रदेश अथवा महाराष्ट्र नहीं हैं कि उनका जादू चल जायेगा, ये खांटी कर्मयोगियों की भूमि हैं, बिहार हैं, यहां एक्टिंग नहीं चलती, यहां के लोगों को जमीन से जूड़ा हुआ नेता चाहिए, इसलिए पहले वे बिहार के बारे में जानें, तब बिहार में आकर बात करें। कल तक विदेश में अपना सारा समय गंवानेवाले राहुल बिहार को क्या जानेंगे। ऐसे भी कहावत हैं, बांझ का जाने प्रसव का पीड़ा। बिहार और बिहार के लोगों की पीड़ा राहुल क्या जानेंगे। कम समय में जिस प्रकार से उन्होंने बिहार में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी चाही और जो करतब दिखायें, वो तो बिहारवासियों ने जनादेश के माध्यम से उन्हें बता दिया। शायद राहुल समझ लिये थे कि बिहार के लोग लालू जैसे होते हैं, और जैसे लालू को उन्होंने अपने कब्जें में कर लिय़ा, उसी प्रकार बिहार के लोगों के मतों पर भी कब्जा कर लेंगे, तभी तो उन्होंने साधु यादव, पप्पू यादव की पत्नी और आनन्द मोहन की पत्नी को कांग्रेस से टिकट देकर, अपनी बुद्धिमता का परिचय दे दिया और जब जनता की बारी आयी तो जनता ने इनकी सारी बुद्धिमता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया, ये कहकर कि उन्हें न तो लालू चाहिए और न ही लालू के पदचिन्हों पर चलनेवाले पूर्व के नेता अथवा उनकी पत्नियों से उपकृत होनेवाली पार्टी।
जनता ने पहली बार, ऐसा जनादेश दिया हैं कि लोगों को बिहारी होने पर गर्व महसूस हो रहा हैं। सारे के सारे जातीय समीकरण ही ध्वस्त हो गये। नेताओं की पत्नियां और उनके परिवार के अन्य लोग हार का मुंह देखे हैं। चारों और एक ही बात की चर्चा का, हमें विकास चाहिए, बिहार का स्वाभिमान चाहिए और जो बिहार का स्वाभिमान लौटायेगा, हम उसके साथ होंगे। हम ऐसा नहीं मानते कि नीतीश ने पूरे बिहार में क्रांति ला दी हैं, पर इतना तो जरुर हैं कि नीतीश के शासनकाल में कानून व्यवस्था ठीक हुई हैं, महिलाओं को उनका अधिकार मिला हैं, लड़कियों में कोई भेदभाव नहीं हुआ हैं, चाहे वो कोई हो, माध्यमिक शिक्षा से जूड़ी बालिकाओं को साईकिल थमा दी गयी कि वे इससे जहां जाये, जायें, लेकिन पढ़े। सड़कों और आधारभूत संरचनाओं को ठीक किया। अपराधी चाहे वे किसी भी पार्टी के हो, उन्हें जेल का रास्ता दिखाया। लोगों में विश्वास जगाया कि हां राज्य में कोई शासन हैं, पर पहले के पन्द्रह सालों में कहीं कुछ दिखा ही नहीं। लालू के पन्द्रह सालों में तो अखबारों और मीडिया में लालू और लालू से संबंधित ही चीजें दिखाई पड़ती थी, चाहे वो लालू के जानवर ही क्यूं न हो, पर आज वैसी बातें नहीं दिखाई देती। आज बिहार और बिहार का युवा, कहता हैं कि वो मसखरे के राज्य का नहीं हैं, बल्कि सपने देखनेवाले राज्य का युवा हैं, जो अन्य राज्यों की तरह विकास के पथ पर चल पड़ा हैं। लेकिन नीतीश के लिए भी कुछ बातें, उन्हें भी जवाब देना होगा, ऐसा नहीं कि उनकी गलतियों पर जनता का ध्यान नहीं हैं, उन्होंने किस प्रकार इस चुनाव में मीडिया मैनेजमेंट किया और अपनी गुणगान करायीं, ये भी किसी से छुपा नहीं हैं, उदाहरण अनेक हैं, पर इतना तो तय हैं कि नीतीश के गुनाह, फिलहाल लालू, रामविलास और राहुल के गुनाहों से बहुत ही कम हैं। शायद यहीं कारण हैं कि गुनाहगारों में जो कम गुनाहगार था, जनता ने उसे अपना बहुमत दे दिया कि वो पांच साल तक, एक बेहतर बिहार बनाने की दिशा में काम करें, रही बात भाजपा की, तो वो नीतीश के पीछे पीछे चलते रहे, कुछ न कुछ, उसको इसका लाभ मिलता ही रहेगा। क्योंकि भाजपा, कांग्रेस के पदचिन्हों पर चल रही हैं, गर ये सुधर गयी तो ठीक है, नहीं तो इसका भी कांग्रेस जैसा हाल होना तय है।

Friday, November 12, 2010

एहि सूर्य ..........

( छठ पर विशेष )
एहि सूर्य सहस्रांशो तेजोराशे जगत्पते।
अनुकम्पय मां भक्तया गृहाण अर्घ्यं दिवाकर।।

जब से सृष्टि बनी तभी से मनुष्य ने प्रकृति द्वारा प्रदत्त हर वस्तूओं को जानने की कोशिश की, और अपने अपने ढंग से परिभाषा गढ़नी शुरु की। जब जब कार्तिकशुक्ल रविषष्ठी व्रत आता हैं, जिसे सामान्य जन छठ व्रत कहते हैं, अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में छठव्रत से संबंधित मनगढ़ंत बातें छपनी और दिखानी शुरु हो जाती हैं, ऐसी ऐसी बातें, जिनका छठ से कोई लेना देना नहीं होता, और इस कारण से आनेवाली नयी पीढ़ी, इस छठ के आध्यात्मिक पक्ष से विमुख होती जा रही हैं, लेकिन जब इन्हीं से संबंधित उन समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगों से ये पूछे कि आखिर उनके पास जो वे लिख रहे हैं या दिखा रहे हैं, उसके क्या शास्त्रीय आधार है, तो वे तुरंत ये कहकर पल्ले झाड़ लेंगे कि इससे संपादक का कोई लेना देना नहीं, पर क्या संपादक को ये अधिकार हैं कि वे अपनी दकियानूसी विचारधाराओं और अविश्वसनीय आलेखों और प्रवचनों से आम लोगों की बुद्धि को प्रभावित कर दें। खैर, जो इन्हें करना था, कर चुके हैं, पर आम जनता को ये जानना अवश्य चाहिए कि आखिर ये छठ व्रत क्या हैं और इसके वैज्ञानिक और आध्यात्मिक आधार क्या हैं.....
सर्वप्रथम वैज्ञानिक पक्ष.......
सूर्य क्या है........?

सामान्य सा उत्तर हैं कि सूर्य ग्रह नहीं हैं, यह एक तारा हैं, जो सामान्य तारों की अपेक्षा पृथ्वी के नजदीक हैं और इसी से पृथ्वी प्रकाशित होती हैं और अन्य नौ ग्रह इसके चारों और चक्कर लगाते हैं।
कुछ इस प्रकार भी इसे परिभाषित कर सकते हैं कि सूर्य उच्च तापक्रम वाले अंसख्य पिंडों से बना हैं, इसमें मुख्यतः हाईड्रोजन होती हैं। सूर्य का व्यास पृथ्वी से 109 गुणा बड़ा है, और इसका भार पृथ्वी से 3,30,000 गुणा अधिक है। परंतु सूर्य का घनत्व पृथ्वी की तुलना में केवल एक चौथाई है। वैज्ञानिकों की माने तो करीब 10.5 अरब वर्ष पहले समस्त अंतरिक्ष में फैले गैस के बादल विभिन्न स्थानों पर निकट आये, धीरे-धीरे विभिन्न स्थानों पर वे पास आते गये। गैस के बादलों की ये गेंदे समय के साथ दबती गयीं। और जैसे जैसे उनका तापमान बढ़ता गया, उनमें से हरेक गेंद एक चमकीला सितारा बन गयी। इस प्रकार अंसख्य तारे बने, जिनमें से हमारा सूर्य भी एक था।
वैज्ञानिक ये भी कहते हैं कि करीब 15 अरब वर्ष पहले, एक उंचे तापमान और घनत्व के बड़े धमाके के कारण यह अंतरिक्ष बना, जहां हम आज है। जैसे-जैसे अंतरिक्ष फैला, वैसे-वैसे तापमान ठंडा होने लगा। विभिन्न प्रकार के पदार्थ और विकिरण उत्पन्न होने लगे। जैसे जैसे यह और बड़ा हुआ, गैस के दो प्रकार के बादल बने – एक में गैस का घनत्व अधिक था, दूसरे में गैस का घनत्व कम था। अंत में अतरिक्ष में तैरते गैसे के ये बादल और पदार्थ कुछ स्थानों पर पास आये और अनेक आकाशगंगाएं बनी। इनमें से एक आकाशगंगा में एक अकेला सितारा बहुत तेजी से चमकने लगा। ये चमकता तारा हमारा सूर्य बना और इसके चारों और मंडराते हुए गैस के बादलों ने ही निकट आकर अन्य ग्रहों और पृथ्वी को बनाया। इस प्रकार माना जाता हैं कि सूर्य आज से कोई 460 करोड़ वर्ष पहले बना हुआ होगा।
वैज्ञानिक ये भी मानते हैं कि वर्तमान सूर्य हाईड्रोजन गैस के जलने के कारण लगातार गर्मी और प्रकाश दे रहा है। सूर्य के क्रोड में हाईड्रोजन लगातार जलकर हीलियम में बदलती है। जैसे-जैसे हाईड्रोजन की मात्रा कम होती हैं, सूर्य लगातार कमजोर होता है। बाद में सूर्य में ही हीलियम गैसे जलने लगेगी और सूर्य फैलने लगेगा। सूर्य फैलकर इतना बड़ा हो जायेगा कि वह समीप के बुध और शुक्र जैसे ग्रहों को ही निगल सकता हैं। अंत में सूर्य तेजी से सिकुड़ने लगेगा और श्वेत वामन तारा बन जायेगा। फिर सूर्य अपनी जीवन यात्रा खत्म करेगा और अंतरिक्ष की धूल के रुप में शुन्य में विलीन हो जायेगा। और
अब आध्यात्मिक पक्ष......
भगवान सूर्य को धार्मिक शास्त्रों में विभिन्न नामों से जाना जाता है ----------
भास्कर, दिवाकर, प्रभाकर, रवि, भानु, अंशुमाली, मार्तंड, मरीची, आदित्य, सविता, पतंग, दिनकर, हंस आदि।
भगवान सूर्य के अर्चन के लिए विहित पत्र-पुष्प
भविष्य पुराण बताता हैं कि सूर्य भगवान को यदि एक आक का फूल अर्पन किया जाय, तो सोने की दस अशर्फियां चढ़ाने का फल प्राप्त हो जाता है। भगवान सूर्य को बेला, मालती, काश, माधवी, पाटला, कनेर, जपा, यावन्ति, कुब्जक, कर्णिकार, पीली कटसरैया, चंपा, रोलक, कुंद, काली कटसरैया, बर्बर मल्लिका, अशोक, तिलक, लोध, अरुपा, कमल, मौलसिरी, अगस्तय और पलाश के फूल तथा दूर्वा अतिप्रिय है। भगवान सूर्य को बेलपत्र, शमी का पत्ता, भँगरैया की पत्ती, तमाल का पत्र, तुलसी और काली तुलसी के पत्ते, कमल के पत्ते भी पसंद है। भगवान सूर्य को गुंजा, धतूरा, कांची, अपराजिता, भटकटैया, तगर और अमड़ा न चढ़ाये, क्योंकि वीरमित्रोदय इन वस्तूओं को सूर्य पर न चढ़ाने को कहा है।
धार्मिक पुस्तकों की माने तो भगवान सूर्य की माता का नाम अदिति और पिता का नाम कश्यप है। इसलिए इन्हें आदित्य और कश्यपनंदन के नाम से भी पुकारा जाता हैं। इनकी पत्नी दक्षकन्या रुपा थी। ये सप्तअश्व से युक्त रथ पर आरुढ़ होते हैं और इनके सारथि अरुण है। इनके एक हाथ में चक्र होता है। भविष्य पुराण की मानें तो दक्षकन्या जिनका नाम रुपा था, उनसे भगवान भास्कर का विवाह हुआ और उससे दो संताने हुई, जिनका नाम था यम और यमुना। किन्तु भगवान भास्कर के तेज को रुपा सहन नहीं कर सकी, और छाया के रुप में अपनी ही एक प्रतिमूर्ति बनाकर वह स्वयं तप करने चली गयी। इसी छाया से शनि और ताप्ती की उत्पत्ति हुई। यमुना और ताप्ती आज भी भूलोक में पृथ्वी पर पवित्र नदियों के रुप में प्रत्यक्ष है।
कहा जाता है कि जड़ व चेतन की आत्मा, प्रत्यक्ष भागवत स्वरुप साकार ब्रह्म रुप हैं – भगवान सूर्यदेव।
वेद कहते हैं -----
ऊं आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। (ऋग्वेद)
ऋग्वेद में तो भगवान भास्कर से संबंधित कई सूक्त आपको मिल जायेंगे। उस ऋग्वेद में जिसे गिनीज बुक ऑफ वलर्ड रिकार्डस नामक पुस्तक मानती हैं कि ये विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तक हैं।
यहीं नहीं अथर्ववेद कहता हैं कि ---------------
सूर्यस्तवाधिपतिमृर्त्योरुदायच्छतु रश्मिभिः अर्थात भगवान भास्कर की रश्मियां जीवन प्रदाता, स्वास्थ्य प्रदाता हैं ये अमृततुल्य होती है। ओंकार सूर्य देव की नित्य उपासना व अर्घ्य, पुष्प अर्पण सर्वदा शुभ हैं।
कौन हैं छठि मईया..........?
छठि मईया और कोई नहीं वहीं आदिशक्ति हैं, जिनसे सारी सृष्टि उत्पन्न हुई हैं, वहीं प्रकृति की छठवीं अंश हैं, उन्हें आप षष्टम् कात्यायिनी कहें, अथवा और जो नाम डाल दे। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार देवसेना, जो ब्रह्मा की मानसपुत्री और कार्तिकेय की भार्या है, उन्हें भी षष्ठी देवी के नाम से पुकारते है, क्योंकि कहा गया हैं कि ये ही मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण षष्ठी देवी कहलायी हैं, इन्हीं के प्रसाद से पुत्रहीन व्यक्ति सुयोग्य पुत्र, प्रियाहीनजन प्रिया, दरिद्री धन तथा कर्मशील पुरुष कर्मों के उत्तम फल प्राप्त कर लेते है। ब्रह्मवैवर्तपुराण की मानें तो रविषष्ठी व्रत के दिन, भगवान भास्कर की रश्मियों में देवी षष्ठी का प्रार्दुभाव हो जाता हैं, और जो लोग इस दौरान भगवान भास्कर को अर्घ्य प्रदान कर रहे होते हैं, उन्हें भगवान भास्कर और छठि मईया दोनों की कृपा स्वतः प्राप्त हो जाती है।
सर्वप्रथम इस व्रत को किसने किया ---------------
भविष्योत्तर पुराण कहता हैं कि इस व्रत को सर्वप्रथम नागकन्या की उपदेश सुनकर सुकन्या ने किया था। वो सुकन्या जो महराज शर्याति की पुत्री थी। कहा जाता हैं सतयुग में राजा शर्याति नामक एक राजा हुए। जब राजा शर्याति अपने सपरिवार और राजकीय लोगों को लेकर जंगल में शिकार करने के लिए निकले। तभी उस जंगल में सुकन्या फूल लाने के लिए निकली। सुकन्या वहां पहुंची, जहां महर्षि च्यवन तपस्यारत थे। महर्षि की तपस्या से ऐसी हालत हो गयी थी कि उनके शरीर में दीमक लग गया था। मुनि के शरीर में दीमक लगा देखकर सुकन्या चिन्तित होकर क्या देखती हैं कि दीमक लगे मिट्टी के टीले के मध्य में दो आंखे, जूगनू की तरह चमक रही हैं। आखिर ये चमकती चीजें क्या हैं, इसे जानने के लिए सुकन्या ने महर्षि के नेत्रों को फोड़ डाला। इससे महर्षि के नेत्रों से खून की धारा निकल पड़ी, महर्षि को असह्य पीड़ा होने लगी और इधर सुकन्या अपने स्थान पर लौट आयी। इधर महर्षि च्यवन के नेत्र, सुकन्या द्वारा फोड़ दिये जाने के कारण राजा शर्याति और उनके परिवार तथा राजकीय अधिकारियों के मलमूत्र बंद हो गये, तीन दिनों तक मल मूत्र बंद हो जाने से सभी व्याकुल हो गये। राजा शर्याति ने इसका कारण अपने पुरोहित से पूछा। पुरोहित ने योग बल के द्वारा राजा शर्याति को सारी कहानी बतायी कि सुकन्या के द्वारा क्या अपराध हुआ है। राजा शर्याति सारा माजरा समझ गये और अपनी पुत्री सुकन्या का विवाह महर्षि च्यवन से कर दिया। इधर सुकन्या अपने पति महर्षि च्यवन की खूब सेवा सुश्रुषा करने लगी। एक दिन जब कार्तिक शुक्ल रविषष्ठी तिथि आयी तब सुकन्या ने जल लेने के लिए एक छोटे तालाब के निकट आयी। वहां उसने देखा कि बहुत सारी नागकन्याएं भगवान भास्कर की पूजा कर रही है। सुकन्या उन नागकन्याओं से इस व्रत के विधान और महात्मय पूछे, उन नागकन्याओं ने सुकन्या को सारी विधान बता दी। जब पुनः कार्तिकशुक्ल रविषष्ठी तिथि आयी तो सुकन्या ने विधिवत् तरीके से भगवान सूर्य नारायण की पूजा अर्चना की और अपने पति च्यवन की नेत्र ज्योति पुनः प्राप्त कर ली। इसके बाद इस व्रत के महात्मय को महर्षि धौम्य के द्वारा द्रौपदी ने सुना और इस व्रत को की। इसी व्रत के प्रभाव से द्रौपदी अपना खोया सारा सुख प्राप्त कर ली। कहा जाता हैं कि आज भी जो इस व्रत को विधि पूर्वक करते हैं, उन्हें मनोवांछित फल स्वतः प्राप्त हो जाता है।
ऊं नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे विरंचिनारायण शंकरात्मने।।

अर्थात् समस्त चराचर के एकमात्र नेत्रस्वरुप, जगत के उत्पति, पालन, नाश के कारणभूत, सत्व, रज, तमरुप, ( ब्रह्मा, विष्णु और महेश ) त्रिगुणात्मस्वरुपवाले सूर्य नारायण को नमस्कार है।
व्रत कैसे करें -------
गर भगवान ने आपको सबकुछ दिया हैं तो कृपया कंजूसी न करें और गर कुछ नहीं दिया तो फिर आपसे उन्हें कुछ नहीं चाहिए, केवल अंजूली भर जल लेकर अर्घ्य दे दें तो आपको सारी मनोवांछित वस्तूएं प्राप्त हो जायेगी। फिर भी चार दिनों के इस व्रत में कुछ लोकाचार हैं. प्रथम दिन यानी कार्तिक शुक्ल रवि चतुर्थी तिथि को आप अपने शरीर को शुद्ध करने का प्रथम प्रयास करें। लहसुनप्याज रहित, सामान्य मौसमी सब्जी बनाये, कद्दु और चने दाल की मिश्रित दाल बनाये, अरवा चावल की भात बना लें और पूर्वाह्न के आसपास, भगवान भास्कर को ये सारी वस्तुएं भोग लगाकर भोजन करें और अन्य को भी प्रसाद स्वरुप दें। दूसरे दिन पंचमी तिथि को सायं काल में मिट्टी की चुल्हें पर आम की लकड़ी से बनी गुड़ मिश्रित अरवाचावल और दूध की बनी खीर बनाये और उसे रोटी के साथ भगवान भास्कर को भोग लगाकर ग्रहण करें और दूसरे को भी प्रसाद स्वरुप बांटे। तीसरे दिन यानी षष्ठी तिथि को किसी तालाब, नदी अथवा कूएं पर अपने सपरिवार सहित अस्ताचलगामी भगवान भास्कर को सूप में विभिन्न मौसमी फलों नारियल, गुड़ और आटे की बनी ठेकूआ, नैवेद्य स्वरुप अर्घ्य प्रदान करें और फिर यहीं प्रक्रिया चौथे दिन यानी सप्तमी तिथि को उद्याचलगामी भगवान भास्कर को अर्घ्य देते समय अपनायें और इसी के साथ आपकी पूजा – तपस्या संपन्न हो जाती है।
हालांकि ये बिहार में सर्वाधिक प्रतिष्ठित है। खासकर पटना के गंगा किनारे इस व्रत करने का एक अपना अलग ही आनन्द हैं। छठ व्रत के गीतों में गंगा बार बार आयी है। इस व्रत को डाला छठ या बूढी छठ कहते है। वो इसलिये कि इस व्रत को ज्यादातर पूर्व में बुढ़ी पुरनिया ही किया करती थी, मान्यता ये थी कि वो अपने सारी दायित्वों की पूर्ति कर लेने के बाद, भगवान भास्कर से अपना इहलोक और परलोक सुधारने और अपने परिवार के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए नियम धर्म से व्रत रखती थी, पर वर्तमान में ऐसा दौर चला हैं कि अब ये ठेक ही पूरी तरह से मिट गया हैं। हर उम्र के लोग, इस व्रत को कर रहे हैं। ऐसे भी व्रत करनी चाहिए, क्योंकि व्रत करने से आप अंदर से शुद्ध होते हैं, आपके विचार पुष्ट होते हैं, और इसके बाद जो आप काम करते हैं, उससे आपका परिवार, समाज और राष्ट्र सभी उपकृत होते हैं।
जय छठी मईया................................................।

Wednesday, November 10, 2010

तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय, न तुम हारे, न हम हारे....!

संदर्भ अमरीकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा 2010...

अमरीकी राष्ट्रपति की जब कभी भारत यात्रा हुई है, तो ये यात्रा शुरु से लेकर आखिरी तक नयी नयी विवादों में घिरी होती है। जो लोग चाहते हैं कि अमरीका से हमारे संबंध मजबूत हो, उन्हें अमरीकी राष्ट्रपति का प्रत्येक संवाद मन को जीत लेनेवाला लगता हैं, जबकि इसके घुर विरोधी को हर बातों में कुछ न कुछ घालमेल दिखाई देते हैं, खासकर चीन और रुस के कटटर समर्थक भारतीय वामपंथियों को अमरीका और अमरीकन राष्ट्रपति एकदम नहीं सुहाते। आखिर क्यों, इस पचड़े में हम पड़ना नहीं चाहते, सभी लोग जानते है।
आज की स्थिति और परिस्थिति में भारत की नयी पीढ़ी अमरीका से बेहतर संबंध बनाने में विश्वास रखता है, क्योंकि वो जानता हैं कि बिना बेहतर संबंध के न तो भारत को वो स्थान मिल सकता हैं, जिसकी उसे जरुरत है और न ही आगे बढ़ने का रास्ता। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा छठे राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने भारत की यात्रा में दिलचस्पी दिखायी और अपने हाव भाव और विचारों से भारतीयों के दिल जीतने में कामयाब रहे। खासकर मुबंई में दीवाली फेस्टिवल मनाने के क्रम में भारतीय बच्चों के साथ नृत्य करने का मामला हो अथवा दिल्ली के हुमायूं के मकबरे पर नन्हे – मुन्ने बच्चों के साथ मिलने का तरीका। सभी में वे बीस साबित हुए। रही बात मुंबई में भारतीय उद्योगपतियों से बातचीत और दिल्ली में संसद में उनके दिये गये भाषण बताने के लिए काफी थे कि उनकी आज की सोच क्या हैं। इसमे कोई दो मत नहीं कि जो आज पूरे विश्व की स्थिति है, उसने अमरीका के सोच में काफी बदलाव लाया है और भारत को ऐसे समय में नजरंदाज करना, अमरीका को मुश्किल सा लग रहा हैं। याद करिये जब पूर्व में हमारे देश के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति का अमरीका दौरा होता था तो क्या होता था, अमरीकन राजनीतिज्ञ उन्हें कितना भाव देते थे, यहीं नहीं वहां के समाचार पत्रों की क्या भूमिका होती थी और आज के वहां के राजनीतिज्ञों और समाचार पत्रों की क्या भूमिका है। आज तो वहां के अखबार भारत-अमरीका के इस दौरे और उसके नतीजों और सम्पादकीय से पटे हैं। ये है – बदलाव। और ये बदलाव। भारत के राजनीतिज्ञों के क्रियाकलापों से नही हुए, बल्कि उन सैकड़ों, हजारों, लाखों गुमनाम भारतीयों के उनकी मेहनत और उनसे निकले परिणामों का नतीजा हैं कि आज भारत ऐसे मोड़ पर खड़ा हैं कि अमरीकन राष्ट्रपति बराक ओबामा को कहना पड़ गया कि भारत एक विकसित राष्ट्र हैं, भारत को सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता मिलनी चाहिए और जब कभी सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या बढाने को हुई तो अमरीका भारत के इस पक्ष का समर्थन करेगा। आज अमरीकन राष्ट्रपति भारतीय उद्योगपतियों से सहयोग मांग रहे हैं, वे भारत के साथ व्यापारिक समझौते करना चाह रहे हैं, क्यों चाह रहे हैं, इसका भी खुलासा करीब – करीब देश व विदेश के समाचार पत्रों ने कर दी है।
एक बहुत ही मशहूर पंक्ति में यहां उद्धृत करना चाहता हूं.......
किसी ने ठीक ही कहा हैं...

खुद ही कर बुलंद इतना, कि हर तकदीर से पहले, खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।
क्या पहले के भारतीय प्रधानमंत्री की ये हैसियत थी कि किसी अमरीकन राष्ट्रपति के साथ संवाददाता सम्मेलन में भारतीय पक्ष को इतनी मजबूती से रख सके, जैसा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस बार कह कर जता दिया कि भारत अमरीका की नौकरी चूरा नहीं रहा और हमारी भागीदारी, समान मूल्यों और हितों विश्व के प्रति समान दृष्टिकोण और हमारी जनता की गहरी मैत्री पर आधारित है।
आखिर क्या वजह हुई कि अमरीकन राष्ट्रपति आज जय हिंद तक बोलने पर मजबूर हैं, पाकिस्तान में आतंकी ठिकाने उन्हें मंजूर नहीं और 26 नवम्बर के हमलावरों को पाकिस्तान सजा दे, ये बोलने से नहीं चूके। इसका सीधा सा अर्थ हैं कि अमरीका फिलहाल आर्थिक मंदी से उबर नहीं पाया हैं और वह धीरे धीरे नीचे की ओर खिसकता जा रहा हैं। वहां बेरोजगारी बढ़ी हैं, और इसका परिणाम खुद अमरीकन राष्ट्रपति झेल रहे हैं, जबकि इसके विपरीत भारत में वैसी स्थिति नहीं हैं, जैसी अमरीका की हैं, और भारत ने जिस प्रकार आर्थिक मंदी को झेला और उबरा, ऐसी कूबत शायद किसी देश में नहीं और इसी का फायदा, अमरीका उठाना चाहता है। सचमुच आज हमें खुशी हैं कि महाशक्ति खुद को माननेवाला अमरीका और उसके राष्ट्रपति बराक ओबामा, भारत की ताकत का लोहा माना हैं और कहा कि भारत एक बड़ी ताकत बन चुका हैं, पर हमें इससे ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं क्योंकि इनके ये बोल, कितने सत्य हैं, ये आनेवाला समय बतायेगा, पर हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि हमारी एक बहुत बड़ी आबादी भूख और गरीबी से लड़ रही हैं। जिनके पास खाने पीने पहनने ओढ़ने और रहने को तक को नहीं हैं, हमे उनके लिए कुछ करना हैं, ताकि हम सचमुच भारत को विकसित राष्ट्र बना सकें। भारत विकसित राष्ट्र, झूठ और भ्रष्टाचार में लिप्त राजनीतिज्ञों से नहीं बनेगा, बल्कि उन करोड़ों युवाओं से होगा, जिसके बारे में आज कहा जा रहा हैं कि भारत में युवाओं की एक बहुत बड़ी फौज हैं, गर ये युवा सही मायनों में अपनी शक्ति को पहचान लेंगे तो समझ लीजिए, आनेवाला समय सही मायनों में हमारा हैं, 21वीं सदी भारत का है।

Tuesday, November 9, 2010

दस वर्ष झारखंड निर्माण के...

झारखंड बने दस वर्ष हो गये, पर ये प्रांत जितना भ्रष्टाचार के लिए जाना गया, उतना किसी भी चीज के लिए नहीं। भ्रष्टाचार और झारखंड एक दूसरे के गर पर्याय हैं तो ये कहना अतिश्योक्ति भी नहीं होगी। झारखंड अलग राज्य के निर्माण की लड़ाई की बात हो या झारखंड के विकास की बात, सभी स्तर पर यहां के राजनीतिज्ञों ने अपने आचरण में गिरावट ही दिखायी, आचरण में शुद्धता तो कहीं दिखी ही नहीं। जिसका खामियाजा आज भी झारखंड भुगत रहा है। गर हम झारखंड निर्माण से पूर्व की बात करें तो पता चलता हैं कि झारखंड अलग राज्य के निर्माण की लड़ाई लड़नेवाले ज्यादातर नेता पदलोलुपता में आकर अपने जीवन भर की पूंजी व आंदोलन को कांग्रेस पार्टी के हाथों गिरवी रखा, या अपने पार्टी का विलय ही करा दिया, नतीजा न तो खुद रहे और न ही झारखंड आंदोलन की साख ही बची। ज्यादातर झारखंडी नेता व कार्यकर्ता एक नारा लगाते हैं कि कैसे लिया झारखंड, लड़ के लिए झारखंड। पर सच्चाई क्या हैं, जो लोग झारखंड के निर्माण के साक्षी है, जानते हैं। सच्चाई यहीं हैं कि -- भाजपा बिहार के कुछ पार्टस को अलग कर वनांचल प्रांत बनाने की मांग पर अडिग थी, ( जबकि झामुमो जैसी अनेक झारखंडी पार्टियां बंगाल, उड़ीसा और मध्यप्रदेश के कुछ पार्टस को भी इसमें मिलाकर झारखंड बनाने की मांग करती थी, जो संभव ही नहीं था) सन् 2000 में बिहार में राजद को पूर्ण बहुमत नहीं मिला, जो कि झारखंड के निर्माण का कड़ा विरोध कर रही थी। लालू प्रसाद यादव भ्रष्टाचार के आरोप में इतने घिरे थे, कि किसी भी हालत में वे बिहार का शासन छोड़ना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने भी हामी भर दी और संयोग ऐसा हुआ कि झारखंड बन गया। इसे कोई जबर्दस्ती झूठलाने की कोशिश करें तो अलग बात हैं, और जब झारखंड बना तो क्या हुआ, स्थिति ऐसी हैं कि कोई भी झारखंडी खुद को झारखंडी कहलाने में गर्व महसूस नहीं करता। झारखंड एकमात्र प्रांत है – जहां निर्माण से लेकर आज तक, जितने भी मुख्यमंत्री हुए, सब के सब आदिवासी, जिनके बारे में कहा जाता हैं कि आदिवासी सरल, सहज और दिल के साफ होते हैं, पर इन मुख्यमंत्रियों के क्रियाकलापों पर नजर डाले, तो ये आदिवासियों को ही कटघरे में खड़ा कर देंगे, और लोगों की आदिवासियों के बारे में जो धारणाएं हैं, वो बदलती नजर आयेगी। सर्वप्रथम बिहार से अलग होने के बाद बने नवोदित झारखंड के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की बात करें। इसमें कोई दो मत नहीं कि इस शख्स से राज्य को बेहतर दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, आधारभूत संरचनाओं को ठीक करने में समय लगाया, उर्जा, सड़क और शिक्षा पर ध्यान केन्द्रित कर, राज्य ही नहीं पूरे देश में नाम कमाया और देश में सबसे अच्छा काम करनेवाले तीसरे मुख्यमंत्री के रुप में लोकप्रिय हो गये। राज्य में जितनी योजनाएं हैं, उन्हीं के समय की हैं, जिसे लेकर, लोग अपनी पीठ थपथपा रहे हैं, चाहे वो बालिकाओं को स्कूल से जोड़ने के लिए साईकिल देने की बात हो, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना हो, या आदिवासियों के बेहतर विकास की बात हो, इन्हीं के समय में पूरे राज्य में सीबीएसई पैटर्न पर माध्यमिक शिक्षा को लागू किया गया, पर जदयू के उस समय के भ्रष्ट मंत्रियों ने इनकी एक न चलने दी और उर्जा तथा खनन मामलों में इन नेताओं ने बाबूलाल को ऐसी पटखनी दी, कि बेचारे कहीं के नहीं रहे, जिस अर्जुन को वे भरत मानकर अपना उतराधिकारी बना रहे थे, वो अर्जुन ही बाद में ऐसी पट्टी पढ़ाई की बेचारे भाजपा से अलग होकर आज खुद की नयीं पार्टी बना कर भाजपा के जड़े में मट्ठा डालकर भाजपा को समूल नष्ट करने पर तूले हैं, पर इसमें वे कितना सफल होंगे, समय बतायेगा, पर सच्चाई ये ही हैं कि यहीं से भ्रष्टाचार के वटवृक्ष का बीज झारखंड की राजधानी रांची में बोया गया, जो इस दस साल में एक विशाल वृक्ष बनकर सभी भ्रष्टाचारियों को आश्रय दे रहा हैं।
हम कहां की बात करें, कौन ऐसा क्षेत्र हैं, जहां भ्रष्टाचार नहीं हैं। सीबीआई की तो ज्यादातर कार्य झारखंड में ही हैं, लगता हैं कि सीबीआई का निर्माण हमारे पूर्व के राजनीतिज्ञों ने झारखंड को देखते हुए ही किया था। जरा देखिये लालू के चारा घोटाला की बात हो या मधु कोड़ा से जुड़ा मामला सभी का केन्द्र बिन्दु झारखंड ही हैं। पर इनकी बात करने के पूर्व हम झारखंड के विधानसभा की बात कर लें तो ज्यादा बेहतर होगा। यहां अब तक जितने भी विधानसभाध्यक्ष हुए, अपने ढंग से नियुक्तियां की, और यहां पर नियुक्ति घोटाला हो गया, कौन सा मापदंड रखा गया, कैसे बहाली हुई, इस पर गर बात करें तो रामचरितमानस से भी बड़ा महाकाव्य तैयार हो जायेगा। आश्चर्य इस बात की हैं कि इसे लेकर किसी भी विधानसभाध्यक्ष ने अपनी गलती नहीं मानी हैं और न ही शर्मिदंगी दिखायी।
जरा इस विवरणिका को देखिये तो पता लग जायेगा कि अपने यहां विधायकों और दूसरे जगहों के विधायकों की संख्या कितनी और इसे देखते हुए स्टाफों की संख्या कितनी हैं और उस पर राशि कितनी खर्च हुई हैं -----------------------
राज्य-------विधायकों की संख्या----स्टाफ------वार्षिक खर्च करोड़ रुपये में
छत्तीसगढ़ -------91------------255 -----5.60
उत्तराखंड -------70 ------------190 -----4.25
बिहार --------243-------------630 -----7.25
झारखंड---------81 ------------960 ----16.81
कमाल इस बात की हैं कि विधानसभा को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता हैं और इस मंदिर में आवश्यकता से अधिक अयोग्य लोगों की बहाली, वो भी अपने चहेतों को नौकरी दिलाकर विधानसभाध्यक्षों ने कर दी, क्या ये शर्मनाक नहीं।
कमाल हैं दस साल बने हो गये, झारखंड के इसी बीच सात सरकारें आयी और चली गयी, दो – दो बार राष्ट्रपति शासन लगा, आठवी सरकार भी कैसे बनी, इसको लेकर तरह तरह की अटकलें लगायी गयी हैं, कहनेवाले तो कह भी चुके हैं कि इस सरकार को बनाने में कारपोरेट जगत के लोगों ने रुचि ली हैं, जिसके एवज में इस सरकार ने उन्हें उपकृत करने की योजना पर काम भी शुरु कर दिया हैं। कमाल इस बात की भी कि राज्य को बने दस साल हुए और इससे ज्यादा बार विकास आयुक्त बदले जा चुके हैं, छह – छह बार पुलिस महानिदेशक और महाधिवक्ता का बदलाव हो चुका हैं, औसतन हर दस बाहर महीने में सचिवों का तबादला हो जाता हैं। भ्रष्टाचार का आलम तो ये हैं कि यहां स्थानांतरण उद्योग भी चलता हैं, और वसूली भी की जाती है।
भ्रष्टाचार का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता हैं कि इस राज्य का अपना विधानसभा भवन नहीं, सचिवालय नहीं, जबकि इन्हीं पर करीब दो सौ करोड़ रुपये अब तक खर्च हो चुके हैं। राष्ट्रीय खेल अब तक नहीं हो पाये है। इन मंत्रियों और अधिकारियों की करतूतों को देखिये अपने चहेतों को किस प्रकार झारखंड लोक सेवा आयोग के माध्यम सें शानदार नौकरियां दिलवा दी, ये अलग बात हैं कि पूरे मामले की जांच हो रही हैं, और कुछ लोग इस मामले में जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। यहीं नहीं शायद देश का ये पहला राज्य हैं जहां पर भ्रष्टाचार मामले में ही एक निर्दलीय व्यक्ति जो मुख्यमंत्री बना, अपने रिकार्ड भ्रष्टाचार के कारण, रांची और दिल्ली की जेलों में रहकर झारखंड की मान को गिरवी रख दिया है। यहीं नहीं इनके शासनकाल में ही मंत्री रहे, कई मंत्रियों पर सीबीआई की पकड़ हैं और ये भी फिलहाल विभिन्न जेलों में बंद रहकर अपनी जिंदगी को नारकीय बना रखा हैं। आश्चर्य इस बात की भी हैं कि भ्रष्टाचार के आरोप में बंद इन मंत्रियों और नेताओं के रिश्तेदारों को उनके दैनिक जीवन में कोई दिक्कत नहीं आ रही, बल्कि वे इसका फायदा भी उठा रहे हैं और विधानसभा तक पहुंच जा रहे हैं, यहीं नहीं जेल में रहकर ये लोकसभा के चुनाव तक जीते हैं, ऐसे में यहां की जनता की सोच पर स्वतः प्रश्न चिह्न लग जाता हैं कि क्या वो भ्रष्टाचार को सदाचार की ताबीज मान चुकी हैं, गर नहीं मानती तो भ्रष्टाचार मामलों में बंद ये नेता और उनके रिश्तेदार चुनाव में तो कम से कम नहीं ही जीतते, पर इनकी जीत बताती हैं कि जनता के सोच में भी बदलाव आया हैं और यहां की जनता फिलहाल भ्रष्टाचार को बड़ा मुद्दा नहीं मानती, तभी तो सभी मस्त हैं नहीं तो भ्रष्टाचार पर आज तक अंकुश क्यों नहीं लगा, ये तो और पनपता जा रहा हैं, भस्मासुर की तरह।

Sunday, October 31, 2010

अंगरेजी देवी मईया...?


भारत में एक से एक लोग हैं, जिनकी प्रशंसा करें या आलोचना करें, समझ ही नहीं आता। जिन अंग्रेजों की भाषा अंगरेजी हैं, वे भी इस भाषा को मां मानने को तैयार कभी नहीं होंगे, पर भारत की एक दलित आबादी को कहा गया है कि वो अंगरेजी को देवी मईया माने, और अपना सारा ध्यान इस अंगरेजी पर ही लगाये, तभी उसका कल्याण होगा, और बाकी जातियां उनके आगे पानी भरती नजर आयेंगी। जिस व्यक्ति ने अंगरेजी देवी मईया के नाम पर मंदिर बनाने की ठानी है। उसके इस पर अपनी सोच है और इसे आप मना भी नहीं कर सकते, क्योंकि वो मानेंगे ही नहीं। उन्होंने सोच लिया है कि बस अंगरेजी को देवी मईया मान लिया और बस ये मईया उन्हें हाथ पकड़ कर वो सब कर डालेगी, जिसकी उन्हें तलाश हैं, पर उन्हें ये मालूम नहीं कि इस देश में मूर्तियों की भरमार है। यहां तो जिंदा व्यक्तियों ने भी अपनी मूर्तियां स्थापित कर अपनी पूजा करवाने की ठानी है, कहीं कहीं तो भारत में ऐसे ऐसे दीवाने हैं कि फिल्मी हीरो हीरोईनों की मंदिर बना रखी हैं, खुद रांची में ही महेन्द्र सिंह धौनी के नाम पर मंदिर बनाने की कुछ लोगों ने सोची है। क्या मंदिर बना देने से बौद्धिक विकास होता हैं, अथवा धन या शक्ति प्राप्त हो जाती है, क्या।
इस देश में सदियों से ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा होती रही है, पर सच्चाई ये हैं कि असली ज्ञान जिसके बदौलत सारी दूनिया अमरीका व ब्रिटेन के आगे पानी भरती नजर आयी, वो पश्चिमी देशों के पास हैं। भारत में धन की देवी लक्ष्मी की पूजा होती हैं, पर दरिद्रता सर्वाधिक भारत के हिस्से में ही हैं, ये ही नहीं आश्विन माह में शक्ति की देवी की धूम पूरे भारत में रहती हैं, पर असली शक्ति सिमट के अमरीका के हाथों में चली गयी और इधर कुछ चीन की ओर सिमटती नजर आ रही हैं, जिसके आगे उसके आस पास के देश, उसकी मनमानी सहने को बाध्य है, और यहीं चीन हमेशा से भारत को अपनी दादागिरी की पाठ पढ़ाता रहता है।
कमाल है जब एक ओर देश में शैक्षिक क्रांति चल रही है, पूरा विश्व शैक्षिक क्रांति की वजह से सिमटता जा रहा हैं, वहा शैक्षिक क्रांति में न बहकर दलितों को कहा जा रहा हैं कि वे अंगरेजी को देवी मईया माने और उसकी पूजा करें, क्या इससे दलितों के जीवन स्तर में सुधार हो जायेगा क्या। इससे तो वे और नीचे जायेंगे। क्योंकि किसी भी प्रतिमा की पूजा करने से व्यक्ति खुद प्रतिमा बन जाता है, जरुरत हैं, मंदिर में उसके नाम पर प्रतिमा न बनाकर दलितों में ये बात पूख्ता करने की, कि आज अंग्रेजी जरुरी हैं, और बिना इसे पढ़े न तो वे खुद का और न अपने समाज को भला कर सकते हैं। इसलिए अंग्रेजी पढ़े पर अपना स्वाभिमान न भूले। भारत को नहीं भूले। क्योंकि भारत हैं तो वे हैं, और उन पर ज्यादा जिम्मा हैं, भारत के बारे में सोचने की, क्योंकि उनकी कौम ने सदियों से सहा हैं, भारत को दिया हैं, पर लिया नहीं हैं।
भारत में एक पत्रिका निकलती है – सरिता। उसमें बार बार एक विज्ञापन निकलता था कि हिन्दी गंवारों और जाहिलों की भाषा है, ये विज्ञापन उन लोगों के उपर करारा तमाचा होता था, जो हिन्दी भाषी होते हुए भी, गाहे बगाहे अंग्रेजी में अपनी भावनाएं प्रदर्शित कर रहे होते हैं। पूर्व में इस प्रकार के विज्ञापन पर हमें आपत्ति भी होती थी, पर सच्चाई यहीं हैं कि सचमुच आज हिन्दी गंवारों और जाहिलों की भाषा हो गयी है। उसके कई प्रमाण है।
जरा भारतीय प्रधानमंत्रियों की लिस्ट पर ध्यान दें। हमने देखा हैं कि इस देश में जो भी कोई प्रधानमंत्री बना, चाहे वह हिन्दीभाषी हो अथवा अहिन्दीभाषी सभी ने 15 अगस्त को लालकिले के प्राचीर से हिन्दी में भाषण दिया पर जैसे ही वह लोकसभा व राज्यसभा अथवा अन्य कार्यक्रमों में भाग लिया, उसकी जूबानें स्वतः अंग्रेजी में बात करने लगी। उसका एक – दो उदाहरण हम आपको बता देना चाहते है। जैसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, जब जनता पार्टी के शासनकाल में विदेश मंत्री बने, तब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में सर्वप्रथम हिन्दी में भाषण देकर सबको अचंभित कर दिया था, पर जैसे ही वे प्रधानमंत्री बने, मैंने देखा कि दिल्ली में आयोजित फिक्की के कार्यक्रम में अंग्रेजी में अपना स्पीच देना उन्होंने शान समझा। यहीं नहीं कर्णाटक के कन्नड़भाषी मुख्यमंत्री एच डी देवगौड़ा जो बाद में प्रधानमंत्री भी बने, बड़ी जल्दी हिन्दी सीख ली और उन्होंने लालकिले के प्राचीर से हिन्दी में भाषण दिया पर जैसे ही लोकसभा और अन्य जगहों की बात आयी तो वे अंग्रेजी में शुरु हो गये। ये तो राजनीति की बात हैं, अब भारतीय फिल्म कलाकारों को लीजिये, ये हिन्दी फिल्मों में काम करते हैं, इनकी दाल रोटी हिन्दी फिल्मों से चलती हैं, पर जब ये प्रीमियर शो अथवा प्रेस कांफ्रेस कर रहे होते हैं तो जरा देखिये इनकी जूबां अंग्रेजी उगल रही होती हैं। ऐसे में कितने फिल्मी स्टारों को नाम गिनाउं, सभी एक ही हैं। आगे क्रिकेटरों के साथ भी ये ही बात लागू होती हैं।
यहीं नहीं पूरा देश फिलहाल अंग्रेजी भाषा और उसकी संस्कृति का गुलाम हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता, ऐसे में दलितों को ये उपदेश देना कि वे ऐसा न करें, वैसा न करें, ये तो बात वहीं हो गयी कि पर उपदेश कुशल बहुतेरे। दलितों को अंग्रेजी पढ़ना चाहिए और खूब पढ़ना चाहिए, क्योंकि केवल उन्होंने ही हिन्दी के विकास का ठेका नहीं ले रखा हैं, पर गलती ये वे कर रहे कि वे अंग्रेजी को देवी मईया का रुप बनाकर, अपने दलितों को फिर प्राचीनता में ढकेल रहे हैं, जो आनेवाले समय के लिए दलितों को बहुत पीछे धकेल देगी। क्योंकि किसी को चिढ़ाकर आप न तो आगे बढ़ सकते हैं और न आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं, बस आप मंदिर को बनाने और बचाने में ही लग जायेंगे।
इस देश के हालात देखिये, शायद ही कोई गांव होगा, जहां अंग्रेजी स्कूल नहीं होंगे। अब सरकारी स्कूलों में पढ़ते कौन हैं। जो टीचर यहां पढ़ा रहा होता हैं और अपना परिवार चला रहा होता हैं, वो भी अपने बच्चों को किसी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा रहा होता हैं। आज तक मैंने किसी प्रशासनिक अधिकारी व नेताओं के बेटे – बेटियों को सरकारी स्कूलों में पढ़ते नहीं देखा, यहीं नहीं जिसके पास थोड़े से भी पैसे आ गये हैं, वो भी सरकारी स्कलों को दूर से प्रणाम कर, अपने बच्चों को वहां पढ़ा रहा होता हैं, जहां टूटी फूटी अंग्रेजी ही क्यूं न चलती हो, वो अंग्रेजी पढ़ाना ज्यादा जरुरी समझता है। पूरे देश में स्पोकेन इंग्लिश की दुकाने खूली हैं, कहीं भी जहां अहिन्दी भाषी क्षेत्र हमें बताईये, जहां स्पोकेन हिन्दी की दुकाने खुली हो।
सभी अंग्रेजी के चक्कर में भारतीयता का श्राद्ध करने पर तूले है। सच्चाई यहीं हैं, पर जब ये ही भारतीय किसी कारण से विदेश चले जा रहे हैं, तो उन्हें भारत याद आ रहा होता हैं, अपनी संस्कृति याद आ रही होती हैं, अपनी भाषा याद आ रही होती हैं, क्यूं ऐसा होता हैं, शायद भारतीयों को भारत में रहकर समझ में नहीं आती। आजकल तो अंग्रेजी स्कूलों में पढ़नेवाले भारतीय बच्चे बड़ी शान से एक कविता दुहराते है -------------
"टम टमा टम टम
टमाटर खाये हम
अंग्रेज का बच्चा क्या जाने
अंग्रेजी जाने हम"
ऐसे हालत में हमारे देश के कर्णधारों, राजनीतिज्ञों, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, कलाकारों, खिलाड़ियों आदि लोगों ने भारत को किस दिशा में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, समझ में नहीं आ रहा। यकीं मानिये, जैसे ही आप विदेशी भाषा की ओर आकृष्ट होते हैं, आपकी संस्कृति पहले प्रभावित होती हैं, और जब संस्कृति प्रभावित होती हैं, तो आप स्वतः नष्ट हो जाते हैं और जब आप स्वतः नष्ट हो जायेंगे तो यहां कौन राज कर रहा होगा, किसकी सत्ता होगी, गर आप बुद्धिमान हैं तो समझेंगे, नहीं तो आपकी स्थिति वहीं होगी। जैसा कि सुभाषित कहता हैं...............
येषां न विद्या, न तपो, न दानं, न ज्ञानशीलं, न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोका, भूविभारभूता, मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति ।।
अर्थात् जिसके पास न तो विद्या है, न तपस्या करने की और न दान करने की क्षमता है, जिसके पास न तो आंतरिक ज्ञान और न मर्यादा है, न गुण हैं और न ही धर्म पर चलने की ताकत है। वे इस धरती पर मनुष्यरुप में मृग के समान विचरण करनेवाले है, इससे अधिक कुछ नहीं।

Friday, October 29, 2010

बिहार विधानसभा चुनाव में विकास नहीं, जातीयता हावी…।


संदर्भ विधानसभा चुनाव 2010...!


जैसे जैसे बिहार का चुनाव अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा हैं, वैसे वैसे लालू और नीतीश की सरकार बनानेवालों की दिलों की धड़कन बढ़ती जा रही हैं। हालांकि कमोवेश सभी ने ये माना है कि बिहार में एनडीए यानी नीतीश की सरकार बननी तय है और इसके लिए उन्होंने कई कारण गिनाये है। पटना से प्रकाशित कई समाचार पत्रों तथा दिल्ली से बिहार प्रवास पर गये कई पत्रकारों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है। साथ ही कई समाचार चैनलों ने चुनाव विश्लेषन के माध्यम से ये बताने की कोशिश की है कि नीतीश को एक बार फिर बिहार की जनता सिरमौर बनाना चाहती है।
पर अब तक बिहार में तीन चरण के चुनाव संपन्न हो चुके है। और इन क्षेत्रों से जो चुनाव परिणाम आ रहे है वे न तो नीतीश को खुश करनेवाले हैं और न लालू को दुखी करनेवाले है। हां इतना तय है कि कांटे का मुकाबला है। जब पूर्णिया में चुनाव संपन्न हुआ तब हमने वहां के जमीन से जूड़े पत्रकारों से बातचीत की, तब उनका कहना था कि मतदान के पूर्व नीतीश के पक्ष में एक लहर सी देखी गयी थी, ज्यादातर मतदाता विकास को प्राथमिकता देते हुए नीतीश को एक बार फिर सत्ता सौंपने की बात कह रहे थे, पर जैसे ही मतदान का दिन आया, ये मतदाता जातियों और संप्रदायों में विभक्त होते नजर आये, और उन्होंने वोट उसी को दिया, जो उनकी जाति और संप्रदाय को रास आया, यानी यादव और मुस्लिम ने एनडीए को नकार दिया।
यहीं बात रक्सौल के हमारे पत्रकार मित्र ने बतायी। यानी जाति और संप्रदाय से अभी तक बिहार के मतदाता उपर नहीं उठ पाये है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. कर्पूरी ठाकुर ठीक ही कहा करते थे, कि भला बिहार में विकास से कहीं वोट मिलते है, वोट मिलने के दूसरे कारण होते है, गर वर्तमान की देखे तो आंध्रप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू ने अपने प्रदेश में विकास की गंगा बहायी थी। पर आंध्र प्रदेश की जनता ने क्या किया, उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। ऐसे भी लोग कहते है और बताते है कि जो लोग अच्छा काम करते हैं, उनका अंत बड़ा दुखद होता है। जैसे महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश स्वतंत्र हुआ। महात्मा गांधी ने इसकी कीमत भी नहीं वसूली, जबकि कई नेताओं ने आजादी के बाद इसकी कीमत वसूली, पर गांधी को मिला क्या, गोली। इसी प्रकार ईसा मसीह को लोगों ने सूली पर लटका दिया। ऐसे कई प्रमाण मौजूद है। जो बताते है कि सत्य के मार्ग पर चलने पर कठिनाईयां ही कठिनाईयां हैं। गर आप सत्य और सेवा की मार्ग पर चलने का प्रण लिया हैं तो स्वर्ग की कामना ही बंद कर दीजिये, पर इसका मतलब ये भी नहीं की हम अच्छा काम करना बंद कर दे।
बिहार के साथ विडम्बना रही हैं कि जब कभी वहां शक्तिशाली नेता उभरा तो उसने राज्य के समग्र विकास पर ध्यान कम और अपने परिवार को सशक्त बनाने, उसके लिए सात पुश्तों तक किसी चीज की कमी न हो, इसका जुगाड़ बिठाने में ज्यादा ध्यान दिया। यहीं नहीं गांधी और लोकनायक के नाम पर राजनीति करनेवालों ने समय आने पर अपनी पत्नी तक को सत्ता सौंप दिया और अब बेटे को आगे कर वे राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें फिलहाल नीतीश को छोड़, रामविलास और लालू ने बड़ी तेजी से कदम बढ़ायी है। रामविलास जी के तो क्या कहने, ये तो भाजपा को सांप्रदायिक बोलते अघाते नहीं, और कभी भाजपा के ही गोद में बैठ कर सत्ता का सुख भी लिये थे, शायद ये भूल गये है। ये वहीं नेता है जो बिहार चुनाव के पहले राज्य में मुस्लिम मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश करने का ड्रामा करते थे, पर आज उपमुख्यमंत्री अपने परिवार से बनाना चाहते हैं। अब बात उठती हैं कि जो व्यक्ति उपमुख्यमंत्री का पद एक मुस्लिम को नहीं दे सकता, वो व्यक्ति राज्य का बागडोर मुस्लिम को कैसे सौंप सकता है। इनके इस ड्रामे से तो लगता हैं कि जब इनकी बहुमत आयेगी, जो कभी संभव नहीं हैं, तो ये खुद ही मुख्यमंत्री बनने के लिए कदम बढ़ा देंगे।
ये हैं हमारे बिहार के कुछ नेताओं का वर्तमान चरित्र, जो बिहार को बुलंदियों तक ले जाने की बात करते है। ये जयप्रकाश आंदोलन के समय संपूर्ण क्रांति की बात करते थे, पर आज अपने परिवारों को सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने के लिए क्रांति की बात करते हैं, क्या ऐसे लोगों के सत्ता में आने से बिहार आगे बढ़ पायेगा, निर्णय तो जनता को लेना हैं और जनता ने क्या निर्णय लिया ये तो चुनाव परिणाम आयेगा, तभी पता चलेगा। फिर भी आशा रखनी चाहिए कि आने वाले बचे हुए विधानसभा सीटों की जनता एक बेहतर सरकार बनाने के पक्ष में मतदान कर, बिहार को आगे बढ़ाने में विशेष रुचि दिखायेगी।

Tuesday, October 26, 2010

और जुबान फिसली.......................!

संदर्भ बिहार विधानसभा चुनाव 2010...
बिहार विधानसभा चुनाव का अंतिम चरण जैसे जैसे नजदीक आता जा रहा है। नेताओं की जुबां फिसलती जा रही है। खासकर जदयू के नेता अति उत्साहित है, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि बस विधानसभा चुनाव मात्र औपचारिकता मात्र है। जनता तो पहले से ही दुबारा नीतीश को सत्ता में बैठाने को बेकरार है। पर उन्हें नहीं मालूम कि, सब कुछ ठीक रहने के बावजूद जब भोजन में नमक बेमन से पड़ जाये तो भोजन खानेलायक नहीं रह जाता। इसलिए जदयू और भाजपा को ज्यादा सावधानी बरतनी चाहिए, क्योंकि ज्यादातर चुनावी सर्वेक्षण और पत्रकारों के कलम उन्हीं की जय बोल रहे हैं, पर इसमें सच्चाई क्या हैं ये तो चुनाव परिणाम के बाद ही पता चलेगा।
रही बात जुबान फिसलने की, ये कोई नयी बात नहीं हैं, जब आदमी अतिउत्साहित अथवा अति निराश हो जाता है तो उसके मुख से ऐसी भाषाएं या शब्द निकल ही जाते है जो उनके विरोधियों समेत सज्जनों को अच्छी नहीं लगती। राजद के नेता लालू प्रसाद यादव हो या रावड़ी देवी अथवा फिलहाल दूसरे पार्टी में चले गये इन्हीं के रिश्तेदार, सभी जुबान फिसलने के लिए जाने जाते हैं, कुछ के तो केस जुबान फिसलने के कारण ही अभी न्यायालय की शोभा बढ़ा रहे है। अभी जदयू और एनडीए के बड़े नेता शरद यादव सुर्खियों में है – उन्होंने एक चुनावी सभा में राहुल को गंगा नदी में फेंक देने की बात कह डाली। जबकि रांची में भाजपा नेता हरेन्द्र प्रताप कहते हैं कि यूपीए के नेता जिस प्रकार से एनडीए के खिलाफ विषवमन कर रहे है, ऐसे में कोई भी होगा, उग्र हो ही जायेगा।
सचमुच किसी भी बड़े अथवा छोटे नेता व कार्यकर्ता को इस प्रकार की भाषा का प्रयोग करना लोकतंत्र में गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य ही कहा जायेगा और इस प्रकार की भाषा प्रयोग करनेवाले की कड़ी आलोचना होनी ही चाहिए। पर शरद यादव ने बहुत जल्द ही इस प्रकार के बयान से अपने आपको अलग कर लिया, इसके लिए उन्हें साधुवाद। पर कुछ बात कांग्रेसियों से भी, जो इस मुददे को हवा देते हुए, बात चुनाव आयोग तक ले जाने की बात करते हैं, क्या वे बता सकते हैं कि उन्हीं के राहुल गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तुलना राष्ट्रद्रोही संगठन सिमी से कर डाली अथवा मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के जो बयान आरएसएस पर आये हैं, उसे क्या कहा जायेगा, क्या आरएसएस के खिलाफ उनके दिये गये बयान गैरजिम्मेदाराना नहीं। खासकर उस आरएसएस पर जिसके बारे में खुद उन्हीं के पार्टी के बड़े दिवंगत नेता प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु, सरदार वल्लभ भाई पटेल, लाल बहादुर शास्त्री और महात्मा गांधी तक प्रशंसा कर चुके है। आगे चलकर बाबा साहेब अम्बेडकर, पूर्व राष्ट्रपति जाकिर हुसैन, लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने भी आरएसएस के कार्यों की भूरिभूरि प्रशंसा की है। "पूर्व राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन ने तो आरएसएस के बारे में कहा था कि आरएसएस पर मुसलमानों के प्रति हिंसा और घृणा फैलाने के आरोप सर्वथा झूठे हैं। मुसलमानों को आरएसएस से परस्पर प्रेम सहयोग और संगठन की शिक्षा लेनी चाहिए।" क्या राहुल बता सकते हैं कि संघ से घनिष्ठ संबंध और प्रचारक तक रह चुके पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी क्या सिमी से जूड़े है। जिस संगठन के बारे में राहुल ने बचकाना बयान दे डाला और जब इन कांग्रेसी नेताओं के पास आरएसएस के खिलाफ ठोस सबूत है तो फिर ये कर क्या रहे हैं, उनकी सरकार है, जल्द से ठोस निर्णय ले, देश से बड़ा कोई संगठन नहीं होता, पर गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य देकर देश की जनता के समक्ष बार बार आरएसएस के खिलाफ बयान देना और उसकी तुलना राष्ट्रद्रोहियों से कर देना, क्या शर्मनाक नहीं।
सच्चाई तो ये हैं कि वर्तमान में किसी भी पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं के जुबान पर कंट्रोल नहीं है, जिसे देखिये बक बक कर रहा है, और पतली गली से निकल जा रहा है, बाद में अपनी बयान पर चिंतन भी नहीं करता, कि उसने जो आज भाषण अथवा बयान दिया, वो सही है अथवा गलत। क्या ऐसे में लोकतंत्र मजबूत होगा। क्या इन्हें ये दोहा पढ़ने की जरुरत नहीं --------
बोली एक अमोल है, जो कोई बोले जानी।
हिये तराजू तौलि के तब मुख बाहर आनी।।

सुभाषित तो कहता है --------
वचने किम दरिद्रता ---- अर्थात् बोलने में दरिद्रता कैसी। आखिर ये नेता कब अपनी वाणी पर नियंत्रण रखेंगे।

Friday, October 22, 2010

एक कौआ था...!


जब मैं दूसरी कक्षा में था – तब एक छोटी सी कहानी पढ़ी थी। एक कौआ था। उसे मोर का एक पंख मिला। उसने उस पंख को अपने पूंछ में लगा लिया और ये कहकर इठलाने लगा कि वो अब मोर है। फिर क्या था – वो मोर के झूंड में पहुंचकर मोर जैसी हरकतें करने लगा और कहने लगा कि वो भी मोर है, मोर है। तब उन मोर के झूंडों में से एक मोर बोला कि कही मोर के पंख लगा लेने से कोई मोर हो जाता हैं क्या। तुम तो कौए हो और कौए ही रहोगे, इस प्रकार उस मोर के पंख लगाये कौए की, उस झुंड में हंसाई होने लगी। अपनी हंसाई होता देख, वह कौआ फिर कौए की झूंड में गया. तभी सारे कौए ने कहा कि तुम कौए कैसे हो सकते हो, तुम तो मोर का पंख लगा लिये हो, तुम तो मोर हो, और फिर उसे कौए के झूंड में भी हंसी का पात्र बनना पड़ा। अपनी इस प्रकार की हंसाई होता देख और दोनों जगहों पर अपमान का बोध होता देख, वह कौआ अंत में स्वयं अपने पूंछ से मोर का पंख निकाल फेंका और कांव कांव करने लगा। कहने लगा कि वो कौआ हैं – कांव कांव कांव कांव...............................। ये बचपन में पढ़ी हुई छोटी सी कहानी सीख देती हैं कि हम क्या हैं, इसका हमेशा भान रहना चाहिए, नहीं तो हम हर जगह हंसी के पात्र बनेंगे और कहीं के नहीं रह पायेंगे। आज जो देश और देश के नागरिकों की स्थिति हैं, ठीक उस कौवे की तरह है जो अपने पूंछ में मोर का पंख लगाकर ये भान कर बैठा हैं कि वो मोर हैं, जबकि सच्चाई कुछ और ही है।
भारत कभी भी भोगवादी संस्कृति में नहीं रहा, पर आजकल यहां के लोग पश्चिमी सभ्यता का इस प्रकार अनुकरण करने लगे है कि अब तो इनके आगे पश्चिम भी फेल होता जा रहा है। जो भारतीय आध्यात्मिक संत हैं – वे भी धन लोलुपता और कामलोलुपता में इस प्रकार से लिप्त होते जा रहे हैं कि इन्हें देख कर लगता ही नहीं कि ये उस देश के आध्यात्मिक संत हैं, जहां नानक, तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, रविदास, शंकराचार्य आदि जैसे महान संत पैदा लिये थे और जिन्होंने अपने सुकर्मों से देश और समाज को नयी दिशा दी थी। यहीं हाल आज के साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की है, जो सिर्फ और सिर्फ पैसों के लिए साहित्य सृजन और झूठी एनजीओ चलाकर स्वयं को समाजसेवी बता कर ये सामाजिक कार्यकर्ता देश और समाज को ठगने का काम कर रहे है। राजनीतिज्ञों की तो बात ही निराली हैं, ये कभी गांधी, जयप्रकाश आदि बनेंगे, ये तो इन्हें देखकर लगता ही नहीं क्योंकि ये पैसों के आगे अपने शरीर को इतना झूका लिये हैं कि इनकी शरीर को ठीक करने की कोशिश हुई तो केवल कोशिश मात्र सुनते ही, ये बिलबिलाकर दम तोड़ देंगे।
पूरे विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है, जहां जीवन का आदर्श सुनिश्चित कर दिया गया है, जबकि अन्य देशों में ऐसा है ही नहीं। और देशों में सिर्फ भोगवादी संस्कृतियां ही हैं, यानी जन्म ले लिया, और पशुओं की तरह, खाओ पियो, ऐश करो मौज करो और मर जाओ। पर अपने देश में जीवन का आदर्श – परमेश्वर का धाम बताया गया है। यहां तो कहां गया हैं कि जीवेद शरदः शतम्। यानी सौ वर्ष तक जियो, कैसे जियो, उसकी भी विवेचना की गयी है। यानी सौ को चार भागों में बांटो। पच्चीस वर्ष – ब्रह्चर्य पालन यानी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का त्याग, छब्बीस से पचास वर्ष – प्रकृति द्वारा दी गयी सारी भौतिक सुख सुविधाओं का पान। इक्यावन से पचहतर वर्ष – जिन सुख सुविधाओं का आपने पान किया, अब उसका धीरे धीरे परित्याग करने की कोशिश, तथा आनेवाले पीढ़ियों के लिए कुछ करने की कोशिश, और छिहतर से सौ वर्ष – पूर्णतः प्रत्येक वस्तुओं का त्याग और निरंतर भगवद् भक्ति। कुछ तो कहते है कि कौन जानता हैं कि जीवन कब खत्म हो जाये, इसलिए निरंतर प्रभु से ये कामना कि वो उस पर कृपा बनाये रखे और हमेशा एक अच्छा काम स्वयं द्वारा कराता चला जाये ताकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाये, पर आज के भारत को देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि समाज के विभिन्न वर्गों का कोई भी व्यक्ति ये भाव रखकर अपना जीवन शुरु कर रहा हैं और खत्म कर रहा हैं।
इधर आज के अखबारों को देखकर, गजब निराशा हुई हैं कोई बाबा रामदेव हैं, जो योग सीखाते हैं, चूर्ण चटनी का अच्छा कारोबार भी उन्होंने फैलाया हैं, काफी नाम भी कमाया है और अब वे राजनीतिक दुकान खोलने की भी सोच रहे हैं, उन्हें लगता है कि योग और चूर्ण चटनी के कारोबार से राजनीतिक दुकान का कारोबार कुछ ज्यादा ही मनोहारी और सर्वस्व सुख प्राप्त करने का अमोघ अस्त्र हैं। गर ऐसा होता हैं तो ये देश के पहले स्वयंभू संत होंगे जो देश के पूर्व के संतों को त्याग की मूल भावना और धर्म को मटियामेट करेंगे, ऐसे भी कलयुग चल रहा हैं, यहां तो अब वो सब होगा, जिसकी परिकल्पना किसी ने नही की। क्योंकि अब तो धर्म की भी व्याख्या, लोग अपने अपने ढंग से करने लगे हैं, यानी जितने लोग, उतने धर्म, जबकि धर्म क्या हैं, रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदासजी साफ कह देते है...

"दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान
तुलसी दया न छोड़िये, जब तक घट में प्राण"


कमाल की बात हैं, भारत में सभी आदर्शवादिता को छोड़, येन केन प्रकारेन पैसे कमाने के लिए, लंपट विद्या की ओर आकर्षित हो रहे हैं, और वे सब कर रहे हैं, जिसकी आशा तक नहीं की जानी चाहिए, फिर भी हमे आशा हैं कि 21 वीं सदी हमारा हैं, एक दिन ऐसा होगा कि सभी भारतीय रंग में रगेंगे और भारतीय संस्कृति को अपनाकर, इस मूल मंत्र को साकार करेंगे, जो भारतीय वांगमय में और इसकी हवाओं में सदियों से गूंज रहा हैं...

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्रानि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत्।।

Monday, October 11, 2010

अयोध्या मुद्दा और तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों का विधवा प्रलाप...!

हुत पहले मैंने एक फिल्म देखी थी, उस फिल्म का नाम मैं भूल रहा हूं। उसमें कादर खान बोलते है कि देखो गर नेताजी ट्रेन से जाये तो ये छापो कि एक तरफ जनता बाढ़ से तबाह हो रही है और नेताजी के पास सब कुछ होने के बावजूद देर से मटरगश्ती करते हुए, ट्रेन से बाढ़ प्रभावित इलाकों में पहुंच रहे है, और जब हेलीकॉप्टर से पहुंचे तो ये छापो कि जनता बाढ़ से मर रही है और नेता जी हेलीकॉप्टर पर चढ़कर आनन्द प्राप्त कर रहे है। ठीक यहीं हाल हैं आज के तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों का। जब से इलाहाबाद कोर्ट ने विवादित स्थल को रामजन्मभूमिस्थल माना हैं, तब से इन तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों को ऐसा पेट में दर्द हुआ हैं कि उनका ये पेट दर्द खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। ये रोज अपनी लेखिनी और टीवी पर आनेवाले बेकार बहसों में शामिल होकर विधवा प्रलाप कर रहे है। यहीं नहीं कल तक ये ही न्यायालय की सम्मान की बात करनेवाले, उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह द्वारा न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करा पाने पर उनकी बखिया उधरनेवाले, भाजपा, विहिप, बजरंगदल और आरएसएस को उनकी गतिविधियों के लिए बारबार कड़ी आलोचना करनेवाले अब अदालत के ही खिलाफ विषवमन करने लगे है। ये बार – बार कह रहे है कि आखिर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने ऐसा क्यूं निर्णय दिया। क्या जब रामलला वहां विराजमान नहीं होते, बाबरी मस्जिद नहीं तोड़ी जाती, तो क्या न्यायालय ऐसा ही फैसला सुनाती। वो भी तब जब दोनों वर्गों के कट्टरपंथियों की बोलती बंद है। न तो भाजपा, विहिप, बजरंगदल और आरएसएस इस मुद्दे पर कुछ ऐसी टिप्पणी कर रहे हैं, जिससे सामाजिक समरसता प्रभावित हो, और न ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी। पर अब सामाजिक समरसता में कैसे जहर घूले, कैसे एक बार फिर हिन्दू मुस्लिम आपस में लड़ कट कर मरें ताकि सामाजिक समरसता का ढिंढोरा पीट कर, हम अपने आप को सेक्यूलर पत्रकार कह सके। इसकी तैयारी अब जोर शोर से हो रही है, रोज कुछ न कुछ ये अपने आपको सेक्यूलर पत्रकार कहनेवाले अखबारों में लिखकर न्यायालय को ही कटघरे में करने का काम कर रहे है। ये वे पत्रकार हैं जो लाखों – करोड़ों में खेलते हैं। जो कांग्रेस और वामपंथी दलों के इशारे पर नाचते हैं। ये वे पत्रकार हैं, जो एनजीओ अथवा सामाजिक संस्थान चलाकर, अपने राजनीतिक आकाओं से उपकृत होते है। अपने राजनीतिक आकाओं के प्रतिद्वंदियों को धूल चटाने के लिए गाहे बगाहे लिखते रहते हैं। इनकी सामाजिकता व राष्ट्रीयता में कोई रुचि नहीं होती, ये महानगरों और विदेशों में अपनी तूती कैसे बजती रहे, इनके संस्थानों में कैसे बड़ी संख्या में रुपये और डॉलरों की बरसात होती रहे, इसकी चिंता रहती हैं। ऐसे लोग इन दिनों बहुत बेचैन हैं, क्योंकि जो ये न्यायालय से सुनना चाहते थे, वो वे नहीं सुन पाये, इसलिए ये अपने आकाओं के इशारे पर विधवा प्रलाप कर रहे हैं, पर इनकी विधवा प्रलाप भी नहीं सुनी जा रही। बेचारे क्या करें।
इसलिए इन्होंने सहारा लिया हैं क्षेत्रीय स्तरों पर छपनेवाले अखबारों का, ताकि महानगरों में न सहीं, छोटे छोटे नगरों में ही उनकी बात लोग पढ़ सकें और देश व समाज एक बार फिर सांप्रदायिकता की आग में झूलस जाये।
कमाल हैं, 30 सितम्बर को रामजन्मभूमि पर आये फैसले पर जब दो समुदाय, एक दूसरे के निकट आ रहे हैं और सामाजिकता व राष्ट्रीयता को मजबूती दे रहे हैं तो ये तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकार इस शांति को वे आनेवाले तूफान के पूर्व की शांति बता रहे हैं, लानत हैं ऐसे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों पर। कमाल ये भी हैं एक एक कर दिन बीतते जा रहे हैं, पर इनकी अयोध्या पर लेखिनी थम नहीं रही, चलती ही जा रही हैं, जैसे देश में लगता हैं कि अब अयोध्या छोड़कर कुछ दूसरा न लिखने को हैं और न बोलने को। ये वे ही लोग हैं जो चिल्ला चिल्लाकर कहा करते थे कि भाजपा राम के नाम पर वोट मांगती हैं, भाजपा सांप्रदायिक हैं, पर अब कौन सांप्रदायिक हैं, कौन बाबर बाबर चिल्ला रहा हैं, ये तो जगजाहिर हैं, किसे बाबर से अत्यधिक अनुराग हो गया हैं, कौन न्यायालय के खिलाफ लिख रहा हैं, ये सब जान रहे हैं, ये तो वहीं बात हुई, कि हमारे पक्ष में फैसले आये तो वाह वाह और दूसरे के पक्ष में फैसले आये तो हो गये तबाह, करने लगे मनमानी। यानी कड़वा कड़वा थू थू और मीठा मीठा चप – चप। जबकि यह फैसला न तो किसी के पक्ष में गया हैं और न ही विपक्ष में। ऐसे भी जब हम न्यायालय की सम्मान की बात करने को कहते है तो क्या ये ही संवाद इन तथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों पर लागू नहीं होता, जो बेवजह विधवा प्रलाप कर, देश और समाज दोनों को तोड़ने पर लगे है।

Monday, October 4, 2010

अयोध्या से दिल्ली तक...!

संपूर्ण विश्व के देशों में अयोध्या से दिल्ली तक की चर्चा हैं। चर्चा इस बात की है आखिर भारत जैसा देश अयोध्या जैसे मसले पर कैसे शांत रहा और कल तक भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा कॉमनवेल्थ गेम्स आज कैसे अपने शानदार आयोजन के लिए पूरे विश्व से बधाई संदेश प्राप्त कर रहा हैं, जबकि कॉमनवेल्थ गेम्स व अयोध्या मुद्दे को लेकर हमारा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी खूब शेखी बघार चुका हैं।
अयोध्या --- नाम लेते ही, 6 नवम्बर 1992 का चित्र उभरता है, जब कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर डाला, और भगवान श्रीराम की बालस्वरुप जिसे रामलला कहते हैं, उनकी प्रतिमा विध्वंस हुए जगह पर आनन फानन में एक टेंट बनाकर प्रतिस्थापित कर डाली। इसे लेकर पूरे देश में कई जगहों पर दंगे हुए, भारत की छवि को गहरा धक्का लगा, ऐसे भी ये कोई पहली घटना नहीं थी, राम और अयोध्या के नाम पर कई बार ऐसी हिंसक घटनाएं हुई हैं, पर जब 30 सितम्बर को अयोध्या का अदालती फैसला आया, तब देश में एक खून का कतरा भी नहीं बहा, इस पर सभी आश्चर्यचकित हैं, केवल भारत के ही लोग नहीं, बल्कि विश्व के सभी देश के लोग व मीडिया जगत भी, कि आखिर भारत आज शांत क्यों हैं। वो भारत जो हर छोटे-बड़े मुद्दे पर एक दूसरे से भिड़ जाता हैं, आज क्यों नहीं भिड़ा।
तभी ऐसे हाल में हमारे देश के ऋषि मनीषियों की याद बरबस आ जाती हैं कि जब बिगड़ने के समय आते हैं तो हालात बिगड़ने के हो जाते हैं और जब संवरने के दिन आते हैं तो हालात संवरने से हो जाते हैं। मैं देख रहा हूं कि भारत के कई संतों ने 19 वीं शताब्दी के दौरान विश्व के कई देशों में प्रवास के दौरान कहां था कि 21 वीं सदी भारत का हैं, और आज 21 वीं सदी के दस साल गुजरने को तैयार हैं, और जो लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं, उससे हमें एहसास हो रहा हैं कि सचमुच 21 वीं सदी भारत का हैं और ये इतिहास शायद अयोध्या के द्वारा ही लिखा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।
ज्यादातर तथाकथित बुद्धिजीवी राम को काल्पनिक मानते हैं, कुछ तो राम के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं कि राम का जन्म कभी हुआ ही नहीं था, पर ऐसा कहनेवाले भूल जाते हैं कि राम भारत के प्राण हैं, आत्मा हैं, राम के बिना भारत की परिकल्पना नहीं की जा सकती, और राम के आधार को किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती। ऐसे भी बिना राम की कृपा के भारत अपनी खोयी प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं कर सकता। राम को हिन्दू और मुसलमान में बांटना भी मूर्खता हैं। राम तो सभी के हैं, उन पर एकाधिकार कैसे हो सकता हैं। राम की शान में तो कई मुस्लिम कवियों और बुद्धिजीवियों ने भी बहुत कुछ लिखे हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा लिखनेवाले अल्लामा इकबाल ने तो राम को इमामे हिन्द तक कह डाला। क्या कोई बता सकता हैं कि इमामे-हिन्द का मतलब क्या होता हैं।
गर सच पूछा जाये तो राम के नाम पर झगड़े आज तक भारत में नहीं हुए, भारत में जब भी झगड़े हुए तो राजनीति के चलते, राजनीतिबाजों के चलते, और ये राजनीतिबाज सभी दलों में हैं, सभी अपने अपने ढंग से राम को देखते हैं और इसी दौरान वे सब कुछ कर डालने की कोशिश करते हैं, जिसमें गांधी के राम दम तोड़ रहे होते हैं। गांधी के राम की गर आप परिकल्पना करें तो साफ पता लग जायेगा कि वे किस राम को पसंद करते है। गर गांधी राम राज्य की परिकल्पना अथवा सुराज की परिकल्पना करते थे, तो गांधी के राम किस आदर्शवादिता पर खड़े उतरते थे। ये उनसे पूछिये, जिस राजनीतिबाजों के बयान, बेडरुम के चादर की तरह, राम के नाम पर बदलते रहते हैं।
अयोध्या में जब फैसले आ रहे थे, तब कई मीडियाकर्मियों ने अखबारों में लिखा और कई इलेक्ट्रानिक मीडिया के दोस्तों ने दिखाया कि आज के भारत का युवा राम में कम, मंदिर – मस्जिद विवाद में ध्यान कम, और अपने कैरियर, पावर और अपनी आर्थिक शक्ति मजबूत करने पर ज्यादा ध्यान दे रहा हैं, इसलिए अयोध्या में राम मंदिर बने अथवा न बनें इस पर वो ध्यान नहीं देता। जबकि सच्चाई ये हैं कि इस प्रकार के युवाओं की तादाद स्वतंत्रता आंदोलन में भी थी, जिसे आजादी के आंदोलन में दिलचस्पी कम और अन्य कामों में दिलचस्पी ज्यादा थी। ऐसे लोगों के तादाद हर युग में होते हैं जिन्हें देश से कम और अपने आप में ज्यादा दिलचस्पी होती हैं, पर जो राष्ट्र की चिंता करते हैं उनकी तादाद सदियों से बहुत ही कम होती हैं। आज के युवा जिन्हें राष्ट्र में दिलचस्पी हैं, वे अयोध्या के राम मंदिर को मंदिर मस्जिद के रुप में नहीं लेते, वे राष्ट्र के स्वाभिमान से इसे जोड़ते हैं, बात आज राम मंदिर के निर्माण की नहीं, मुद्दा इस बात का हैं कि भारत राम के नाम से जाना जायेगा या विदेशी आक्रांता बाबर के नाम से। अब तो अदालत ने भी मान लिया है कि विवादित स्थल रामजन्मभूमि स्थल हैं, जहां बाबर ने मंदिर की जगह मस्जिद बना दी। तो क्या उस विदेशी आक्रांता द्वारा निर्मित मस्जिद को इसलिए छाती से लगाकर रखा जाय कि उसने हमारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचायी या स्वतंत्रता के बाद उस काम को करें, जिससे हमारे पूर्वज गौरवान्वित हो। क्या ये सहीं नहीं कि स्वतंत्रता के बाद सोमनाथ मंदिर का हमारे सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उद्धार करवाया था, क्यों उद्धार कराया था, इसकी जानकारी क्या किसी के पास हैं गर नहीं हैं, तो क्या ये जानने की कोशिश की।
हमें अच्छी तरह पता हैं कि देश का कोई सच्चा मुसलमान, रामजन्मभूमिस्थल पर मंदिर निर्माण हो, इसका विरोध नहीं करता, विरोध तो वो करते हैं, जिनकी राजनीति की दाल नहीं गलती, जैसे देखिये, कल तक हर छोटे छोटे मुद्दे पर अदालत का सम्मान करनेवाले, राजनीतिबाज और उनके समर्थक कैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आये फैसले को राजनीति के चश्मे से देख कर बयान दे रहे हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को गलत ठहरा रहे हैं, चुनौती दे रहे हैं और एक बार फिर वे उस वर्ग को बरगलाने का काम कर रहे हैं जो अब रामजन्मभूमि पर अलग राय रख रहा हैं। ये वे लोग हैं, जिन्हें लग रहा हैं कि इस प्रकार के फैसले से उनकी राजनीति बर्बाद हो जायेगी, इसलिए वोट और राजनीतिक समर्थन पाने के लिए वे हर प्रकार का बयान दे रहे हैं, जिसकी खुलकर आलोचना होनी चाहिए, पर खुशी इस बात की हैं कि कई मुस्लिम संगठनों ने ही उन राजनीतिबाजों के बयान की हवा निकाल दी। कुछ मुस्लिम बुद्धिजीवी संगठनों ने तो अब इस मुददे को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती न दी जाय, इसकी अपील भी की हैं, साथ ही कई मुस्लिम संगठनों ने रामजन्मभूमि स्थल पर मंदिर बनाने की पहल भी की हैं, जो ये बताने के लिए काफी है कि भारत अब किस ओर चल पड़ा हैं।
जान लीजिये, ये भारत अब पूरी तरह से परिपक्व हो गया है. भारत की जनता पूरी तरह से परिपक्व हो गयी हैं। वो दिन अब दूर नहीं कि ये मुसलमान, हिन्दूओं के साथ मिलकर विवादितस्थल जो अब विवादित नहीं रही हैं, एक साथ मिलकर राममंदिर का निर्माण करेंगे और दूनियां को दिखायेंगे कि भारत अब वो राम के नाम पर लड़ने भिड़नेवाला भारत नहीं, बल्कि राम के नाम पर एक साथ चलनेवाला भारत हैं, वो अब मीडिया और राजनीतिबाजों के चिकनीचुपड़ी बातों में न आकर भारत की एकता अखंडता को मजबूत करनेवाले मार्ग को प्रशस्त करनेवाला भारत हैं। अब इसे कोई छू नहीं सकता, बस उसका लक्ष्य सामने हैं, अपने देश को सर्वोच्च शिखर पर ले जाने का.............................। उसका उदाहरण भी साफ साफ दिखाई पड़ रहा हैं, क्योंकि इसी 21 वीं शताब्दी में भारत पर राम की कृपा स्पष्ट रुप से नजर आयी। जब पूरा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा था, जहां विकसित राष्ट्र के बैंकों का समूह औंधे मूंह गिर रहा था, वहीं भारत पर इसका प्रभाव न के बराबर था। भारत आर्थिक रुप से मजबूती से खड़ा रहा। 2007 में महात्मा गांधी जिनकी प्रार्थना ही राम से शुरु हुआ करती थी, उनके जन्मदिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित कर भारत को प्रतिष्ठा दी। विश्व के कई देशों में भारतीय आर्थिक रुप से मजबूत होकर, भारत का लोहा मनवा रहे हैं, कई देशों में तो भारतीयों का प्रत्यक्ष रुप से शासन चल रहा हैं तो कहीं अप्रत्यक्ष रुप से। कई देशों में तो भारतीय मूल के लोगों ने अपनी प्रतिभा से सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया हैं, तभी तो अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी सभी से भारतीयों से सीख लेने की अपील तक कर डाली और अब दिल्ली की बात कामनवेल्थ गेम्स जो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ रहा था, आज वो पूरे विश्व में शानदार आयोजन के लिए तालियां बटोर रहा हैं, ये हैं राम के देश का कमाल, ये राम की कृपा। बस इसे आध्यात्मिकता की नजरों से देखिये, भारत त्यागभूमि हैं भोगभूमि नहीं।

अरे ये तो चीन व पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं........!

पाकिस्तान तो अपने जन्म से ही कश्मीर पर अपना हक जताता रहा है, वहीं चीन ये मानने को तैयार ही नहीं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इधर इस साल से वो कश्मीरियों के लिए अलग प्रकार के वीसा जारी कर अपना इरादा भी जाहिर कर दिया है और चीन के इस हरकत को हवा दी है, भारत में ही रह रहे वो लोग जो अपने आपको बुद्धिजीवी मानते हैं, जो अपने आप को वामपंथ की मुख्यधारा में रहने की बात करते हैं, जो खाते पीते भारतीय भूभाग पर हैं पर दिलों दिमाग से चीन व पाकिस्तान के ज्यादा निकट हैं। आश्चर्य है कि ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर उस हर प्रकार की राष्ट्रविरोधी हरकतें करते हैं, जिससे भारत की संप्रभुता को चोट पहुंचती है, पर भारत सरकार इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करती।
हाल ही में अखबारों और मीडिया के माध्यम से एक बयान पढ़ने और सुनने को मिला कि अपने बयानों से हमेशा चर्चा में रहनेवाली एक महिला बूकर पुरस्कार विजेता अरुंधती राय मानती है कि कश्मीर भारत का कभी अभिन्न अंग नहीं रहा, ठीक इसी प्रकार लादेन की भाषा में नक्सली नेता किशन का कहना था कि कश्मीर को आजाद कर दिया जाय, साथ ही गर वहां भारतीय सेना कश्मीर में कुछ करती है तो वह ऐसे मुद्दे पर नक्सली, मुसलमानों का साथ देंगे, अरे तुम किसी का साथ दो, देश को और देशभक्तों को क्या फर्क पड़ता हैं, वो तुम जिसके लिए लड़ने की बात करते हो, उसका तुम कितना भला कर रहे हो, वो तो भारत की आत्मा और भारतीय जनता खूब जान रही हैं।
कमाल है ये अरुंधती राय और किशन जैसे नक्सली को, जब कश्मीर में हिंदूओं का कत्लेआम होता हैं, जब इस्लाम के नाम पर सिक्खों को धमकी दी जाती हैं कि वे इस्लाम कबूल करें तो ये दोनों उस वक्त वामपंथी किताबों में उलझे रहते हैं, लेकिन जैसे ही इस्लाम, पाकिस्तान और चीन की बात आती हैं तो ये दरवे से निकल कर पाकिस्तान और चीन जैसे देशों तथा इस्लाम के साथ होने की बात करते हैं।
ये नक्सली क्या कर रहे हैं, इससे देश रोज दो चार हो रहा हैं। खूलकर नक्सलियों और उनके गतिविधियों को समर्थन करनेवाली अरुंधती राय को जब ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस उड़ायी जाती है और निर्दोष रेलयात्रियों की लाशों से पुरा इलाका पट जाता हैं तो उसमें उन्हें इंसानियत नष्ट होता नहीं दीखता। जब आतंकी पूरे कश्मीर से हिंदूओं को एक कर निकाल बाहर कर रहे होते हैं तो इनकी छाती नहीं पसीजती, पर जब देश के स्वाभिमान की रक्षा, एकता और अखंडता को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय सेना अपनी जान गवां रही होती हैं और देशद्रोहियों व आतंकियों को उनकी औकात बताती हैं, तो इनकी छाती फटने लगती हैं, इनकी क्यों छाती फटती हैं, भारतीय जनता अब खूब जान रही हैं।
सदियों से शांति व प्रेम का संदेश देनेवाले भारत में ये लोग बंदूक की गोली से शांति व प्रेम फैलाना चाहते हैं। इनका मानना हैं कि बंदूक की निकली गोली से ही शांति और विकास का द्वार खुलता हैं, क्योंकि ये जिनके आदर्शों पर चलने की बात करते हैं, इनके आका कभी भारत से जुड़े ही नहीं, और न ही उनकी भारतीय आदर्शों में दिलचस्पी थी, ये तो मार काट की ही भाषा समझते थे और है, और जो उनकी ये भाषा नहीं समझता या उनके विचारों को नहीं मानता, उसे सदा के लिए मौत की नींद सुला देते ताकि इनके खिलाफ दूसरा कोई विचार जन्म ही न ले। गर किसी को लगता हैं कि ये लिखे हुए शब्द गलत हैं तो चीन के थ्येन मन चौक की घटना याद कर लें।
इस अरुंधती और किशन को कश्मीर पर बोलना बहुत अच्छा लगता हैं और जो चीन तिब्बत पर बल पूर्वक कब्जा कर बैठा हैं, जहां के लाखों तिब्बती दूसरे देशों में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं, उनके पक्ष में बोलने में इनका गला सूखता हैं कारण कि उन्हें अपने आका चीन के खिलाफ बोलने में शर्म महसूस होती हैं, वहां उन्हें चीन की ये गंदी हरकतें बहुत अच्छी लगती है, क्यों आप खूद समझिये। हर बात को समझाने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं, बल्कि इनकी हरकतों, इनके विचारों, जहां ये बोलते हैं, केवल उस पर ध्यान दीजिए।
मेरा रांची से 25 सालों का संबंध रहा है, पर मैने निकट से देखा हैं कि जितने भी जनवादी कार्यक्रम होते हैं, या इस प्रकार के वामपंथी चिंतक, देशतोड़क बयान देनेवाले लोग आते हैं, उनके कार्यक्रम इसाई मिशनरी इलाकों में ही होते हैं, मिशनरी प्रेक्षागृहों में ही होती हैं, आज तक इनके कार्यक्रम मैंने सार्वजनिक जगहों पर होते नहीं देखा। ये धर्म को अफीम मानते हैं, पर सच्चाई ये हैं कि हिंदू धर्म के खिलाफ बोलने, उनके खिलाफ गाली देने में ये शान समझते हैं और चूंकि इस प्रकार के गाली देनेवाले शब्द, देश तोड़क बयान सिर्फ मिशनरीज इलाकों में आराम से बोले जा सकते हैं, कार्यक्रम आयोजित होते हैं। एक बार मैंने इन्हीं मुददों पर एक वामपंथी नेता से पूछा कि आखिर इस प्रकार के आयोजन मिशनरीज इलाकों अथवा मिशनरीज संगठनों के बीच क्यों, अन्य जगहों पर क्यों नहीं, तब इनका कहना था कि ऐसा संभव ही नहीं। आज भी नक्सल प्रभावित इलाकों में मिशनरीज धर्म प्रचार कर आदिवासियों का बलात् धर्म परिवर्तन कर रहे हैं और उनके मूल धर्म और मूल पहचान से अलग कर रहे हैं, किसके इशारे पर ये सब हो रहा हैं। शायद इसका जवाब भी अरुंधती और किशन के पास नहीं होगा। क्या कारण हैं कि विदेशों में लोग भारतीय धर्म के प्रति सहानुभूति रखते हैं पर अपने देश में केवल पेट के लिए लोग धर्म परिवर्तन कर ले रहे हैं।
आजकल इन्हें बहुत अच्छा बहाना मिल गया हैं नक्सलियों को समर्थन देने का कि केन्द्र और राज्य सरकार खनन के नाम पर, कल-कारखाने लगाने के नाम पर पूंजीपतियों को जमीन देने के लिए, जमीन हड़पने के लिए एमओयू कर रही हैं, ग्रीन हंट चला रही हैं। मैं भी मानता हूं कि इसमें कुछ सच्चाई हैं पर ये कौन सी बात हो गयी कि आप इसकी आड़ में देश को तोड़ने पर आमदा हो जाओ, कह दो कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग नहीं है। ये बोलने का अधिकार किसने आपको दे दिया, आखिर चीन और पाकिस्तान के साथ आपको इतनी हमदर्दी हैं तो फिर भारत में रहने का क्या मतलब हैं, इसे भी तो यहां की जनता को बताओ पर आप ऐसा करोगे, हमें नहीं लगता, क्योंकि आप क्या हो, आज जनता जान चुकी हैं।

Sunday, September 19, 2010

इसमें कौन सी नयी बात है...!


अर्जुन मुंडा की नयी सरकार पर आरोप है कि इस सरकार को व्यवसायियों ने अपने फायदे के लिए बनायी है और ये सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पायेगी। इस तरह का आरोप तो विधानसभा में ही संभवतः झारखंड विकास मोर्चा विधायक दल के नेता प्रदीप यादव ने लगाया था, जब अर्जुन मुंडा सदन में विश्वास मत प्राप्त कर रहे थे, लेकिन हम आपको बता देना चाहते हैं कि इस तरह की बातें झारखंड का बच्चा बच्चा जानता हैं, कोई इसमें नयी बात नहीं है।
पहली बात, क्या ये पहली बार हुआ हैं कि सरकार बनाने अथवा बचाने के लिए किसी राजनेता द्वारा व्यवसायियों से सहयोग लिया गया हो, ये तो हमेशा से होता रहा हैं और होता रहेगा, क्योंकि हमारे यहां राजनीति अब साधुओं अर्थात् सज्जनों की जमात नहीं करती, ये विशुद्ध राजनीतिबाज हैं जो विपरीत आचरण कर सत्ता हासिल कर स्वयं और अपने अनुयायियों को अनुप्राणित करते रहते हैं, इसके उदाहरण केवल अर्जुन मुंडा नहीं बल्कि कई राजनीतिज्ञ हैं, जिसकी एक लंबी लिस्ट हैं, जिसमें भारत के सभी राजनीतिक दल शामिल हैं।
कल एक राष्ट्रीय चैनल और आज उस राष्ट्रीय चैनल का हवाला देकर रांची से प्रकाशित कई समाचार पत्रों ने इस समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया हैं, ऐसा लगता हैं कि व्यवसायियों से सहयोग लेकर, अर्जुन मुंडा ने अपराध कर डाला हैं। लेकिन अर्जुन ने अपराध किया अथवा नहीं किया, इसका निर्णय कौन करेगा, अखबारवाले और मीडिया के लोग या समय आने पर झारखंड की जनता।
कल तक तो ये ही अखबार व मीडिया वाले अर्जुन की जयजयकार कर रहे थे, अचानक ये सुर कैसे बदल गया। कमाल की बात हैं अजय संचेती भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, उन्हें आज भाजपा नेता कम और व्यवसायी ज्यादा बताया जाने लगा हैं। लगे हाथों भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रघुवर जो ज्यादातर विवादास्पद मुद्दों पर नो कमेंटस और मीडिया पर आंख भौं तान के निकल जाते हैं उनके मुख से ये कहलवाते हुए दिखाया गया, कि सबसे पहले अजय संचेती का उनके पास फोन आया था कि वे विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा दे दें, बाद में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी का। हो सकता हैं कि रघुवर दास ने खुद को ये संवाद कहने के लिए ड्रामा भी कराये हो, क्योंकि राजनीति में साम दाम दंड भेद सब चलता हैं, ऐसे भी रघुवर दास मन ही मन अर्जुन से खार खाये हुए हैं और फिलहाल झारखंड में रघुवर दास नेतृत्व कर रहे है, केन्द्र के उन विक्षुब्ध नेताओं का जिन्हें फिलहाल गडकरी और अर्जुन मुंडा पसंद नहीं हैं, जो नहीं चाहते कि अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री हो, क्योंकि उनके पसंद का मुख्यमंत्री कोई दूसरा है, जिनकी पकड़ राष्ट्रीय चैनलों में भी मजबूत हैं। वो जो चाहे दिखवा सकते हैं और जो चाहे करवा सकते हैं। लेकिन इसका परिणाम क्या निकलेगा, शायद दो बंदरों और बिल्ली वाली कहानी भाजपा के ये विक्षुब्ध नेता नहीं जानते।
दूसरी बात कल एक राष्ट्रीय चैनल ने दिखाया और आज कुछ अखबारों ने फोटो छापा हैं कि जिन व्यवसायियों ने सरकार बनाने में प्रमुख निभायी, वे शपथ ग्रहण समारोह में अगली पंक्ति में बैठे थे, क्या कोई बता सकता हैं कि किसी के शपथ ग्रहण समारोह में अगली पँक्ति पर कौन बैठता हैं। अगली पंक्ति पर तो वहीं वैठेगा, जो धनवाला अथवा रसूखवाला हो, कोई रिक्शावाले या भिखमंगों को तो कोई बैठायेगा नहीं। मैं मीडियाकर्मियों से ही पूछता हूं कि गर मीडिया से ही किसी को इस दौरान बैठाना रहता तो इस शपथ ग्रहण समारोह में, अग्रिम पंक्ति में चरित्रवान पत्रकार बैठते क्या, कि यहां भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के मालिकों और प्रबंधकों का कब्जा रहता। कोई बता सकता कि आज पत्रकारिता के नाम पर जो राज्यसभा में जा रहे हैं, वे कौन लोग हैं..........................। वे वहीं लोग हैं, जो किसी न किसी प्रकार से विभिन्न राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के टॉप के नेताओं को अपने कलम अथवा कैमरा के माध्यम से उपकृत करते रहते हैं और समय आने पर ब्याज के साथ, वो सब वसूल लेते हैं, जिसकी परिकल्पना नहीं की जा सकती। क्या ये सही नहीं कि मीडिया में, जो रसूखवाले थे, वे भी अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री पद पर बैठा देखना चाहते थे, मैंने तो अपनी आंखों से देखा कि शपथग्रहण समारोह के दिन ज्यादातर चैनलों के प्रतिनिधि और उनके आका मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के चरणों में बलिहारी जा रहे थे, क्यों बलिहारी जा रहे थे, वे वे ही मीडिया के लोग बेहतर बता सकते हैं, जिन्होंने पत्रकारिता को बाजार बना दिया है। रही बात झारखंड की तो यहां के विधायकों का इतिहास रहा हैं कोई नयी बात नहीं हैं. चाहे नरसिंह राव सरकार बचाने का मामला हो या परिमल नथवानी या के डी सिंह को राज्यसभा पहुंचाने की बात, ये तो खुलकर, डंके की चोट पर वो सब काम करने को तैयार रहते हैं, जो दूसरे लोग छुप कर करते हैं। और जब अर्जुन मुंडा ने व्यवसायियों के सहयोग से सरकार बना ही ली है तो उस पर छीटाकशी कौन करेगा। वे लोग, चलनी दूसे सूप के जिन्हें बहत्तर छेद। मीडिया पहले अपने गिरेबां में झाक कर देखे और झाविमो के बाबू लाल मरांडी जैसे नेता भी। जिन्होंने इस प्रकरण पर बखूबी बयान दे डाला। क्या बाबू लाल मरांडी बता सकते हैं कि इसी विधानसभा चुनाव में उनके द्वारा उपयोग किये गये उड़नखटोले के पैसे कहां से आये, फिल्म अभिनेत्रियों को कैसे चुनावी सभा में ले जाया गया, विधानसभा चुनाव में मीडिया पर पैसा कैसे पानी की तरह बहाया गया, कूटे में महाधिवेशन के दौरान करोड़ों रुपये कैसे खर्च हो गये, आखिर ये बिना व्यवसायियों के सहयोग से हो गया क्या। गर व्यवसायियों के सहयोग से नहीं हुआ तो जनता को बतायें कि अचानक कहां से उन्हें अलादीन का चिराग प्राप्त हो गया ।

Saturday, September 11, 2010

बधाई महामहिम फारुक साहब को…।


मैं अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में ढूंढ रहा हूं, एम ओ एच फारुक साहब को, पर वो मिल नहीं रहे, कल तक उनके नाम स्थानीय अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में सुर्खियों में रहता था, पर अब वो दिखाई नहीं दे रहा। लोग कहते हैं कि ये देश ऐसा हैं कि यहां उगते सूर्य को ही नमस्कार किया जाता हैं, पर शायद लोग भूल रहे हैं कि ये देश ऐसा भी हैं कि डूबते सूर्य को सर्वप्रथम अर्घ्य देने के बाद ही अपना व्रत प्रारंभ करता हैं, गर किसी को ध्यान नहीं हो, तो जरा कार्तिक शुक्ल रविषष्ठी व्रत जिसे छठ भी कहते हैं, उस ओर अपना ध्यान ले जाये।
चारों ओर जयजयकार हो रही अर्जुन मुंडा की। होनी भी चाहिए क्योंकि इस अर्जुन ने अपने तरकस से निकाल धनुष पर संधान कर ऐसी तीर छोड़ी हैं कि इस तीर से कई दिग्गज घायल हो गये, खुद जिस गुरु शिबू सोरेन ने राजनीतिक शिक्षा दी, वे खुद ही फिलहाल असहाय की स्थिति में हैं, जिस बाबु लाल मरांडी ने अर्जुन को पहली बार सत्ता सौंपी थी, वे सत्ता की चाहत में इधर से उधर भटक रहे हैं, पार्टी बना ली, फिर भी मुख्यमंत्री का पद नहीं मिला, पर जिसने कुछ भी नहीं किया, वो आज सत्ता के शीर्षस्थान पर हैं, कैसे। इस पर विचार करना चाहिए। विचार करना चाहिए, सत्ता की चाहत में बैठे, उन राजनीतिज्ञों को जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने की इच्छा रखते हैं। हम बता देना चाहते हैं कि सत्ता की राजनीति में मुख्यमंत्री पद की लालसा रखना कोई गलत बात नहीं, पर उसके लिए तिकड़म करना गंदी बात हैं। हालांकि बिना तिकड़म के राजनीति में कोई बात बनती ही नहीं। ऐसे भी साम दाम दंड भेद ये शब्द राजनीति के कोख से ही निकले हैं। चलिए झारखंड का बेटा अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बन गया । ये आज का अर्जुन हैं, ये न तो तीर चलाता हैं और न धनुष रखता हैं, पर हां, गोल्फ खेलता हैं, जबकि दोनों में लक्ष्य का निर्धारण और उसे पाना महत्वपूर्ण होता हैं। चुनाव के परिणाम आने के बाद मात्र नौ महीने में इतनी आसानी से अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री इस बार बन जायेंगे, इसका अंदाजा किसी को नहीं था। ऐसे भी इतिहास गवाह हैं कि इस अर्जुन को, सत्ता में आने के लिए कई बार संघर्ष भी करना पड़ा हैं, कभी राज्यपाल की भूमिका ने सत्ता से दूर इसे रखा तो कभी अपनों ने ऐसी तिकड़म लगायी कि इन्हें सत्ता मिलने में देर हो गयी, पर इस बार अर्जुन ने ऐसी जुगत लगायी, मीडिया और कारपोरेट जगत को ऐसा क्लच में लिया कि चारो ओर सिर्फ अर्जुन ही अर्जुन दिखाई पड़ने लगा, फिर क्या था, उधर भाजपा आलाकमान ने भी हरी झंडी दिखा दी, नतीजा सबके सामने हैं।
पर एक बात मैं कहे और लिखे बिना रुक नहीं सकता, जरा सोचिये कि आज एम ओ एच फारुक की जगह सैय्यद सिब्ते रजी या अन्य राज्यपाल होते तो क्या होता किसी ने इस बात का अंदाजा भी लगाया हैं। लोग को छोड़िये सत्ता किसी को मिले अथवा सत्ता न मिले उससे आम जनता की कोई दिलचस्पी नहीं होती पर मीडिया ने क्या किया, मीडिया ने उस शख्स को बधाई दी, अथवा दो शब्दों की उदारता दिखायी जिसने सचमुच में लोकतंत्र की मर्यादा रखी, खासकर ऐसे वक्त में जब चारों ओर लोकतंत्र का चीरहरण हो रहा है। बधाई झारखंड के राज्यपाल एम ओ एच फारुक को, जिन्होंने आज की राजनीति में, एक नया आयाम लिखा हैं, उन्होंने राजनीतिक परिपक्वता ही नहीं बल्कि शुचिता एवं शुद्धता की नयी परिभाषा लिखी हैं। याद करिये, जब इस राज्य में राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी थे, उन्होंने क्या किया था, ये जानते हुए भी कि अर्जुन को बहुमत हैं, उन्होंने सत्ता से दूर रखकर उस वक्त शिबू को मुख्यमंत्री बनाने का न्यौता दे डाला था, पर एम ओ एच फारुक साहब को देखिये, जैसे ही अर्जुन मुंडा ने बहुमत जुटाई, बहुमत को राज्यपाल के समक्ष रखा। एम ओ एच फारुक ने तुरंत निर्णय लिया, राष्ट्रपति शासन हटवाने के लिए गृहमंत्री को अनुशंसा किया, ये ही नहीं जो उन्होंने राज्यहित में कुछ निर्णय ले रखे थे, उन्हें रोका, और नये सरकार पर फैसले छोड़ दिये। जल्द ही अर्जुन मुंडा को सत्ता भी सौंप दी। आज के युग में ऐसी मिसाल कहां मिलती हैं। बधाई हो एम ओ एच फारुक साहब। आपने एक नयी मिसाल कायम की हैं। राजनीति करनेवालों और राजनीति में रुचि रखनेवालों को आपने एक सबक दी हैं, आशा की जानी चाहिए कि लोग आपसे सबक सीखेंगे, हालांकि ये सच हैं कि मीडिया और कारपोरेट जगत जो अर्जुन मुंडा को सत्ता सौंपने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहा था, आपके इस उदार चरित पर ध्यान देना उचित नहीं समझा, पर झारखंड में इमानदारी से राजनीति करनेवालों को आपका ध्यान हमेशा रहेगा।
आज के युग में सत्ता किसे अच्छी नहीं लगती, आप भी औरों की तरह तिकड़म लगा सकते थे, और कुछ दिन झेल सकते थे, विधानसभा को भंग करने की सिफारिश कर सकते थे, क्योंकि झारखंड विकास मोर्चा के कई नेता तो कह ही रहे थे, कि विधानसभा भंग कर दी जाये, पर आपने ऐसा नहीं किया, विधानसभा को निलंबित ही रहने दिया पर जैसे ही अर्जुन ने बहुमत का जुगाड़ किया आपने बिना किसी इफ-बट के वो फैसले लिये, जिस फैसले की आशा तो इतनी आसानी से न तो भाजपा को थी और न तो अर्जुन मुंडा को, मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं पत्रकार हुं और मुझे इसका अच्छी तरह अनुमान हैं। पर यहां की मीडिया जो अर्जुन के बयार में आपके इस उदार चरित को भूल गयी, एक शब्द भी आपके बारे में लिखना उचित नहीं समझा। ये देख व जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, फिर भी, आपको मेरी ओर से महामहिम फारुक साहब आपको कोटिशः बधाई। आशा हैं आप अपनी इस प्रकार की उदारता से राजनीति में और भी मिसाल कायम करते रहेंगे। ऐसे भी आपने बहुत कम ही समय में, जो राष्ट्रपति शासन के दौरान जो झारखंड हित में निर्णय लिये हैं, उसकी परिकल्पना नहीं की जा सकती। सूखा झेल रहे, झारखंड और भ्रष्टाचार को रोकने में जो आपने मह्तवपूर्ण फैसले लिए, उसका पालन आनेवाली सरकार करेंगी, इसका मुझे उतना भरोसा नहीं और न ही आम जनता को हैं।

Sunday, September 5, 2010

शिक्षक दिवस पर विशेष

गुरु क्या, ये तो शिक्षक के भी लायक नहीं...!

एक पत्रकार मित्र ने आज शिक्षक दिवस पर कुछ पंक्तियां मुझसे पूछी, संभवतः वे शिक्षक दिवस पर कुछ स्पेशल रिपोर्ट बनाना चाहते थे। गुरु और गोविंद में कौन बड़ा हैं, इससे संबंधित कुछ पंक्तियां वे मुझसे चाहते थे। शिक्षक दिवस के दौरान ऐसे भी भारत में ये पंक्तियां खूब चलती हैं --------
गुरु गोविंद दोउं खड़ें, काको लागू पायं।
बलिहारी गुरु आपनो, जो गोविंद दियो बतायं।।

और इस पंक्ति के बहाने आज के शिक्षक को गुरु बताकर, ईश्वर से भी, उन्हें श्रेष्ठ बताने की कोशिश की जाती हैं। जबकि आज के शिक्षक कभी गुरु हो ही नहीं सकते। क्योंकि कल के गुरु और आज के शिक्षक में आकाश जमीन का अंतर हैं। कल का गुरु शिक्षक नहीं था, वो मानव संसाधन के अंतर्गत न कभी काम किया था और न ही करने का कभी संकल्प किया था, पर आज का शिक्षक मानव संसाधन बन गया हैं, और एक संसाधन का क्या हश्र होता हैं, वो कल के गुरु का भान करनेवाला आज का शिक्षक खूब समझता हैं।
संस्कृत में एक श्लोक हैं -----------
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

हालांकि इस श्लोक का भी आज के शिक्षक अपने ढंग से भावार्थ बताते हैं, जबकि मेरे अनुसार, गुरु को ब्रह्मा के सदृश होना चाहिए, जो अपने शिष्य का निर्माण करें, गुरु को विष्णु होना चाहिए, जो उसके चरित्र निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाये, गुरु को शंकर होना चाहिए, जो उसके सभी बुराईयों को शमन कर दें, ऐसे गुरु ही साक्षात् परब्रह्म के समान होते हैं, जो ऐसे हैं, उन्हें नमस्कार हैं, पर ऐसे गुरु आज कितने हैं।
जरा कल के गुरु की एक कहानी सुनाता हूं
महर्षि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को कहते हैं कि हे आरुणि। बारिश होनेवाली हैं, इसलिए तुम जाओ खेत में, वहां मेड़ बनाकर, खेत में जानेवाले पानी को रोकने का प्रयास करों ताकि खेत में लगी फसल बर्बाद न हो, महर्षि धौम्य के आदेश को सुनकर आरुणि खेत की ओर चल पड़ता हैं, भारी बारिश होती हैं, पर मिट्टी के मेड़ पानी में बह जा रहे हैं, अंतः में कोई विकल्प न देख आरुणि खुद को मेड़ बना कर लेट जाता है। रात बीत रही हैं, इधर महर्षि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को आश्रम में न आया देख, विचलित हो रहे हैं, जैसे ही सुबह होती हैं, वे खेत की ओर अपने अन्य शिष्यों के साथ चल पड़ते हैं। देखते हैं कि आरुणि ने गुरु के वचन का पालन करने के लिए स्वयं को ही मेड़ बना डाला है,
आरुणि की इस दशा को देख, महर्षि धौम्य भाव विह्ववल हो रहे हैं, और अपने प्रिय शिष्य को उसी अवस्था में गले लगा लेते हैं, कहां हैं, ऐसे शिक्षक, जो इस आदर्श को अपना सकें, और उन्हें हम गुरु कह सकें।
जरा एक और कथा सुनिये --------------
रावण की सेना और उसके गुप्तचर भारत के सभी स्थानों को एक एक कर अपने गिरफ्त में ले रहे हैं। इधर गुरु विश्वामित्र को चिंता हो रही हैं, कि गर ऐसा ही चलता रहा तो भारत की दशा अत्यंत दयनीय हो जायेगी, अपने अंदर प्राप्त ज्ञान किसे दें, जिससे भारत की रक्षा हो सकें। वे अयोध्या का रुख करते हैं। अयोध्यापति दशरथ के पुत्र राम लक्ष्मण को अपनी विद्या के लिये योग्य मानकर उन्हें अपने साथ लेकर निकल पड़ते हैं, रास्ते में ही, राम लक्ष्मण की योग्यता की परीक्षा लेते हैं, जब ताड़का मार्ग में ही आ खड़ी होती हैं। दोनों परीक्षा में पास और फिर राम लक्ष्मण को उन्होंने सारी अपनी विद्याएं दे दी और राष्ट्र निर्माण का संकल्प लिया। बाद में गौतम नारी अहल्या का उद्धार कराया, राम का योग्य कन्या सीता के साथ विवाह भी संपन्न कराया और फिर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होकर नये भारत के निर्माण के लिए निकल पड़ें, और यहीं योग्य राम आगे चलकर क्या किया, आगे की कथा सभी जानते हैं, इसलिए यहां इससे अधिक बातें लिखना उचित नहीं। जरा अब बताईयें कि आज कितने शिक्षक ऐसे हैं जो विश्वामित्र और महर्षि धौम्य की सोच रखते हैं। जब ऐसी सोच इनकी हैं ही नहीं, तो फिर हम इन्हें गुरु क्यों कहें।
अरे ये तो शिक्षक हैं। इनका आज का चरित्र देखिये।
क. पैसे लेकर शिक्षा बांटते हैं। ये तो प्राईवेट फर्मों में पढ़ाते हैं, और आज कोई दूसरे फर्म, उन्हें ज्यादा पैसे देने की बात करें, तो बेस्ट आपर्चूयनिटी का बहाना बनाकर, आराम से अपने वर्तमान शिष्यों को श्रद्धांजलि देकर निकल पड़ते हैं, अपनी मस्ती और भौतिक आनन्द की खोज में।
ख. जिन सरकारी स्कूलों में ये पढ़ाते हैं, उन सरकारी स्कूलों में खूद अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते क्योंकि वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों की क्या स्थिति हैं, इसलिए वे इन्हीं सरकारी स्कूलों से खुद तो बंपर स्केल उठाते हैं, पर अपनी संतानों को इन स्कूलों से दूर रखते हैं, क्योंकि वे खुद कर्तव्यनिष्ठ होकर नहीं पढ़ाते, ये अलग बात हैं कि इन सरकारी स्कूलों में जैसे तैसे पढ़ रहे वंचितों के बच्चे अपनी तकदीर खुद संवार लेते हैं।
ग. आज का शिक्षक खुद को कांट्रेक्ट में बांध दिया हैं, ठेके पर नियुक्त होता हैं, पारा टीचर बनकर गौरवान्वित महसूस करता हैं, खुद कहता हैं कि वो पारा टीचर हैं, और जब उन्हें खुद की मानदेय कम लगती हैं तो सड़कों पर उतर जाता हैं, यहीं नहीं वो कहता हैं कि उसका नियमितिकरण कर दिया जाय, यानी जिन स्कूलों में शिक्षक नियुक्त हुए, जिन प्रक्रियाओँ के द्वारा। भले ही उन प्रक्रियाओं से, ये पारा टीचर की नियुक्ति न हुआ हो, पर सारा सुख, उन्हीं की तरह लेने की बात करता हैं, यानी शार्ट कट फार्मूला, से बंपर स्केल पाना चाहता हैं।
घ. चाहे बंपर स्केल पाने वाले नियमित शिक्षक हो या पारा टीचर। सहीं बात तो ये हैं कि ये कभी भी दिल लगाकर अपने कर्तव्य पथ पर नहीं हैं, गर ये आज कर्तव्यपथ पर होते, तो फिर ये नये – नये निजी विद्यालय खुलते ही नहीं, गर खुलते भी तो इनके आगे टिकते ही नहीं। हमें याद हैं कि एक समय था, जब जिला स्कूलों में नामांकन कराने के लिए बड़े बड़े लोगों की पैरवी होती थी, आज तो इन जिला स्कूलों में कोई अपने बच्चों को पढ़ाना ही नहीं चाहता, खुद वे टीचर भी नहीं पढ़ाना चाहते, जो यहां नियुक्त हैं। ऐसे में ये मानव संसाधन बन गये शिक्षक, देश व समाज का कितना भला कर रहे हैं, ये तो खुद ही वे जाने।
ड. यहीं नहीं इतनी गिरी हुई व्यवस्था में, इन्हीं शिक्षक बने गुरुओं को शिक्षा जगत का उच्च सम्मान सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का मेडल भी मिल जाता हैं, ये मेडल अथवा पदक कैसे और क्यूं मिलते हैं, इसकी भी गर जांच हो जाये, तो एक पदक घोटाला भी सामने आ जायेगा। जिन शिक्षकों को इस प्रकार के पदक मिलते हैं, जरा उनसे पूछिये कि आपने अपने जीवन में कितने राम, लक्ष्मण, कितने आरुणि, कितने भगत सिंह, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, लोकनायक जयप्रकाश नारायण आदि महापुरुष पैदा किये, तो पता लग जायेगा कि स्थिति क्या हैं। पर एक परंपरा हैं, पदक देनी हैं, इसलिए सभी प्रांतों में बैठे राज्य व केन्द्र के शिक्षाधिकारियों की टीम से मंगवा लिया जाता हैं कि किस शिक्षक को पदक देनी हैं, इसलिए ये शिक्षाधिकारी अपने ठकुरसोहाती विधा को अपनाते हुए, ऐसे ऐसे शिक्षकों का नाम भेज देते हैं, पदक के लिए, कि हमे हंसी आती हैं।
अंततः हमे याद हैं कि राजश्री प्रोडक्शनंस प्राईवेट लिमिटेड वालों ने बहुत पहले एक दोस्ती पिक्चर बनायी थी, जिसमें शिक्षक के कर्तव्य बोध का सफल चित्रण हुआ था। केन्द्र व राज्य सरकार और शिक्षक दिवस पर नाना प्रकार के कार्यक्रमों को आयोजित करनेवाले महानुभावों को चाहिए कि वो फिल्म दोस्ती की एक – एक सीडी इन शिक्षकों को उपलब्ध करायें, और ये शिक्षक उस फिल्म को आद्योपांत देखे, और सोचे कि क्या उनका वो चरित्र हैं जो दोस्ती फिल्म में शिक्षक, प्राचार्य और लिपिक का हैं। गर नहीं तो धिक्कार हैं, क्योंकि शिक्षक महोदय, आपका कुछ नहीं जा रहा हैं, देश मिट्टी में मिल रहा हैं, क्योंकि आप राष्ट्र निर्माता हो, गर राष्ट्र निर्माता ही अपने कर्तव्य बोध से भटक जायेगा तो देश गर्त में जायेगा ही, इसलिए वक्त हैं, देश को गर्त में जाने से बचा लो।