Wednesday, May 12, 2010

पत्रकारिता का सच ---- 2

विद्रोही

जनवरी 95, ये मेरे जीवन का टर्निंग पॉइंट था। इसी महीने हम आकाशवाणी पटना के युववाणी एकांश और पटना से प्रकाशित आर्यावर्त्त अखबार से भी जुड़े। पटना से करीब 12 किलोमीटर दूर है -- दानापुर। दानापुर अनुमंडल का भार मुझ पर था, आर्यावर्त्त से एक भी पैसा नहीं मिलता था, फिर भी इसके लिए बिना पैसे का काम करने का आनंद ही कुछ और था। शायद ये पत्रकारिता का जूनून था। इसी समय बिहार विधान सभा का चुनाव भी आ गया था। नेताओं का भाषण सुनना, उनके समाचार लिखना और फिर साइकिल चलाकर आर्यावर्त्त कार्यालय जाना, फिर दुसरे दिन अपनी ख़बरों को समाचार पत्र में देखना, छप गया तो खुश और नहीं छपा तो दिन भर की खुशियाँ काफूर। इन समाचारों के संकलन में प्रतिदिन 50-60 किलोमीटर साइकिल चलाना पड़ जाता। इसी बीच कई नेता हमारे साइकिल से समाचार संकलन करते देख द्रवित हुए और स्कूटर दिलाने की पेशकश की, पर जमीर बेचकर उनके स्कूटर पर चढने की लालसा कभी नहीं रही। क्योकि मेरी टूटी - फूटी साइकिल कुछ मुझे ज्यादा अच्छी लगती थी, इसी दौरान हमने देखा। कई जगह प्रेस कांफ्रेंस होते, पत्रकारों की खूब आवभगत होती । पत्रकार भी इस आवभगत का खूब मज़ा लेते। कई पत्रकारों को हमने देखा की वे नेताओं से, चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों से समाचार छपवाने के नाम पर पैसे भी वसूलते। कई पत्रकार मित्रों ने तो चुनाव में अच्छी आमदनी भी कर ली थी, और यही से शुरू हुई जमीर बेचने की आदत उन्हें कही की न रखी। जो नेता या प्रत्याशी उन्हें पैसे देते, उनकी नज़रे उन पर देखने लायक होती। आज भी जिनकी नेताओ से पैसे लेने की आदत है, उनके हालात पैसे रहने के बावजूद बदतर है। न तो वे सम्मान और न ही उनकी जिन्दगी ही बेहतर कही जा सकती है।

पत्रकारिता का सच ---- 1

विद्रोही
16 साल की पत्रकारिता में जो हमने देखा, महसूस किया, सोचा। उसे चाहता हूँ लिख डालूँ। बाल्यकाल में जो पत्र-पत्रिकाओं, आकाशवाणी और अन्य माध्यमों से जो पत्रकारों और पत्र-पत्रिकाओं या अन्य श्रवण-दृश्य माध्यमों को जाना है। उससे मुझे ज्यादातर निराशा हाथ लगीं, पर इन्हीं निराशाओं के बीच जब अच्छे एवम समर्पित पत्रकारों को देखता हूँ तो प्रसन्नता होती है। ये जानकर की मानवीय मूल्य अभी मरे नहीं है बल्कि जिन्दा है। इधर कुछ सालो में ब्लॉग लिखने की परम्परा शुरू हुई है। मुझे कुछ लिखने की आदत है। थोडा-बहुत लिख लेता हूँ, मेरे जो परम मित्र है, मेरी रचनाओं को पढ़कर, मेरा तारीफ कर दिया करते है। इसी लिखने की आदत ने मुझे आज ब्लॉग खोलने और उस पर लिखने को विवश कर दिया। चूँकि मुझे ब्लॉग खोलने नहीं आता, मेरे दो छोटे-छोटे बच्चो ने इसे खोलने में मेरी मदद कर दी। अब लिखूंगा। वो चीजे जिसे हमने नजदीक से देखी है। प्रारब्ध कहे या प्रार्थना अथवा प्रयास, पत्रकारिता का नशा कब चढ़ गया, मुझे पता ही नहीं चला।ये बातें है -- नवम्बर 1994 की, पटना में ये बाते जोर-शोर से चल रही थी की, पटना से प्रकाशित आर्यावर्त्त समाचारपत्र का पुन: प्रकाशन होने जा रहा है। इधर 26 जनवरी 1995 को आर्यावर्त्त का प्रकाशन प्रारंभ हो चूका था। इसी दिन दानापुर के प्रतिष्ठित पत्रकार और बी एस कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर लक्ष्मी नारायण प्रसाद श्रीश मुझे पत्रकारों की मीटिंग में, बलदेव उच्च विद्यालय ले गए, उस मीटिंग में ऐसे पत्रकार थे, जिनमे कुछ को पत्रकारिता से लेना-देना नहीं था, बस अपनी रोटी सेकना चाहते थे, या इसी की आड़ में धन कमा कर अपना भविष्य सुरक्षित कर लेना चाहते थे पर कुछ ऐसे भी थे जो समर्पण के भाव में थे। इनमे से कई तो नौकरी में चले गए, कई ने अच्छी आमदनी कर ली है तो कई जिन्दगी के थपेरों के बीच चलते जा रहे है, क्योकि हर नशे की तरह पत्रकारिता भी एक नशा है, जिन्हें ये लग गयी, समझ लीजिये या तो वे महान हो गए नहीं तो बर्बाद होना तय है, फिलहाल बर्बाद होनेवालो की संख्या में इधर ज्यादा इजाफा हुआ है।ऐसे मै ये बता देना चाहता हूँ की मुझे नशा के नाम पर सिर्फ पत्रकारिता ही है। चाहकर भी छोड़ नहीं सकता, कई बार छोड़ने की स्थिति आयी पर इसने हमें छोड़ा नहीं है, 15 साल से अब 16 वे में प्रवेश किया हूँ। श्रव्य से, प्रिंट और प्रिंट से इलेक्ट्रोनिक तक का सफ़र किया है, मुझे ख़ुशी है की इस दौरान हमने वो देखा जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

Tuesday, May 11, 2010

भुत पिशाच निकट नहीं आवे-----विद्रोही

भुत पिशाच निकट नहीं आवे-----विद्रोही

नक्सली कभी निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये
एक फिल्म का सुपर हिट गीत है ------
जो तुमको, हो पसंद, वो ही बात करेंगे.
तुम दिन को कहो रात, तो हम रात कहेंगे.
ये गीत फिलहाल झारखण्ड के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन पर फिट बैठता है. क्योकि जो -जो नक्सली कह रहे है, वे करते चले जा रहे है. उदार इतने है की वे नक्सलियों को अपना भाई-बंधू कहने से नहीं चुकते. ऑपरेशन ग्रीन हंट के सम्बन्ध में जब कोलकाता में मीटिंग होती है तब बीमारी का बहाना बनाकर अपोलो के बेड पर जाकर लेट जाते है. प्रखंड विकास पदाधिकारी का अपहरण होता है और वे इसे छोटो-मोटी घटना कहकर टाल जाते है. नक्सली जब उन्हें प्रेस कांफ्रेंस कहने को करते है तो वे प्रेस कांफ्रेंस तक कर डालते है. वाह देश के विभिन्न राज्यों में ऐसा सुंदर छवि और बुद्धिमान कोई मुख्यमंत्री है. इस सवाल का जवाब शिबू सोरेन ही दे तो अच्छा रहेगा.
झारखण्ड में धालभूमगढ़ के प्रखंड विकास पदाधिकारी का अपहरण, नक्सलियों के मांग के बाद पल पल में नक्सलियों के अनुरूप वरीय पुलिस पदाधिकारी रेजी डुंगडुंग का बदलता बयान, ऑपरेशन कोबरा पर लगी रोक और अंत में यहाँ के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन का बयान साफ़ जाहिर करता है हमारा मुख्यमंत्री नक्सलियों के आगे कितना असहाय हो जाता है. देश में इस राज्य के मुख्यमंत्री ही है जो गुरूजी नाम से जाने जाते है. पर धालभूमगढ़ प्रकरण ने साफ़ कर दिया की यहाँ असली गुरु कौन है. यहा शासन किसकी चलती है.
इस प्रकरण ने बहुत सारे सवाल भी उठाये है. वरीय पुलिस पदाधिकारी रेजी डुंगडुंग का ये कहना की जियां और आस्ति गाव से पकडे गए लोग नक्सली नहीं थे, गर वे नक्सली नहीं थे फिर पुलिस ने उन्हें पकड़ा क्यों, ये तो और शर्मनाक है, आखिर झारखण्ड पुलिस किस ओर कदम बढ़ा रही है, ऐसे में नक्सलियों ने जो सहानुभूति उन ग्रामीणों से बटोरी, उसका लाभ किसे मिलेगा, पुलिस को या नक्सली को. यहाँ के DGP को खुद चिंतन करना चाहिए.
कमाल है सरकार के गठन हुए डेढ़ महीने से ज्यादा हो गए पर सरकार नक्सालियों के इर्द-गिर्द ही घूम रही है या ये भी कह सकते है की नक्सलियों की गणेश-परिक्रमा कर रही है. आखिर ये सरकार काम कब करेगी. धालभूमगढ़ प्रकरण ने सिद्ध कर दिया की यहाँ सरकार नाम की कोई चीज नहीं है, इसलिए आम जनता शिबू के आगे न झुक कर नक्सलियों के आगे झुके तभी उनका कल्याण है अन्यथा नहीं. ये घटना यहाँ के प्रशासनिक अधिकारीयों को भी शायद अहसास करा दी है की उनकी सुरक्षा का भार किस पर है. इसलिए इनका जहाँ पदस्थापना होगा तो ये सरकार की कम और नक्सलियों की ज्यादा सुनेगे. ऐसे भी यहाँ के प्रशासनिक और पुलिसकर्मी अपने क्षेत्र में हनुमान चालीसा कुछ ज्यादा ही पढने लगे है. तुलसी की इस चालीसा में सिर्फ एक ही परिवर्तन हुआ है. भूत-प्रेत की जगह -- नक्सली जुट गया है. जैसे एक पंक्ति है ---- भूत-पिशाच निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये. अब हो गया, नक्सली कभी निकट नहीं आये, महावीर जब नाम सुनाये।

भगवान बचाए ऐसे टीवी वाले बाबाओं से------- विद्रोही

भगवान बचाए ऐसे टीवी वाले बाबाओं से------- विद्रोही

मै पिछले तीन दिनों से सो नहीं पाया हूँ, इतना बेचैन हूँ की पूछिए मत. आखिर बेचैन क्यों हूँ, आप जानना चाहते होंगे. दरअसल बात ये है की दिल्ली से प्रसारित एक राष्ट्रिय चेंनेल ने १३ मार्च की सुबह एक बाबा को अपने स्टूडियों में बुलाया. बाबा स्वयं को सामान्य मनुष्य बता रहे थे, पर स्टूडियों में बैठा एंकर, उन्हें असामान्य बताने पर तुला था और नीचे चल रही पट्टी बाबा को महा मंडलेश्वर बता रही थी, जो अपने आप में विरोधाभास था. बाबा का दावा था की उन्होंने जो भी अब तक कुछ कहा है, इश्वर की कृपा से सच साबित हुई है, ये बाबा ज्यादातर इसी राष्ट्रिय चेंनेल पर आते है और स्वयम को महिमामंडित करने के लिए ऐसी हाव भाव प्रकट करते है, की प्रथमदृष्टया एक सामान्य व्यक्ति सम्मोहन वश इनकी बातो में आकर वो सब करने लगेगा जो ये, बाबा कहते है.
जरा देखिये, ये बाबा १३ मार्च को क्या कह दिया, १३ मार्च की सुबह -------- बाबा बता रहे थे की मार्गी मंगल अब चलेगा, जो मंगल को खुश कर दिया, शनि उससे खुश हो गए. इसी दरम्यान इस बाबा ने एक राशिफल में बताया की कर्क राशिवालों को ८ किलो उड़द की दाल पानी में बहा देना चाहिए. इससे ये राशिवाले आनंदित हो जायेंगे. पता नहीं ऐसा करनेवाले खुश होंगे या नहीं. पर गर ऐसा लोगों ने करना शुरू किया तो आप सोचिये क्या स्थिति होगी, देश की. ऐसे ही इस बार दलहन का उत्पादन देश में प्रभावित हुआ है जिससे दालों के दाम आकाश को छूने लगे. देश की सरकार इस महंगाई को देख दुसरे देशों से दाल का आयात करने लगी फिर भी दाल का दाम घटने का नाम नहीं ले रहा. आज भी लोगों के थालियों से दाल गायब है, ऐसे में देश के ये राष्ट्रिय चेंनेल ऐसे ऐसे बाबाओं के माध्यम से देश का मान बढ़ा रहे है, या भूखमरी को बढ़ावा देने का काम कर रहे है. क्या ऐसे लोगों के खिलाफ कानूनी करवाई नहीं करनी चाहिए जो अनाजों को भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगो को न देकर ये पानी में बहाने का सन्देश दे रहे है.
मै भी ब्रह्मण घर में जन्म लिया हूँ, ज्योतिषी का ज्ञान मुझे भी है. किस पुस्तक में लिखा है की, अकाल और सूखे से प्रभावित तथा गरीबी से जूझ रहे देश के लोगो को खाने-पिने की अनाजो को पानी में बहा देना चाहिए. क्या देश के किसानों के श्रम से पैदा किया गया अनाज पानी में बहाने के लिए है.
क्या इन बाबाओं और पत्रकारों को मालूम नहीं की अपने देश में एक मन्त्र है जो अनाजों के सम्मान को दर्शाता है ---- अन्नेति परम ब्रह्म. क्या इन बाबाओं और पत्रकारों को वो कहानी मालूम नहीं जब कृष्ण ने द्रौपदी को शाक के माध्यम से अन्न के महत्व को समझाया था. लानत है ऐसी सोच पर जो ८ किलो दाल को पानी में बहा देने की बात करते हो. ऐसे ही बाबाओं - पत्रकारों और चैंनलों ने लगता है की इन्होने देश का सत्यानाश करने के लिए ठेका ले रखा है. इनकी जितनी आलोचना की जाये कम है.
आजकल धर्म के मूल स्वरुप को ये चेंनेल बताने का प्रयास नहीं करते, ये वही बात करते है, जिनमे इनका फायदा दिखाई देता हो. इसके लिए देश में तबाही ही क्यों न हो जाये.
मै पूछता हु की ये बाबा और चेंनेल बता सकते है की इस देश में स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष हुए, जिन्होंने भारतीय धर्म का पताका विदेशो में फहराया. श्री स्वामी प्रभुपाद जिन्होंने हरे कृष्ण आन्दोलन से अपने देश के अध्यातम का लोहा मनवाया. इन्होने कितने किलो अनाज नदी में प्रवाहित करने का सन्देश दिया. गर ये सन्देश ऐसे दिए होते तो इस देश का मान विदेशों में बढ़ा होता. ये छोटी सी बात इन चैन्नेलों और पत्रकारों को क्यों समझ में नहीं आती.
ऐसी ही एक घोर आश्चर्य एक दक्षिण के चैनलों में प्रसारित कार्यक्रम में मैंने देखी. एक जयपुर की महिला ने एक बाबा से पूछा की उसकी बेटी आस्ट्रलिया में है, बड़ी संकट में है, बाबा कुछ उपाय बताये, बाबा ने क्या उत्तर दिया जरा सुनिए --- आप अपनी बेटी को कहे की शुद्ध घी के चार लड्डू बना आस्ट्रलिया के एक हथिनी को खिला दे. अब जरा बाबा को कौन बताये की आस्ट्रलिया में हाथी नहीं कंगारू ज्यादा मिलते है, वो भी न तो हाथी और न कंगारू, दोनों में किसी को लड्डू पसंद नहीं है. अरे जिन्हें लड्डू पसंद है उन्हें तुम लड्डू नहीं देते और जिन्हें पसंद नहीं उन्हें लड्डू जबरदस्ती खिलाते हो, ऐसे में तुम किसी जिन्दगी में ख़ुशी नहीं प्राप्त कर सकते, क्योकि असली इश्वर तो तुम्हारे अंदर बैठा है, उसे क्यों नहीं जानने की कोशिश करते. क्यों घटिया स्तर के बाबाओं और चैनलों के चक्कर में पड़कर अपनी जिन्दगी तबाह करने में लगे हो, अभी भी वक्त है संभल जाओ.

पढने का मतलब......!

पढ़ने का मतलब – विद्रोही

हमारे बहुत सारे ऐसे मित्र हैं जिनकी मासिक आमदनी एक लाख से उपर हैं, वे खूब धन कमाना चाहते हैं, जिंदगी की हर खुशियों को पाना चाहते हैं, अपने बच्चों को वो बनाना चाहते हैं, जो वो नहीं बन सकें और इसी बनाने के चक्कर में खुद को नाना प्रकार के अवसादों में ढक ले रहे हैं, क्योंकि अंत में परिणाम वो आ रहा हैं, जिसकी परिकल्पना उन्होंने नहीं की थी।
मैं इन मित्रों में से कई को उदाहरण दिया हूं, वे सुनते हैं, समझते हैं, पर करते वहीं हैं, जो लक्ष्मी जी इनसे करा लेती हैं, क्योंकि ये नहीं समझते कि धन की तीन गतियां हैं – सर्वोच्च गति हैं – दान, मध्यम गति हैं – उपभोग और निकृष्ट गति जो आप चाहे या न चाहे हो ही जाती हैं – नाश।
जरा कोई हमारे मित्रों साथ ही वे लोग जो आज धनपशु बनने के चक्कर में चरित्र को श्रद्धांजलि दे, वे सब कुछ कर रहे हैं, जिससे समाज को खतरा उत्पन्न हो गया हैं, भ्रष्टाचार की सारी सीमाएँ लांघ गये हैं, हमारे कुछ सवालों का जवाब दे सकते हैं।
गांधी के माता – पिता अपने बच्चे का नाम रखा – मोहनदास, पर बेटे ने ऐसी राजनीतिक प्रबंधन की कि बेटा मोहनदास से महात्मा गांधी हो गया, यहीं नहीं जिसने उसे पैदा किया, उस़का भी बाप बन गया राष्ट्रपिता कहलाया। क्यॉ कोई बता सकता हैं कि महात्मा गांधी ने किस शिक्षण संस्थान से राजनीतिक प्रबंधन के गुर सीखे, जिसके कारण उन्होंने मरणोपरांत अपने जन्मदिन पर अतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस तक घोषित करा दिया।
कबीर, जिन्होंने कभी स्याही कलम पकड़ी नहीं और उन्होंने ऐसी साखी लिखी कि उनकी साखी पूरे दूनिया को सीख दे रही हैं। लोग कबीर की लिखी पंक्तियों पर सर्च नहीं रिसर्च कर रहे हैँ और डाक्टरेट की उपाधि ले जा रहे हैं, कमाल हैं आज तो सिर्फ ये रिसर्च कर रहे हैं, क्योंकि सर्च तो पहले ही कबीर कर चुके हैं –
ये कहकर कि –
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय
एकै आखर प्रेम का पढ़ैं सो पंडित होय
रवीन्द्र नाथ ठाकुर, जिन्होंने कभी स्कूल एवं कालेज का मुंह तक नहीं देखा, उनकी गीतांजलि के अंग्रेजी अनुवाद धूम मचाती हैं, और वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं।
आधुनिक प्रमाण की ओर ध्यान दें –
महेन्द्र सिंह धौनी जो आज क्रिकेट जगत में धूम मचा रहे हैं, क्या उनके परिवार में कोई क्रिकेट का एबीसीडी भी जानता था, या आनेवाले समय में क्या खुद वे अपने ही संतान को उस उचाई तक ले जा सकते हैं, जिस उचाई पर वे आज हैं, अरे जब सुनील मनोहर गावस्कर अपने बेटे रोहन को उस उचाई तक नहीं ले जा सके तो और कोई क्या कर सकता हैं।
लालू यादव जो पन्द्रह सालों तक बिहार की कुर्सी से परोक्ष व अपरोक्ष रुप से चिपके रहे, जिन्होंने अँधाधूध पैसे कमाये, वो सब कुछ अपने बेटे बेटियों के लिए कर दिया, जो एक सामान्य मां – बाप कभी नहीं कर सकते, पर क्या लालू ही बताये, जो राजनीतिक उचाईयों उन्होंने छूई क्या उनके संतान भी ऐसी उंचाई छू सकते हैं।
उत्तर होगा -- नहीं
आर्थिक क्षेत्रों की ओर नजर डाले – जिस धीरु भाई अंबानी ने नया कार्यक्षेत्र का शुभारंभ किया, उनके बेटे उस क्षेत्र को नई दिशा जरुर दे रहे हैं, पर वे धीरु भाई अंबानी नहीं बन सकतें, क्योंकि खोज एक अलग चीज हें, और उसे आगे बढ़ाना दूसरी चीज।
परतंत्रता की बेड़ी में पड़े भारतवर्ष में टाटा आयरण एंड स्टील कंपनी को खोलनेवाले जमशेदजी टाटा ने जो करामात उस वक्त दिखाई क्या जमशेदजी टाटा के जैसा, उन्हीं के यहां कोई दूसरा जमशेदजी टाटा बन सका।
वर्तमान राजनीतिक क्षेत्र में देखे – मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी सभी सामान्य वर्ग से आते हैं, राजनीतिक बुलंदियों को छूआ हैं, ये आर्थिक और सामाजिक सम्मान में किसी से भी कम नहीं पर ये भी चाहे कि अपने परिवारवालों को वो चीजें दिला दें जो उन्होंने पाया। असंभव हैं।
क्योंकि वो चीजें पाने के लिए आपको भी औरों से हटकर कुछ विशेष काम करने होंगे और इनमें जो सबसे ज्यादा जरुरी हैं वो हैं – चरित्र, जिसकी सभी ने अब तिलांजलि एक तरह से दे दी हैं। सभी को लगता हैं कि धन कमाओं और इस धन से वे सारी चीजें खरीद लों, जिसकी वे चाहत रखते हैं, पर उन्हें ये मालूम नहीं कि धन से दवा खरीदी जा सकती हैं, पर दुआएं नहीं, धन से भोजन खऱीदा जा सकता हैं और पर भूख को शांत नहीं किया जा सकता, धन से सुख के सारे संसाधन खऱीदे जा सकते हैं, पर सुख नहीं। फिर भी धन कमाने की होड़, और इस होड़ में एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा हैं।
मैं, जिस गांव में पला बढ़ा हूं, उस गांव में दो धनाढ्य थे, जिनके पास धन और जमीन की कोई कमी नहीं थी, पर आज उन्हीं दो धनाढ्यों के बच्चों ने उन संपत्तियों को एक – एक कर बेचना शुरु कर दिया आज के डेट में उनके पास खाने तक को कुछ नहीं, ऐसे में इस प्रकार के धन कमाने से क्या फायदा।
हाल ही में पटना के एक अधिकारी, के यहां छापा पड़ा, जनाब छापे और पकड़ाने के भय से परिवार के साथ पर्व त्योहार भी नहीं मना सकें, बच्चे पापा को खोज रहे थे, पर पापा पता नहीं कहां थे।
समाज का कोई भी क्षेत्र हो गर आप उसमें भाग ले रहे हैं और उसमे सच्चरित्रता का समावेश कर लेते हैं तो आपका जीवन धन्य हो जाता हैं, पर जहां उसमें चारित्रिक पतन का समावेश करते हैं तो सिर्फ आप धनपशु कहलाते हैं, और इसके बाद जो पशु की जिंदगी होती हैं, वो आपकी जिंदगी हो जाती हैं, आखिर आप इस छोटी सी बात को क्यों नहीं समझते।
स्वतंत्रता के पूर्व भारत में शिक्षा का अभाव था पर चरित्रता व ज्ञान की वैशिष्टयता का अभाव नहीं था, पर आज क्या हैं, शिक्षा और संचार क्रांति में भारत जैसे जैसे आगे बढ़ रहा हैं, ठीक वैसे – वैसे चरित्र और ज्ञान की वैशिष्ट्यता का अभाव भी तेजी से बढ़ता चला जा रहा हैं। आज स्कूलों – कालेजों में बच्चें सब कुछ बन रहे हैं, पर आदमी नहीं बन रहे. यहीं आदमी का नहीं बनना भारत जैसे देश के लिए काल बनता चला जा रहा हैं, जो आपस में ही इतनी दूरियां तय कर दे रहा हैं कि कल भाई ही भाई के खिलाफ तलवार निकालकर, भारतीयता को ही नष्ट कर देने को उतावला हो जाये तो इसे अतिश्योक्ति नहीं माना जाना चाहिए

भाजपा को शर्म आनी चाहिए.

भाजपा को शर्म आनी चाहिए। --- विद्रोही

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक राजनीतिक इकाई, पं. दीन दयाल उपाध्याय, डा.श्यामा प्रसाद मुख्रर्जी जैसे महान शख्सियतों की पार्टी, देश में पहले गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री का खिताब पाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की पार्टी, तीन प्रदेशों की जन्मदाता, मूल्यों और सिद्धांतों की बात करनेवाली भाजपा आज झारखंड में क्या कर रही हैं। झामुमो के साथ सत्ता की लालच में चूहे – बिल्ली का खेल, खेल रही हैं।
कथनी और करनी में एक समानता की बात करनेवाली पार्टी अब कथनी और करनी में अंतर रखने का रिकार्ड अपने नाम करने जा रही हैं। जरा देखिये, इस भाजपा को जिसने मूल्यों और सिद्धांतों की झारखंड में कैसे धज्जियां उड़ा रही हैं।
लोकसभा में कटौती प्रस्ताव पर जब वोटिंग की बात आयी, तब सीबीआई के भय और आनेवाले समय में भविष्य को लेकर सशंकित, कांग्रेस के साथ जाने के लिए मन बना चुकी झामुमो ने कांग्रेस के पक्ष में वोटिंग कर दी। कांग्रेस के पक्ष में वोटिंग करना भाजपा को इतना नागवार गूजरा कि उसने झारखंड के शिबू सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी, राज्यपाल से मिलकर समर्थन वापसी का पत्र देने का समय तक मांग डाला, पर जैसे ही झामुमो ने माफी और भाजपा को ही सरकार बनाने का अनुरोध पत्र दे डाला, समर्थन वापसी की बात इस भाजपा ने हवा-हवाई कर दी। भाजपा को लगा, बस अब झारखंड में उसका मुख्यमंत्री होना सुनिश्चित हैं, पर वो भूल गयी कि झामुमो एक ऐसे पार्टी का नाम हैं, जो कब क्या बोलेगा और क्या करेगा, खुद उसके सुप्रीमो तक को पता नहीं होता, जिस पार्टी की सभा और विधायक दल की बैठक कब शुरु होती है और कब खत्म होती हैं, खुद उस पार्टी तक को पता नहीं होता, ये पार्टी कब झूमर और कब सोहर गा दे, खुद झारखंड की जनता को मालूम नहीं होता। तो भला भाजपा की क्या औकात की, झामुमो के अंदर की बात जान लें।
हुआ भी ऐसा ही, एक झामुमो के मंत्री ने हमसे ऑफ दि रिकार्ड बात कही थी, कि विद्रोही जी, आप जान लीजिये, भाजपा को हम इस मुद्दे पर ऐसा नाच नचायेंगे कि वो लोग जानेंगे, भाजपा वाले समझते हैं कि हम महतो-मांझी की पार्टी हैं, राज चलाना क्या जाने, पर हम वो सब जान गये हैं, जिसे लेकर सत्ता चलती हैं, अरे जब बड़े लोग मूल्यों और सिद्धांतों को तिलांजलि देने में एक मिनट तक नहीं देते तो हम भला मूल्यों और सिद्धांतों पर क्यूं चले, क्यूं हमने ही सिर्फ मूल्यों और सिद्धांतों पर चलने का ठेका ले रखा हैं। ये बात तो झारखंड के सभी पार्टियों को सोचना चाहिए। ये बात हैं उस वक्त की जब पहले राउँड की बात कर दिल्ली से झामुमो के नेता विजयी मुद्रा में लौटे थे।
झामुमो जहां इसकी पकड़ हैं, वहां दूसरे नंबर पर भाजपा हैं, कांग्रेस तीसरे नंबर पर हैं, ऐसे में अपने दूसरे नंबर के शत्रू पर विजय पताका फहराते हुए शासन करना झामुमो के लिए कितनी आनन्द देने की बात हैं, इसे समझा जा सकता हैं, क्योंकि झामुमो का मानना हैं कि जितना भाजपा को उसकी औकात बता कर शासन करेंगे, झामुमो प्रदेश में उतना ही मजबूत होगा, पर केन्द्र और प्रदेश में बैठे इन भाजपा नेताओं को ये छोटी सी बात समझ में नहीं आ रही और वे सत्ता की लालच में इतने अंधे हो गये कि उन्हे पता नहीं चल रहा हैं कि राज्य की राजनीतिक अनिश्चितता के इस दौर ने प्रदेश को कहां लाकर खड़ा कर दिया।
दिल्ली और रांची में बैठकों का दौर जारी हैं, एक छोटी सी पार्टी झामुमो ने भाजपा के नीति सिद्धांतों की चूलें हिला दी, पर केन्द के भाजपा नेताओं को इसका भान नहीं हो रहा. भान हो भी तो कैसे, उन्हें पता हैं कि जब भाजपा की सरकार थी, तो उन्हें कितना मजा लिया हैं, झारखंड में शासन नहीं रहने पर उन्हें कितना नुकसान हुआ हैं, ऐसे में कुछ ले – देकर बात बन जाये तो क्या फर्क पड़ता हैं। ऐसे भी झारखंड की जनता ने जो जनादेश दिया था, उसका हश्र तो यहीं होना हैं, इसलिए जो चाहे जो करों अपनी बला से। हमें तो सत्ता चाहिए, चाहे अट्ठाईस महीने की हो या छह महीने की। गर छह महीने की हुई तो उसे पूरे साढ़े चार साल तक करने के लिए फिर राजनीतिक गोटी फिट करेंगे, नहीं तो जितनी की अवधि हैं, उतना तो अपना वारा-न्यारा हैं ही।
कुछ नेता व विधायक कहते हैं कि यहां सीटों की संख्या कम हैं, इसलिए यहां ऐसा हो रहा हैं, गर सीटों की संख्या बढ़ जाये, तो ऐसी स्थिति नहीं रहेंगी, यानी नाच न जाने अंगना टेढ़ा, चरित्र नहीं हैं और सीटे कम होने का बहाना ढूंढने लगे, अरे इसकी कौन सी गारंटी होगी कि सीटे बढ़ जाने पर त्रिशंकु विधानसभा नहीं होगी. यहां सीट से मतलब थोड़े ही हैं, यहां तो नेताओं के चरित्र का संकट हैं, सभी का लक्ष्य एकमात्र कुर्सी पाना और सत्ता पाना हैं, सेवा भाव ही जब हृदय से खत्म हो गया तो फिर पार्टी और सीट का मतलब क्या, राज्य की राजनीतिक हालात देख तो हमारे हृदय से इन भ्रष्ट नेताओं के प्रति कुछ ऐसी ही पंक्तियां निकल रही हैं ------------------
नेता आओं, सत्ता पाओ,
पार्टी का मतभेद भूलाओं,
एकमेव तुम कुर्सी पाओं
पत्नी और पुत्र को लाओ
जनता से जयकार कराओं
और उन्ही की छाती पर,
मूंग दराओं,
नीति विवेक के गहने उतारकर,
सप्त जन्म तुम सफल कराओं
नेता आओ, सत्ता पाओ ----------------------------------

Monday, May 10, 2010

दो किस्म के नेता होते है....!

विद्रोही,
याद करिये – मनोज कुमार की फिल्म – यादगार उसमें एक गाना हैं –
दो किस्म के नेता होते हैं एक देता हैं, एक पाता हैं
एक देश को लूट के खाता हैं एक देश पे जान गंवाता हैं
एक जिंदा रहकर मरता हैं एक मरकर जीवन पाता हैं
एक मरा तो नामों निशां ही नहीं एक यादगार बन जाता हैं
भगवान करें,
मेरे देश के सब नेता ही बन जाये ऐसे,थोड़े से लाल बहादुर हो,थोड़े से हो नेहरु जैसे
राम न करें, मेरे देश को कोई भी ऐसा नेता मिले जो आप भी डूबे, देश भी डूबे, जनता को भी ले डूबे.......
वोट लिया और खिसक गया, जब कुर्सी से चिपक गया, तो फिर उसके बाद !
एकतारा बोले तुन तुन तुन तुन ---------------------------------------
"ये गाना झारखंड के राजनीतिज्ञों पर फिट बैठती हैं। कुछ महीने पहले संसद में गृह मंत्री पी चिदम्बरम ने ठीक ही कहा था कि झारखंडी राजनीतिज्ञों को राज चलाना सीखना चाहिए, क्योंकि इन राजनीतिज्ञों ने जो आज झारखंड के हालात कर दिये हैं, वो शर्मनाक ही नहीं बल्कि असहनीय हैं। ये कैसा चरित्र हैं कि राज्य में भाजपा के साथ और केन्द्र में कांग्रेस के आगे नतमस्तक होना, क्या इससे पता नहीं चलता कि झारखंड में राजनीतिज्ञों की कौन सी पौध शासन कर रही हैं, जिसके पास चरित्र नाम की कोई चीज ही नहीं। क्या पुत्र मोह, राज्य की जन सेवा से भी बड़ी चीज हैं, कि एक मुख्यमंत्री जिसे झारखंड की जनता गुरु जी का विशेषण देती हैं, वह गुरु गुरु न बन कर सामान्य पिता की श्रेणी में आ खड़ा हुआ हैं, ऐसे में मैने कभी इन्हें गुरुजी कहकर पुकारा नहीं, इन्हें शिबू जी कहने में ही मुझे आनन्द आता हैं, क्योंकि शिबू से उपर ये उठ भी नहीं पायेंगे । जरा इनका चरित्र देखिये ----विधानसभा चुनाव के पहले, ये आम सभा में कहा करते थे, कि प्रदेश़ में सूखा नहीं, अकाल पड़ा हैं, वो गर सत्ता में आये, तो वे पूरे प्रदेश को अकालग्रस्त क्षेत्र घोषित करायेंगे, पर इन्होंने सत्ता मिलने के बाद क्या किया, सारी जनता के सामने हैं, अकाल तो दूर सूखाग्रस्त क्षेत्र भी घोषित नहीं करा पाये। यहीं नहीं, सदन के बाहर, ये कहते हैं कि नक्सली हमारे भाई – बंधु हैं, पर सदन के अंदर कहते हैं कि नक्सली राष्ट्रद्रोही हैं, कमाल हैं ये विधानसभा चुनाव जीतने की हिम्मत नहीं जूटा पाते, एक खास जगह-इलाके में ही जीत का दावा करते हैं, पर पूरे प्रदेश की जनता पर पकड़ रखने की बात करते हैं, पुत्र मोह में इतने व्याकुल हो जाते हैं कि हेमंत उनका बेटा, उनके ही सामने उनकी ही बनायी पार्टी को हाईजैक कर लेता हैं, और वे कुछ नहीं कर पाते, क्या ऐसा शख्त झारखंड का मुख्यमंत्री बनने या भाग्य विधाता बनने के लायक हैं। विधानसभा चुनाव संपन्न हो जाने के बाद, ऐसा लगा कि समय ने जिस प्रकार से शिबू को मुख्यमंत्री पद पर लाकर खड़ा किया, ये कुछ करेंगे, पर इन चार महीनों में क्या किया, यहां की जनता के साथ साथ, शिबू को भी मालूम होना चाहिए । अब भाजपा ने इन्हें सत्ता से बाहर खड़ा कर दिया हैं, हो सकता हैं कि कांग्रेस इन्हें फिर सत्ता में ले आये, क्योंकि कांग्रेस का वर्तमान चरित्र व नरसिंहाराव सरकार बचाने में, शिबू और उनके सहयोगियों का चरित्र किसी से छूपा नहीं हैं सभी ने झारखंड का सत्यानाश करने का जैसे संकल्प ले लिया हैं, इसी ओर इनका काम चल रहा हैं, ऐसे में झारखंड की जनता के सपनों का चीरहरण कर रहे, इन राजनीतिज्ञों को कब शर्म आयेगी, समझ में नहीं आ रहा। भगवान से अब प्रार्थना हैं कि झारखंड में जन्मे इन राजनीतिज्ञों को थोड़ी सदबुद्धि दे ताकि ये जनसेवा का भाव लेकर, कुछ झारखंड का भला करें, नहीं तो भूख और गरीबी से जूझ रहे, इस प्रदेश की जनता बर्बाद हो जायेगी, क्योंकि अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य बनता हैं, फिलहाल वर्तमान कैसा है, सबको मालूम हैं, और झाऱखंड बनने के बाद का अतीत भी हमारे सामने हैं, कोई ज्यादा समय नहीं बीता हैं । कुछ सवाल कांग्रेसियों और झाविमो के नेताओं व विधायकों से, भाजपा ने शिबू से समर्थन वापस ले लिया हैं, इस पर आप जरुर खुश होंगे, संभव हैं, आपके हाथों तक सत्ता का हस्तांतरण भी हो जाये, पर क्या आप ऐसी स्थिति में झारखंड को दिशा दें पायेंगे, गर नहीं तो फिर बेमेल समझौते, चरित्रहीन राजनीति को और आगे बढ़ाने पर आमदा क्यों हैं, प्लीज थोड़ा सा शर्म करिये, राजनीतिक परिपक्वता दिखाये, जनहित में, झारखंड हित में कुछ फैसला लीजिये। अच्छा करिये, अपने परिवार, पत्नी और बेटे तक मत सिमटिये, सबके लिये सोचिये, पर आप ऐसा करेंगे, हमें फिलहाल दिखाई नहीं देता, क्योंकि आपके चेहरे भी काफी दागदार हैं।