Sunday, August 29, 2010

इस देश का तो भगवान ही मालिक हैं...!


जब मैं स्कूली शिक्षा ग्रहण कर रहा था, तब मेरे शिक्षक ने बताया था कि अंग्रेज जब भारत में शासन करते थे, तो वे यहां के बेशकीमती सामान अपने देश ले जाया करते थे, साथ ही वे यहां के लघु व कुटीर उद्योगों को नष्ट कर, अपने देश की निर्मित सामग्रियां भारत लाकर बेच दिया करते थे। यहीं नहीं वे यहां की खनिज संपदा को इँग्लैंड ले जाते और इन खनिजों से बनी सामग्रियों को फिर भारत लाकर उंचे दामों पर बेचते, इससे इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था और मजबूत होती जाती, पर भारत और निर्धन होता चला जा रहा था, अंग्रेजों की चिंता अपने देश को येन केन प्रकारेन आगे बढ़ाने की होती जिसको लेकर 15 अगस्त 1947 के पूर्व हमारे देश के नेताओं ने अंग्रेजों से लोहा लिया और देश को स्वतंत्र कराया ताकि भारत स्वयं की नीतियों पर चलकर देश को आत्मनिर्भर और संस्कारित बनवायें। पर........................! आज भारत स्वतंत्र हैं, भारत को आत्मनिर्भर बनाना और संस्कारवान बनाने का जिन पर जिम्मा हैं, वे कर क्या रहे हैं….? इन्होंने अपनी और अपने परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक करने का जिम्मा उठा लिया हैं, और निर्धन देशवासियों को दिया हैं सिर्फ और सिर्फ स्वयं का संपोषित जायकेदार भाषण, और इनके भाषणों का जायकेदार ढंग से छापने और दिखाने का जिम्मा ले रखा हैं, देश के तथाकथित पत्रकारों ने।
हाल ही में एक मेरे पत्रकार मित्र ने देश के एक युवा होनहार नेता संभवतः राहुल गांधी का एक बयान पढ़कर मुझे सुनाया, शायद राहुल गांधी उड़ीसा के लांजीगढ़ में भाषण देते हुए कहा था कि देश में दो तरह के लोग बसते हैं एक जिनके पास सब कुछ हैं और एक वे जिनके पास कुछ भी नहीं। वे यानी कि राहुल गांधी ऐसे ही लोगों का जवाब बनना चाहते हैं जिनके पास कुछ भी नहीं, ताकि दिल्ली में बैठी सरकार, उनकी बात सुन सकें, पर राहुल गांधी को कौन बताये कि खुद राहुल जैसे लोग ही अपनी आमदनी मात्र पांच साल में 414 प्रतिशत बढ़ाकर देश को गर्त में ढकेल देने की मुख्य भूमिका अदा कर रहे होते हैं। क्या राहुल देश के गरीबों को बता सकते हैं कि उन्होंने मात्र पांच साल में अपनी आमदनी 414 प्रतिशत कैसे बढ़ा ली…? गर वे अपनी आमदनी मात्र पांच साल में 414 प्रतिशत बढ़ा सकते हैं तो ये ही पद्धति उन गरीबों को भी क्यों नहीं बता देते ताकि वे भी अपनी आमदनी मात्र पांच साल में 414 प्रतिशत बढ़ा लें ताकि किसी राहुल गांधी को उनकी आवाज बनने की आवश्यकता ही न पड़े। वे खुद ही स्वावलंबी बन जाये, पर राहुल जैसे लोगों को इन्हें स्वावलंबी बनाने से क्या मतलब, इन्हें तो अपना जायकेदार भाषण सुनाने से मतलब हैं ताकि उन्हें अखबारों और अन्य मीडियाकर्मियों से वाहवाही मिल जाये और अपनी छवि धीरे धीरे निखारने का वक्त। शायद राहुल गांधी जैसे नेता जानते हैं कि इस देश के गरीबों और दो जून की रोटी खोजनेवालों की पेट तो यहां सिर्फ राहुल के भाषण सुनकर ही भर जाती हैं और बाकी जो बचता हैं वो दूसरे दिन अखबारों अथवा टीवी पर चलनेवाले उनके फूटेज देखकर प्राप्त हो जाता हैं। ऐसे भी यहां के लोगों को स्वावलंबी बनने का समय कहां हैं, गर ये स्वावलंबी अथवा जिस प्रकार से राहुल गांधी जैसे नेता 414 प्रतिशत आमदनी मात्र पांच साल में कर लेते हैं, वो धंधा ये भी शुरु कर दें तो फिर राहुल की भाषण सुनने में दिलचस्पी कौन लेगा।
जरा देखिये, हमारे देश के नेताओं की हरकतें। दिल्ली में इन्हीं की सरकार हैं, जिसके मंत्री कहते है कि वे अनाज सड़ा देंगे पर गरीबों को निवाला नहीं देंगे। ये इन्हीं की सरकार हैं, जिनके मंत्री पी चिदम्बरम को भगवा कलर में आतंक दिखायी पड़ता हैं, शायद राहुल और उनके चाहनेवाले अथवा उनके पदचिन्हों पर चलने की कसम खानेवालों को ये पता नहीं कि जिस भगवा आंतक की बात कर रहे हैं, वो भगवा हमारे देश के तिरंगा में भी दिखायी पड़ता हैं, जो शौर्य व वीरता का प्रतीक हैं, जिस पर कई गीतकारों ने गीत लिखे हैं, एक गीत तो आज भी भारतीय युवाओं में वीरता की लहर दौड़ा देता हैं, जिसके बोल हैं – मेरा रंग दे वसंती चोला, मेरा रंग दे। ये वासंती रंग भी भगवा का ही प्रतीक हैं क्या कहेंगे। क्या अब रंग भी आंतक से जोड़ा जायेगा। ये हैं कांग्रेसी और इनकी सोच, जिनकी सोच पर हमें तरस आता हैं और ये देश निर्माण की बात करते हैं।
कमाल हैं अपनी आमदनी को बेतहाशा ढंग से बढ़ाने में केवल राहुल गांधी ही नहीं, बल्कि देश के अन्य नेता भी शामिल हैं। ये कांग्रेस, भाजपा, राजद तथा सभी दलों में हैं, जो देश को ताक पर रखकर वो सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं, जो अन्य देशों के नेता, नहीं करते। जो इसी देश में राज करनेवाले अंग्रेजों ने नहीं किया, अंग्रेज ने भले ही भारत को बर्बाद किया पर वे भी अपने देश ब्रिटेन के हित में ही काम करते थे, पर आज तो देश स्वतंत्र हैं फिर हमारे देश के नेताओं का वो त्याग कहा गया, जो आजादी से पहले और आजादी के बाद कुछ वर्षों तक यहां के नेताओं में दिखाई पड़ा करता था। जरा देखिये कितनी निर्लज्जता से इन्होंने अपने वेतन बेसिक 192000 से 600000, दैनिक भत्ता 1000 से 2000, संसदीय क्षेत्र भत्ता 240000 से 540000, कार्यालय भत्ता 240000 से 540000, हवाई यात्रा भत्ता साल में 34 के जगह 50, टेलीफोन 150000 कॉल से 200000 कॉल और पेंशन 8000 से 20000 रुपये प्रतिमाह बढ़ा ली.
ये ही नहीं हमारे देश के किसानों मजदूरों को अपने खेत के उपकरण लेने के लिए बैंक से जो ऋण लेने पड़ते हैं, उसमें उन्हें ब्याज देनी पड़ती हैं पर ये नेता जब बैंक से 400000 रुपये तक ऋण लेंगे तो इन्हें ब्याज देने की जरुरत ही नहीं। क्योंकि ये देश के नेता हैं, सांसद हैं, इनका जीवन हमारे जीवन से अलग हैं, इन्हें भगवान ने भारत में इसलिये भेजा हैं ताकि ये भारतीय जनता की मेहनत का सही सही उपयोग कर सकें और अपने परिवार को परम सुख का आनन्द जीवन भर देते रहे, कमाल हैं, मेरे देश के नेताओं की सोच।
यहीं नहीं जरा इस ओर भी नजर डालिये -----------------
आम जनता चाय पी रही हैं पांच रुपये कप, और ये अपने कैंटीन में पीते हैं एक रुपये कप, भारत की गरीब जनता दो जून की रोटी कमाने में अपना जीवन बर्बाद कर ले रही हैं, महंगाई ने लोगों का जीवन दूभर कर दिया हैं पर जरा देखिये ये माल भोग खा रहे हैं कैसे जरा देखिये – इनकी कैंटीन के हाल और इनके मौज –
चाय – एक रुपये
सूप – साढ़े पांच रुपये
दाल – डेढ़ रुपये
दही चावल – ग्यारह रुपये
वेज पुलाव – आठ रुपये
फिश करी – तेरह रुपये
फिश कर्ड – सत्रह रुपये
चिकन – साढ़े चौबीस रुपये
चपाती – एक रुपये
चावल – दो रुपये
डोसा – चार रुपये
खीर – साढ़े पांच रुपये
थाली – साढ़े बारह रुपये
नान वेज – बाईस रुपये
बिरयानी – साढ़े बीस रुपये, यानी माल महराज के मिर्जा खेले होली। जनता के पैसे -- मौज कर रहे हैं ये नेता, और जनता मरे तो नेता क्या करें, वो तो बनी हैं ही मरने के लिए। गर संसदीय इतिहास उलट कर देखे तो अपने देश में सात प्रतिशत ही सांसद ऐसे हैं जो बहस में हिस्सा लेते हैं। 18 फीसदी तो आजतक संसद में सवाल किया ही नहीं, जबकि 14 लाख रुपये संसद की हर घंटे की कार्यवाही पर खर्च हो जाती हैं। कमाल का हैं ये अपना देश और कमाल के है ये नेता और कमाल की हैं यहां की जनता जो सब कुछ सहे जा रही हैं, कुछ बोलने को तैयार ही नहीं और जब चुनाव आती हैं तो फिर वो ही करती हैं, जो नेता चाहते है। यानी ये जनता कब जगेगी, कुछ कहां नहीं जा सकता। इस देश का तो भगवान ही मालिक हैं।

Tuesday, August 24, 2010

क्या हैं रक्षाबंधन.......?

रक्षाबंधन पर विशेष ------------------
रक्षाबंधन की व्यापकता तो इसके शब्दों में हैं, पर कुछ इतिहासकारों और फिल्मकारों ने इसकी व्यापकता को इतना सीमित कर दिया हैं कि ये सिर्फ भाई और बहनों का त्यौहार बन कर रह गया हैं, क्या सचमुच ये त्योहार भाई बहन का हैं या इसका संबंध मानवीय मूल्यों और राष्ट्र की रक्षा से हैं। आईये हम इसी पर आज चर्चा करते हैं ----------------------
सर्वप्रथम रक्षाबंधन की जो धार्मिक कथा हैं वो इस प्रकार हैं -----------------
भविष्य पुराण में एक प्रसंग हैं एक बार देवताओं और राक्षसों में भयंकर युद्ध हुआ, लगातार बारह वर्षों तक युद्ध करते करते देवताओं के हालत पस्त हो गये, कोई विकल्प न मिलता देख, देवताओं के गुरु वृहस्पति ने देवराज इन्द्र को अपना विचार दिया कि वे युद्ध को रोक दें, पर इन्द्राणी ने कहा कि देवगुरु देवताओं को युद्ध रोकने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि आज श्रावण पूर्णिमा हैं, इसलिए वो इस दिन देवराज इन्द्र को रक्षा सूत्र बांधेगी, जिसके प्रभाव से देवता अवश्य जीतेंगे, और देवलोक की रक्षा हो सकेगी। इस प्रकार देवराज इन्द्र की जीत हुई और देवलोक राक्षसों से सुरक्षित हो गया। ये कथा बताती हैं कि रक्षाबंधन किस भाव और किस रिश्तों का प्रतीक हैं। न तो इन्द्राणी देवराज इन्द्र की बहन थी और न देवराज इन्द्र, इन्द्राणी के भाई तो फिर इसका मकसद क्या था, मकसद केवल एक था देवलोक की रक्षा।
अब उस मंत्र की ओर ध्यान दें, जिस मंत्र को ब्राह्मण समुदाय अपने यजमानों की कलाई पर रक्षासूत्र बांधते हुए कहते हैं।
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।

जिस रक्षा सूत्र से दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने राक्षसराज महाबलशाली बली की सुरक्षा प्रदान की थी, वहीं रक्षा आज तुम्हारे कलाई पर बांधा जा रहा हैं, ये रक्षासूत्र उसी भांति तुम्हारी रक्षा करें। ये मंत्र भी ये बताने के लिए काफी हैं कि ये पर्व किसका हैं, और किस भाव का प्रतीक हैं।
अब वैदिक मंत्र की ओर ध्यान दें, ये भी वहीं कह रहा हैं जो कि पूर्व के श्लोक का भावार्थ हैं -----------------------
ऊं जा बध्नन् दाक्षायणा हिरण्यंशतानीकाय सुमनस्यमानाः।
तन्म आ बध्नामि शतशारदायायुष्मांजरिदष्टर्यथासम्।।

कमाल हैं, इस महान पर्व को केवल भाई बहनों तक सीमित कर देना, इस पर्व की महानता को लघुता में प्रकट करने के समान हैं। जरा खुद बताईये जिस देश में दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती की पूजा शक्ति, धन और विद्या की प्राप्ति के लिए की जाती हो, वो स्त्री वर्ग अपनी रक्षा के लिए पुरुषों से रक्षा की कल्पना कैसे कर सकती हैं। जरा सोचिये, जिस देश में सावित्री अपने पति सत्यवान की प्राण रक्षा के लिए यम से लड़कर अपने पति के प्राण को वापस ले आती हो, उसे भला रक्षा की क्या जरुरत, जिस देश में सीता, रावण की बनी अशोकवाटिका में रहकर अपने सम्मान की रक्षा स्वयं कर लेती हो, जिस देश में अनुसूया अपने सतीत्व के बल पर भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश को बालक बना देती हो, जिस देश में महान वीरांगना लक्ष्मीबाई अकेले अंग्रेजों के दांत खट्टे कर देती हो, भला उस वर्ग को कैसे कोई रक्षा करने का वचन दे सकता हैं, वो तो खुद बलशाली हैं, वो तो केवल हमारे मस्तक पर तिलक लगा दें और शुभाशीष दे दें तो हमारी रक्षा हो जायेगी, हम उसकी रक्षा क्या करें, अतः जरुरत हैं, रक्षाबंधन की महत्ता को समझने की।
आज देश की जो स्थिति हैं, वह अंदर और बाहर दोनों से शक्तिहीन और श्रीहीन होता चला जा रहा हैं, देश के राजनीतिज्ञ इन सबसे अलग अपनी और अपने परिवार की भलाई से कुछ अलग सोचने नहीं हो, ऐसी स्थिति में इस रक्षाबंधन के पर्व की महत्ता और बढ़ जाती हैं, कि देश की रक्षा और संप्रभुता की रक्षा कैसे की जाय, एक तरफ चीन हमारी सीमाओं को छोटा करने में लगा हैं, दूसरी ओर पाकिस्तान और जिसे हमने स्वतंत्र कराया बांगलादेश, वो हमे नीचा दिखाने पर तुला है, ऐसे हालत में हम केवल इस पर्व को भाई बहन का पर्व बनाकर, और फिल्मी गीतों में ढालकर भूला दें, तो ये मूर्खता के सिवा कुछ नहीं, हमारे वेद और उपनिषद यहीं बताते हैं कि रक्षा बंधन का पर्व ये सीख देता हैं कि सोचो कि तुम अपने देश और समाज की रक्षा कैसे करोगे, आज की मौजूदा हालात में, चिंतन करों, देश तुम्हारा, समाज तुम्हारा, और तुम फिल्मी लटकों – झटकों में पड़ें हो ऐसे में ये राम और कृष्ण की भूमि का क्या होगा। क्या तुम्हें देवराज इन्द्र और दैत्यगुरु शुक्राचार्य की कथा नहीं मालूम। गर नहीं मालूम हैं तो अपने पूर्वजों की कथाओं को आज के दिन सुनों।
आज भी धार्मिक कार्यक्रमों में रक्षासूत्र बांधने का प्रचलन हैं, उसका मूल मकसद होता हैं कि आप धर्मानुसार आचरण करते हुए स्वयं की रक्षा करों, क्योंकि
वेद और उपनिषद कहते हैं कि --------------
धर्मों रक्षति रक्षितः अर्थात् जो धर्म की रक्षा करता हैं, धर्म उसकी रक्षा करता हैं, इससे ज्यादा कुछ जानने की आवश्यकता नहीं। धर्म भी व्यापक हैं, उसे समुदाय में मत तौलिये। धर्म एक ही हैं, सत्य आचरण। कहा भी गया हैं – सत्य धारयति धर्मः।

Monday, August 23, 2010

खबरदार झारखंडियों, यहां सिर्फ मेरी मर्जी चलेगी।


अब घर में आपकी बीबी की नहीं, आपकी चलेगी मर्जी। इस विज्ञापन पर हमारे आसपास रहनेवाली कई गृहलक्ष्मियों ने आपत्ति जतायी थी कि भाई साहब, घर में बीबी की मर्जी नहीं चले, आफिस में बॉस की मर्जी नहीं चले, स्कूलों में प्रिंसिपल की मर्जी नहीं चले, राजनीतिक दलों में उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष की मर्जी नहीं चले, देश में प्रधानमंत्री और प्रदेश में मुख्यमंत्री की मर्जी नहीं चले, तो फिर मर्जी चलेगी किसकी…..???
हमारे अगल बगल में रहनेवाले सज्जनवृंद की पत्नियों ने तो अपने पति महोदयों से यहां तक कह दिया कि गर हमारे घर में अपनी मर्जी थोपनेवालों की अखबार आ गयी, तो पति महोदय समझ लीजिए, घर में क्या होगा, क्योंकि आज तक घर में पत्नी की ही मर्जी चली हैं, क्योंकि धर्मशास्त्रों में भी पत्नियों को ही गृहलक्ष्मी कहा गया है, न कि पति को गृहलक्ष्मा। ऐसे भी जो चीजें जहां सुंदर लगती हैं, वहीं ठीक हैं, ज्यादा काबिल बनने के लिए, अपनी मर्जी थोपना कहीं से ठीक नहीं।
क्योंकि काजल जब आंखों में लगे तभी उसे काजल कहते हैं गर वो गालों पर लग जाये तो उसे कालिख ही कहेंगे। पिछले कई महीनों से राजधानी रांची में एक अखबार समूह के विज्ञापनों ने तहलका मचा रखा था, और इस तहलके में बस मर्जी ही मर्जी दिखाई पड़ रही थी, पर असली मर्जी तो 22 अगस्त को दिखाई पड़ गयी, जब रांची के ज्यादातर अखबार हॉकर, अपनी मर्जी थोपनेवालों के शिकार बन गये, आज 23 अगस्त को रांची से प्रकाशित प्रभात खबर, हिन्दुस्तान और दैनिक जागरण ने इस समाचार को प्रथम पृष्ठ पर इसे प्रमुखता से प्रकाशित किया हैं, जिसे पढ़कर निराशा हुई, क्या अब अखबार गुंडों, अपराधियों और बाहुबलियों के रहमोकरम पर चलेंगे, जब ये अखबार समूह के लोग हॉकरों को पीट सकते हैं तो इसकी क्या गारंटी कि कल पाठकों की पिटाई न कर दें, ये कहकर कि आपको ये ही अखबार पढ़ना हैं, नहीं पढ़ोगे तो देख लो, जैसे हॉकरों की पिटाई कर दी है, उसी तरह तुम्हारी भी पिटाई कर देंगे, और इसकी व्यवस्था भी कर देंगे, हर गलियों और चौराहों पर असामाजिक तत्वों को खड़ा कर देंगे, कहेंगे कि देखों कौन – कौन घर हमारे अखबार की जगह दूसरे अखबार ले रहा हैं, और जहां देखे कि किसी ने दूसरी अखबार ली, तब ऐसे हालत में शुरु कर दी उसकी पिटाई, जैसा कि चुनावों में विपक्षी पार्टियां अपने प्रतिद्वंदियों को सबक सिखाने के लिए, उनके वोटरों की पिटाई करवा देती हैं। ऐसा में इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि आज ही के अखबार में संभवतः एक अखबार ने एक फोटो दी हैं, जिसमें पुलिस और हॉकरों की पिटाई करते अपराधियों की जुगलबंदी तक दिखा दी हैं। क्या पुलिस का काम एक अखबार के पक्ष में काम करना हैं या दोषियों को दंड देना या अपराधियों के चंगुल से निरीह जनता को बचाना। गर पुलिस ऐसा नहीं करती तो ऐसे पुलिस को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए, ऐसे भी यहां की जनता झारखंड पुलिस पर कितना विश्वास करती हैं, ये तो यहां की तीन करोड़ जनता बेहतर जानती हैं।
कमाल हैं, इन अखबार समूहों तथा अन्य देश के बड़े बड़े तथाकथित घरानों में काम करनेवाले बड़े बड़े ओहदों पर बैठे लोगों की गर बात करें तो इनके जूबां से देश, समाज, मानव निर्माण की ऐसी बड़ी बड़ी बातें टपकती हैं कि पूछिये मत, जैसे लगता हैं कि बस इनकी आने भर की देर हैं, पूरे प्रदेश का कायाकल्प हो जायेगा। अब झारखंड में भ्रष्टाचार नहीं रहेगा, सभी को भरपेट खाना मिलेगा, कोई समस्या ही नहीं रहेगी, पर सच्चाई इसके उलट ही होता हैं, ये लोग क्यों झारखंड प्रदेश में आ रहे हैं यहां के बुद्धिजीवी और यहां की निरीह जनता खूब समझती हैं, लेकिन क्या करें, वो अपना जूबां बंद रखना चाहती हैं क्योंकि अपराधियों और असामाजिक तत्वों की आड़ में पत्रकारिता का कारोबार चलानेवालों से सामाजिक मर्यादा और मानवीय मूल्यों की अपेक्षा रखना ही मूर्खता हैं।

Sunday, August 22, 2010

इस हमाम में सभी नंगे हैं, जनता भ्रमित न हो, सतर्क रहे...!

संस्कृत में एक श्लोक हैं ---------
शायद देश के नेता व पत्रकार इस श्लोक को नहीं पढ़े होंगे
अधमा: धनम् इच्छन्ति,
धनं मानम् च मध्यमाः।
उतमा: मानम् इच्छन्ति,
मानो हि महतां धनम्।।
अर्थ -- जो दुष्ट होता हैं वो सिर्फ धन की कामना करता हैं, जो मध्यम वर्गीय लोग हैं वे धन और मान दोनों की इच्छा रखते हैं, पर जो सर्वोत्तम व्यक्ति हैं वो धन की कामना नहीं, बल्कि सिर्फ सम्मान की इच्छा रखता हैं, क्योंकि उसके लिये सम्मान ही सर्वोत्तम धन हैं।
क्या कोई बता सकता हैं कि इस देश में जन्मे महात्मा गांधी का स्वनिर्मित घर कहां हैं, कुछ लोग उनके पैतृक निवास जो पोरबंदर में हैं, उसे बतायेंगे, पर सच्चाई ये हैं कि जो दूसरे का घर निर्माण करने में, देश का घर निर्माण करने में लगा हो, भला उसे अपने घर बनाने की फुर्सत कहां हैं। यहीं सवाल भाजपाईयों से क्या वे बता सकते हैं कि एकात्ममानववाद के प्रणेता दीन दयाल उपाध्याय के मरने के समय उनके पास कितना धन था और यहीं सवाल समाजवादी नेताओं से कि वे बताये कि राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के यहीं आदर्श थे क्या?
और यहीं सवाल आज के देश की राजधानी में बैठे व अन्य जगहों पर स्थापित पत्रकारों से क्या वे बता सकते हैं कि इसी देश में गणेश शंकर विद्यार्थी और पड़ारकर ने जन्म लिया, उन्होंने धन के लिए पत्रकारिता की या मान के लिए।
देश की जनता महंगाई से त्रस्त हैं, देश में कहीं अकाल हैं तो कहीं बादल फटने से ऐसी तबाही की पूछिये मत, पर संसद में बैठनेवाले ज्यादातर नेता, जो अपने को जनता का प्रतिनिधि कहते हैं, वे अपने वेतन को लेकर चिंतित हैं, हालांकि उन्हें वेतन की जरुरत ही नहीं क्योंकि उनको वेतन से ज्यादा इतनी भारी भड़कम राशि उनके पूंजीपति साथियों से चंदे और अन्य रुपों में इतनी आसानी से मिल जाती हैं, जिसकी परिकल्पना नहीं की जा सकती, जिसकी जानकारी आम तौर पर जनता को हैं, पर ये अलग हैं कि इस बात को आजकल मीडिया ने जबर्दस्त रुप से उछाला हैं, ये वे मीडिया के लोग हैं, जिनकी भूख ये नेता शांत करते हैं, पेड न्यूज के रुप में, तथा मुंहमांगी मुराद पुरी करके। कैसे करते हैं इस बात की ज्यादा जानकारी लेनी हो तो हरिशंकर परसाई की भेड़ और भेड़िये पढ़िये। जिन लोगों को मीडिया की इस खबर से नेताओं को गाली देने का मन कर रहा होगा, वो जनता ये भी जान ले कि मीडिया में भी बहुत सारे ऐसे पत्रकार मिलेंगे, जो पहले से ही इन नेताओं के आगे जमीर बेच चुके हैं, और वे भी इसी प्रकार से बेतहाशा रकम कमाकर परम सुख का आनन्द ले रहे हैं, ये अलग बात हैं कि इनकी बात जनता के सामने नहीं आती और आयेगी भी कैसे, क्योंकि दिखलाना और बताना इन्हें ही हैं, ये वहीं दिखलायेंगे और बतायेंगे, जो इनके हित में हो। कैसे पत्रकार या मीडिया प्रबंधन के लोग नेताओं से उपकृत होकर राज्यसभा में पहुंच रहे हैं, परम सुख का आनन्द ले रहे हैं, जनता सब जानती हैं, इसलिए इस प्रकार की खबरों से वो उद्वेलित नहीं होती, जितना की 1977 और 1977 के पहले तक उद्वेलित होती थी, क्योंकि जनता जानती हैं कि इस हमाम में सभी नंगे हैं, बस आज मन आ गया वे नेताओं को अपमानित करनेवाले शब्द लेकर आ गये हैं, और जब नेताओं की बारी आयेगी तो वे पत्रकारों को भी जो करना होगा, साम दाम दंड भेद करके समझा देंगे, पत्रकार चूंकि बुद्धिजीवी होते हैं, जल्द ही समझ जायेंगे, गर नहीं समझेंगे तो प्रबंधन और उनके मालिक तो, उनके हाथ में हैं ही। अब जरा लालू प्रसाद को देख लीजिये, ये तो आज के नेता थोड़े ही हैं, ये अपने बयानों और अन्य कारनामों से काफी लोकप्रिय रहे हैं, ऐसे में नेताओं के वेतन की बात में कैसे चुप रहेंगे, इसलिए शुरु हो गये और चूंकि इसमें सभी सांसदों को फायदा हैं, इसलिए क्या वामपंथ और क्या दक्षिणपंथ और क्या कांग्रेसी सभी – मिले सुर मेरा तुम्हारा तो सुर बने हमारा गीत सस्वर गाने में लगे हैं, इसलिए इस पर कुछ भी बोलना या लिखना, हमे लगता है कि बेकार हैं। नेताओं को वेतन की भूख जगी हैं। इस भूख में सभी सांसद और विधायक शामिल हैं, ये अलग बात हैं कि इस मुद्दे पर खुलकर वे लालू की भाषा नहीं बोल रहे पर चुपके – चुपके वे लालू के सुर में सुर अवश्य मिला रहे हैं, याद करिये जो काम इस साल बजट सत्र के दौरान झारखंड विधानसभा में राजद के देवघर विधायक सुरेश पासवान ने किया, वहीं काम इन्हीं की पार्टी के सुप्रीमो लालू यादव ने संसद में किया, इनका कहना हैं कि सांसदों का वेतन बहुत ही कम हैं, वे जनसेवक हैं, इसलिए फिलहाल जो वेतन उन्हें मिल रहा हैं, वो बहुत ही कम हैं, इसे 16 हजार से बढ़ाकर 80,001 रुपये कर देना चाहिए, इनका ये भी कहना हैं कि उन्हें सचिव स्तर के अधिकारी से भी बढ़ा हुआ वेतन चाहिए क्योंकि जो सांसद होता हैं वो प्रोटोकाल के अनुसार इससे भी बड़ा होता हैं। जबकि लोकतंत्र में जनता का मत ही देखा जाता हैं, सांसदों के वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर गर आम जनता की राय ली जाये तो 90 प्रतिशत से भी ज्यादा जनता, सांसदों के वेतन बढ़ाये जाने के खिलाफ हैं, पर इन नेताओं को जनता की बात कानों तक नहीं पहुंच रही और वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर फिलहाल वे सब एक हैं।
एक ईमानदार भारतीय नागरिक राजकीय अथवा केन्द्रीय सेवा में काम करते करते अपना जीवन बिता देता हैं पर उसकी आमदनी पांच सालों में तीन सौ प्रतिशत नहीं बढ़ती, पर हमारे देश के नेता मात्र पांच सालों में ही अपनी आमदनी तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा बढ़ा लेते हैं, वो भी महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार वल्लभ भाई पटेल, पं. दीन दयाल उपाध्याय, राम मनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण के अनुयायी होने का दंभ भरनेवाले नेता। कांग्रेस जो बापू का नाम लेते नहीं अघाती, सबसे पहले उनके नेता के आदर्शों को देखे ---2004 में कांग्रेसी सांसदों की वस्तुस्थिति या आमदनी -----------------
राहुल गांधी --- 4,527,880 रुपये
कमल नाथ --- 51,839,379 रुपये
सचिन पायलट --- 2,51,19000 रुपये
मणि शंकर अय्यर --- 19,391,699 रुपये
और इन्हीं सांसदों की आमदनी अप्रत्याशित रुप से मात्र पांच सालों यानी 2009 में इतनी बढ़ गयी कि पूछिये मत --------------
राहुल गांधी --- 23,274,706 रुपये यानी 414 प्रतिशत
कमल नाथ --- 141,770,037 रुपये यानी 173 प्रतिशत
सचिन पायलट --- 46,489,558 रुपये यानी 1746 प्रतिशत
मणि शंकर अय्यर --- 72,014,689 रुपये यानी 271 प्रतिशत बढ़ गयी
अब जरा अपने को समाजवादी, एकात्ममानववादी तथा किसानों व मजदूरों के हितैषी कहनेवाले दीनदयाल उपाध्याय, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण के सिद्धांतों पर चलने का दंभ भरनेवाले नेताओं के आमदनी पर एक नजर डालिये ---------------------------
2004 में इनकी आमदनी
लाल कृष्ण आडवाणी --- 13,042,443 रुपये
लालू प्रसाद यादव --- 86,69,342 रुपये
अखिलेश यादव --- 23,142,705 रुपये
अजीत सिंह ---- 13,423,683 रुपये
राम विलास पासवान ---- 8,332,433 रुपये
और इन्हीं सांसदों की 2009 की स्थिति देखिये ------------
लाल कृष्ण आडवाणी --- 35,543,172 रुपये यानी 172 प्रतिशत
लालू प्रसाद यादव --- 3,17,0269 रुपये यानी 266 प्रतिशत
अखिलेश यादव --- 48,582,202 रुपये यानी 110 प्रतिशत
अजीत सिंह ---- 58,232,462 रुपये यानी 334 प्रतिशत
राम विलास पासवान ----11,838,791 रुपये यानी 42 प्रतिशत बढ़ गयी।
कमाल हैं अभी तक ये 16 हजार मासिक वेतन उठा रहे थे, ये जनप्रतिनिधि हैं, इनका कोई दूसरा काम भी नहीं हैं, तो ये नेता बताये कि इतने रुपये कहां से इनके पास आ गये, कैसे इनकी आमदनी तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा केवल पांच वर्षों में बढ़ गयी, क्या इन्हें कुबेर का खजाना मिल गया, अथवा अलादीन का चिराग। गर अलादीन का चिराग अथवा कुबेर का खजाना इन्हें राजनीति के द्वारा मिल जाता हैं तो इसका फायदा आम जनता को क्यों नहीं मिल जाता। आम जनता भी तो अलादीन के चिराग या कुबेर के खजाने से कुछ प्राप्त करें। इस देश की विडम्बना हैं कि आजादी के तुरंत बाद महात्मा गांधी और पटेल जैसे नेता ज्यादा दिनों तक नहीं रहे, जो रहे भी उनकी इन नेताओं ने कुछ मानी नहीं, उनके आदर्शों पर चलने से इनकार कर दिया। ऐसे में हरिशंकर परसाई की कहानी भेड़ और भेड़िये के तर्ज पर चल रही इस व्यवस्था पर अब ज्यादा कुछ कहना नहीं हैं, क्योंकि जनता अंग्रेजों के समय भी मर रही थी, आज भी मर रही हैं, उसके पास कोई विकल्प ही नहीं हैं क्योंकि नेता तो पैदा हुए ही हैं, सुख भोगने के लिए और आम जनता पैदा ही ली हैं, रोटी की तलाश में दर दर भटकने के लिए।

Sunday, August 15, 2010

आप माने या न माने, पर ये सच हैं --------------------------



आप माने या न माने, पर ये सच हैं ----------
आजादी के पहले --------
. भारत परतंत्र था पर भारतीय मन से परतंत्र नहीं थे, उनकी सोच परतंत्र नहीं थी, अपनी आध्यात्मिक और राष्ट्रवाद की परिकल्पनाओं से यहां के लोग ओतप्रोत थे, अंग्रेजी सत्ता को इसका आभास था, तभी लार्ड मैकाले ने इस देश की सार्वभौमिकता और यहां के लोगों की मानसिकता को तोड़ने के लिए ऐसी शिक्षा पद्धति निकाली कि यहां के लोग अंदर से टूट जाये और अंग्रेजी मानसिकता को श्रेष्ठ समझ, अपनी संस्कृति से नफरत करने लगे, फिर भी अंग्रेज भारतीयों को मन से गुलाम बनाने में असफल रहे।
. पूरा देश चरित्रवान था, खासकर भारतीय राजनीतिज्ञों का जीवन आदर्शों से भरा रहता था, लोग उनकी बातों को ध्यान से सुनते और अपनाने की कोशिश करते।
. यहां की युवा पीढ़ी भी, देश को नयी दिशा दे रही थी, साथ ही अपने चरित्र पर ध्यान देती थी, अपने देश के पूर्वजों के सम्मान पर कोई आंच नहीं आये, इसका ध्यान रहता था, इनके लिए एक ही लक्ष्य था देश के लिए जीना और देश के लिए मरना।
. सभी का एक ही लक्ष्य था, कि भारत स्वतंत्र हो।
. भारत अखंड था, आज का पाकिस्तान, बांगलादेश, चीन द्वारा बलपूर्वक और धूर्ततापूर्ण तरीके से भारत की हड़पी गयी जमीन, सभी भारत के नक्शे में नजर आते थे, भारत का मानचित्र भव्य दीखा करता था।
. भारतीय गरीब थे, पर भारत के उपर कर्ज नहीं था।
. परतंत्र होने के बावजूद, देश की आध्यात्मिक शक्ति का लोहा विदेशी माना करते थे, जैसे स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो धर्म सम्मेलन में भारतीय धर्म का पताका फहराया, और बताया कि भारत क्या हैं।
. देश का ग्राम और कुटीर उद्योग बहुत ही मजबूत था, अंग्रेजों द्वारा इस उद्योग को सर्वनाश के कगार पर लाने के बावजूद स्वदेशी आंदोलन ने इनको नयी दिशा दी थी।
आजादी के बाद --------------------
. भारत स्वतंत्र हुआ, पर लार्ड मैकाले की जीत भी हुई, कांग्रेस ने सत्ता संभाला और मैकाले की शिक्षा पद्धति को जन जन तक पहुंचाने की कोशिश शुरु हुई, देश में जो काम अंग्रेज नहीं कर सके, वो काम यहां की कांग्रेसी सरकार ने शुरु किया, लोग भारत और भारतीय संस्कृति से दूर होते चले गये और भारतीय मन पूरी तरह से परतंत्र हो गया।
. परतंत्र भारत में जहां सभी चरित्रवान थे, आजादी के बाद चरित्रवानों का टोटा पड़ गया, आप किसी भी क्षेत्र में जाये चरित्रहीनों की संख्या सर्वाधिक हैं, ज्यादातर लोग भ्रष्टाचार में डूबे हैं, और अपने हिस्से का भारत लूट लेना चाहते हैं, जो नहीं लूट रहे, उन्हें मूर्ख समझा जाता हैं।
. आज की युवा पीढ़ी, अब देश और समाज तथा परिवार के लिए भी नहीं सोचती, उसे सिर्फ अपने लिए धन कमाना और ऐश करने से मतलब हैं, इनके लिए देश व समाज कोई मायने नहीं रखता, इनके लिए तो परिवार भी कोई मायने नहीं रखता, सेल्फमेड जिंदगी जीने में ये ज्यादा आनन्द अनुभव करते हैं।
. आज भारत को कहां ले जाना हैं, कोई लक्ष्य ही नहीं हैं, भारत को कैसा और क्या बनाना हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं, सभी नौकरी कर रहे हैं चाहे वो राजा हो या प्रजा। नौकरी करने के क्रम में, सभी अपने बेटे-बेटियों के लिए, मरते दम तक कुछ ऐसा कर देना चाहते हैं, ताकि सात पुश्त तक गर नौकरी न भी मिले तो ये आराम से जिंदगी गुजार सकें। उसका अनेक उदाहरण हैं, सुबह होते ही, भारत की अखबारें ऐसी खबरों से पटी होती हैं। आज के नेता तो अपनी पत्नी और बच्चों के सिवा दूसरा कुछ सोचते नहीं, आज किसी पार्टी में कल किसी और पार्टी में, सुबह का नाश्ता किसी और पार्टी में दोपहर का भोजन किसी और पार्टी में, ये इनका चरित्र हो गया हैं, ऐसे में समझा जा सकता हैं कि ये देश के प्रति कितने वफादार हैं, अब तो शायद ही कोई ऐसा नेता हैं जो किसी भ्रष्टाचार के दलदल में न फंसा हो, ज्यादातर इस भ्रष्टाचाररुपी गंगोत्री में डूबकी लगा चूके हैं और कुछ लगाने के चक्कर में हैं।
. आज भारत खंडित हैं, आजादी के समय ही भारत दो टुकड़ें में बंट गया था, बाद में चीन और पाकिस्तान ने भी भारत के हजारों वर्ग किलोमीटर भूभाग पर कब्जा कर बैठा. पर किसी की हिम्मत नहीं कि इन हजारों वर्ग किलोमीटर हड़पी गयी जमीन को पुनः भारत में मिला लें।
. बहुत सारे भारतीय अब अमीर बन गये हैं, पर भारत के उपर विदेशियों का इतना कर्ज हैं कि भारत सरकार को बजट का बहुतेरे हिस्सा तो ब्याज देने में खत्म हो जाता हैं।
. स्वतंत्र होने के बाद देश का मान हर क्षेत्र में घटा हैं, हम विश्व कप फुटबाल में भाग लेने के लायक नहीं हैं, हमारे खिलाड़ी किसी भी खेल में गर कुछ जीतते हैं तो ये सरकार की देन नहीं, बल्कि उनकी अपनी मेहनत का फल होता हैं, जिस बांगलादेश को हमने आजाद कराया, वो हमारे लिए काल बन गया हैं, उसके आतंकवादी पूरे देश में फैलकर भारत के अमन चैन के लिए खतरा बन गये हैं, पूर्वोत्तर भारत तो बांगलादेशियों से पट गया हैं, और ये अब उत्तर की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं, और हमारी सरकार वोट बैंक की खातिर, आंख मूंद कर बैठी हैं, एक तो अपनी जनसंख्या और उपर से बांगलादेश की जनसंख्या का दबाव पूरे देश के लिए सरदर्द बन गयी हैं, पर इस पर भी यहां के नेता राजनीति करने से बाज नहीं आते, जबकि दूसरे देश में, ऐसा हैं ही नहीं, गर वहां पता लग जाये कि विदेशियों की बड़ी फौज उनके देश में आ गयी हैं, तो उसके साथ उनके द्वारा ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जाती हैं कि बाद में उस देश में आने पर, वहां की जनता दस बार सोचने पर मजबूर हो जाती हैं।
. देश का लघु और कुटीर उद्योग पूरी तरह से बर्बाद हो चुका हैं, इसके जगह पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपना कब्जा जमा लिया हैं और देश की आर्थिक स्थिति पूरी तरह से गिरवी हो गयी हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि देश आजादी के बाद बहुत तरक्की किया हैं, मैं बता दूं कि गर ये देश स्वतंत्र नहीं होता, अंग्रेजों के अधीन रहता तब भी तरक्की करता, क्योंकि तरक्की किसी समय का मोहताज नहीं होता। क्या अंग्रेजों के समय डाक व्यवस्था, रेल परिवहन, दूरभाष, आदि जमीन पर नहीं उतरे थे क्या, क्या ये विकास नहीं था, विकास का मतलब कम्प्यूटर क्रांति, सूचना क्रांति होती हैं क्या, विकास का मतलब होता हैं, आंतरिक सोच और सम्मान के साथ बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक भारतीयों को बेहतर जिंदगी प्रदान करना, पर ये क्या आजादी के बाद संभव हुआ हैं।
क्या ये सही नहीं कि देश पर कारपोरेट जगत ने कब्जा जमा लिया हैं, और हमारे नेता इन कारपोरेट जगत की कठपुतली बन कर भरतनाट्यम कर रहे हैं, जमकर लूट मचा रखी हैं, एक बार विधायक अथवा सांसद बने नहीं कि जिंदगी की सारी सुख अपने कदमों पर लाकर खड़ा कर देने की चाहत, इन्होंने बढ़ा रखी हैं। क्या ये सही नहीं हैं कि एक तरफ गरीब जनता चालीस रुपये किलो चावल खरीदने पर मजबूर हैं, पर हमारे नेता संसद भवन और विधानसभा की कैंटिनों में भारतीयो के खून पसीने की कमाई को मुफ्त में उड़ाते चले जा रहे हैं। जरा खुद देखिये आजादी के पहले के नेताओं की जिंदगी और आजादी के बाद के नेताओं की जिंदगी पता लग जायेगा कि इनकी सोच क्या हैं और ये देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं।
आज चीन पूरे देश के लिए खतरा बनता जा रहा हैं, वो पूरे भूभाग को घेर रखा हैं, पर हमारे नेता को इसकी कोई चिंता नहीं।
इन सारी सच्चाईयों के बावजूद भी, भारी गड़बड़ियों के बावजूद भी गर्व कीजिये, क्योंकि आज भारतीय स्वतंत्रता दिवस का 64 वां दिवस हैं। इन बातों पर, पर याद रखिये, इसमें हमारे नेताओं का हाथ नहीं, बल्कि उन भारतीयों को हाथ हैं, जो तन मन धन से अभी भी देश को एक नयी पहचान दिलाना चाहते हैं ------------------------
आजादी के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारतीय चरित्र को सम्मान दिया, महात्मा गांधी के जन्म दिन को अतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस घोषित किया।
आजादी के बाद भारत ने चार युद्ध झेले और इन चारों युद्धों में भारतीय सेना ने भारत की लाज रखी, देश के सम्मान पर आंच आने नहीं दिया।
भारतीय किसानों ने कृषि में भारत को आत्मनिर्भर बनाया।
भारतीयों वैज्ञानिकों की नयी पीढ़ी ने संचार क्रांति और अंतरिक्ष कार्यक्रमों में भारत को नयी पहचान दिलायी।
विश्व का सर्वश्रेष्ठ और महान लोकतंत्र जहां एक वोट से सरकार गिर जाती हैं, फिर जनता ही चूनती हैं, लेकिन पड़ोसी देश पाकिस्तान में जनता सरकार बनाती हैं, पर जनता सरकार गिराती नहीं, वहां इसका जिम्मा सेना संभालती हैं।
पूरे विश्व में भारतीय प्रतिभाओं की धाक, अमरीका, इँगलैंड और कई देशों में भारतीयों ने भारत का मान बढ़ाया।
देश के संतों ने विदेशों में जाकर भारतीय धर्म और संस्कृति का ऐसा पताका फहराया कि आज विदेशियों में भारतीय धर्म के प्रति आदर और सम्मान बढ़ता जा रहा हैं, हरे राम हरे कृष्ण आंदोलन के प्रणेता अंतर्राष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ के संस्थापक भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद जी, भारतीय योग को विदेशों में फैलानेवाले स्वामी योगानंद जी जैसे संत इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

स्वतंत्रता के मायने...


भारतीय स्वतंत्रता दिवस की धूम हैं, पर स्वतंत्रता के क्या मायने हैं, शायद हम आज तक सीख नहीं पाये हैं और न ही सीखने की कोशिश की। हमारी केन्द्र और राज्य की सरकार का भी ध्यान इस ओर नहीं गया। जो काम अंग्रेज अपनी शासन के दौरान नहीं कर सकें, आजादी के बाद उन अंग्रेजों के सपनों को हमने अपने हाथों से पूरा करने का, ऐसा लगता हैं कि हमने मन बना लिया हैं। हमें आज की परिस्थितियों को देख लगता हैं कि गर अंग्रेज नहीं होते, तो हम शायद सभ्य भी नहीं बन पाते, क्योंकि आज भारतीयों में होड़ लगी हैं कि कौन सर्वाधिक भोगवादी प्रवृत्तियों को अपनाने में सबसे आगे हैं।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय हमारे नेता व जनता दोनों इस बातों को लेकर सजग थे कि वे किसी भी हालात में विदेशी वस्तुओं को स्वीकार नहीं करेंगे, पर आज क्या हैं, खुद सरकार ही भारत को विदेशी वस्तुओं का बाजार बना दी हैं और जनता इसमें डूबकी लगाते जा रही हैं, आज हमारा पड़ोसी चीन, पूरे भारत में अपनी वस्तुओं को ठेल रखा हैं, इन घटिया चीनी वस्तुओं को भारतीय खरीद कर स्वयं को धन्य धन्य कर रहे हैं, और भारतीय लघु उद्योग दम तोड़ता चला जा रहा हैं। शायद आज की पीढ़ी को पता नहीं या बताने की कोशिश नहीं की गयी कि आखिर पूर्व में अंग्रेजों ने भारत को अपना उपनिवेश क्यों बनाया।
इंगलैंड में औद्योगिक क्रांति होने के बाद अंग्रेजों को एक बाजार की जरुरत थी, जहां वे अपने सामानों को आराम से बेच सकें, और इसके लिए जरुरत थी, दूसरे देशों को अपने हाथों में लेने की, हमारी अंदरुनी कमजोरी, अलगाववाद की प्रवृत्ति का उन्होंने फायदा उठाया और एक एक कर रियासतों को उन्होंने अपने कब्जे में ले लिया, पर जैसे ही हमारे नेताओं को इसका आभास हुआ, उन्होंने जनता तक अपनी बात पहुंचायी और देश स्वतंत्र हुआ, लेकिन उसके बाद की स्थिति क्या हैं। जिस गांधी ने ग्राम स्वराज्य की बात कहीं थी, लघु कुटीर उद्योग के माध्यम से देश को नयी दिशा देने की बात कहीं थी, एक बहुत बड़ी जनसंख्या को इसके द्वारा ही रोजगार देकर आत्मनिर्भर बनाया जा सकता था। आजादी के बाद महात्मा गांधी के इन सपनों को खुद कांग्रेस ने ही हत्या कर दी और भारत को पश्चिमी ढर्रें पर ले चलने की ठान ली। उसके क्या परिणाम हुए, जरा खुद देखिये भारत की क्या स्थिति हैं, दस प्रतिशत लोग अमीर बन गये और 90 प्रतिशत लोग इन दस प्रतिशत लोगों के आगे हाथ फैलाकर भीख मांगने को विवश हैं।
देश की संसद पर करोड़पतियों और कारपोरेट जगत् के लोगों ने कब्जा जमा लिया हैं, जो विदेशियों के आगे कठपुतली बने हुए हैं। चीन हमारे हजारों वर्ग मील भू –भाग को कब्जा जमा कर बैठा हैं, बांगलादेश जिसे हमने ही पैदा किया, उसके आतंकी हमारे देश के सभी भागों में तरह तरह के हथकंडे अपनाकर हमे तबाह कर रहे हैं, बर्मा, नेपाल, मालदीव, श्रीलंका जैसे देश हमारी बात मानने को तैयार नहीं है, बल्कि चीन से इनकी दोस्ती कुछ ज्यादा ही कारगर हो रही हैं, पाकिस्तान की तो बात ही छोड़ दीजिये, इनकी तो पैदाइश ही भारत की छाती पर मूंग दलने के लिए हुई हैं, इसलिए इनसे दोस्ती की बात ही बेमानी हैं, या सुधरेंगे, कहना मुश्किल हैं।
पूरा देश भ्रष्टाचारियों के कब्जे में हैं, खेत-खलिहानों, कल – कारखानों में काम करनेवाले खेतिहर मजदूरों की फटेहाल जिंदगी पर किसी का ध्यान नहीं हैं, पर अपना पेट भरने के लिए सांसदों और विधायकों की टोली पांच गुणा से भी अधिक वेतन बढ़ाने को तैयार हैं। देश की जनता पर इसका अतिरिक्त बोझ बढ़ता हैं तो इनकी बला से। लोकतंत्र के चौथा स्तंभ कहेजाने वाले मीडिया का भी बूरा हाल हैं, वे राजनीतिज्ञों के चंवर डूलाने और उनकी चाटुकारिता में लगे हैं. ऐसे में देश का क्या हाल होगा, समझा जा सकता हैं।
देश की स्थिति ये हैं कि चुनाव के वक्त अपनी आर्थिक स्थिति को दर्शानेवाले व्यक्ति ये कहता हैं कि उसके पास मात्र 15 लाख की चल अचल संपत्ति हैं, विधायक बनते ही, बंदर की तरह उछलकूद मचाते हुए, जब मंत्री बन जाता हैं तो इसी दौरान अपनी बेटी की शादी में केवल सजावट में चार करोड़ रुपये से अधिक खर्च कर बैठता हैं, आखिर ये सब कैसे हो जाता हैं। कोई व्यक्ति विधायक और सांसद बनते ही, इतना धनाढ्य कैसे हो जाता हैं क्या उसे कूबेर के घर नौकरी लग जाती हैं अथवा उसे अलादीन का चिराग मिल जाता हैं। सच्चाई ये हैं कि जब कोई व्यक्ति अपना चरित्र ही बेच दें तो उसे क्या कहेंगे। इन्हें गांधी और शास्त्री बनना नहीं हैं, इन्हें तो पेटू बनना हैं, इसलिए पेटू बनते जा रहे हैं और अपने पेट में देश की करोड़ों जनता का धन जमा करते जा रहे हैं पर शायद इन्हें नहीं पता कि कबीर ने इन्हीं जैसे लोगों के बारे में लिखा हैं कि -------
निर्बल को न सताईये, जाकी मोटी हाय
मरे मृग के छाल से लौह भस्म हो जाय।।
पर मैं सोचता हूं कि शायद अब कबीर की ये पंक्ति भी फेल हो जा रही हैं क्योंकि आजादी के पूर्व में किसी अंग्रेज को न्यायालय के द्वारा सजा मिली हो, हमने नहीं देखा और न सुना। जिस अंग्रेज जनरल डायर ने सन् 1919 में जालियावाला बाग हत्याकांड कराया, वो अंग्रेज को भी सजा नहीं मिली, ये अलग बात हैं कि उसे उसकी सजा देश के एक युवा उधम सिंह ने इंग्लैंड जाकर, दी। पर क्या कोई बता सकता है कि आजादी के बाद किस न्यायालय ने यहां के किसी भी राजनीतिज्ञ को सजा दी, हो और वो सजा मुकर्रर हो जाने के बाद किसी राजनीतिज्ञ ने अपनी पूरा सजा जेल में काटी हो। अरे जनाब, यहां तो न्यायालय भी उसे सजा देती हैं जिनकी कहीं कोई औकात नहीं हैं। ऐसे भी गोस्वामी तुलसीदास ने भी श्रीरामचरितमानस में एक तरह से कह ही दिया हैं कि ---
समरथ के नहि दोषु गोसाई
सामर्थ्यवानों के दोष नहीं देखे जाते, शायद इसी ढरें पर अपना देश चल रहा हैं, और अपने ऋषियों और मणीषियों को मानमर्दन कर गौरवान्वित हो रहा हैं। हम अब ज्यादा कुछ नहीं कहेंगें। हाल ही में चीन ने अपने यहां ओलपिंक कराया और दक्षिण अफ्रीका ने अपने यहां फुटबाल मैच कराये, दोनों ने अपने देश का मान बढ़ाया, अपने यहां राष्ट्रमंडल खेल होनेवाले हैं, और अपने देश का सम्मान किस प्रकार यहां के राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकार, दूसरे देशों के सामने उछाल रहे हैं, इस खेल में किस प्रकार भ्रष्टाचार का बोलबाला हैं, कैसे भारत की नाक कट रही हैं, शायद हम भारतीयों को नहीं हैं, शायद हमने स्वीकार कर लिया हैं कि हमारी नियति ही यहीं हैं, कि हम नहीं सुधरेंगे। पूर्व में जो हजारों वर्षों तक गुलाम रहने की प्रवृत्ति हमारी हैं, उससे कभी छुटकारा नहीं पायेंगे, क्योंकि हमारी जिंदगी क्या हैं, जब तक रहो मस्ती में रहो, खाओ-पीओ मौज करों, मरने के बाद कोई देखने थोड़े ही आ रहा हैं, मूर्ख हैं वे जो देश और समाज के लिए सोचते हैं, हमारी तो पैदाईश सिर्फ राजभोगने के लिए हुई हैं, चाहे गुलामी का मार्ग ही क्यों न हो।

Monday, August 9, 2010

लो आया मौसम दल बदलने का......................... !


बिहार विधान सभा के चुनाव की विधिवत् घोषणा अब तक नहीं हुई, लेकिन विभिन्न पार्टियों के नेता अब दल बदलने को लेकर उत्सुक हैं, कोई दल बदल चुका हैं, कोई दल बदलने की तैयारी में हैं और इस दल बदल के चक्कर में इन दलबदलू नेताओं ने सारी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया हैं, बड़बोलेपन के चक्कर और जातीय दंभ में स्वयं की जाति को इन्होंने उस पादान पर लाकर खड़ा कर दिया हैं कि जैसे इनकी ही जातियों के लिए सिर्फ और सिर्फ बिहार बना हैं, बाकी जातियां इनके चरणवंदन और चरणधूलि पाने के लिए हैं। ये स्थिति एक पार्टी की नहीं, बल्कि कमोबेश सभी पार्टियों की हैं। तीन चार साल पहले की बात हैं। जब मैं धनबाद में था, तो एक बिहार के ही बड़बोले नेता आनन्द मोहन ने एक संवाददाता के प्रश्न के जवाब में कहा था कि जब पत्रकार अपने बेहतर कैरियर के लिए, संस्थान बदल देते हैं तो उनके जैसा नेता, बेहतर कैरियर के लिए पार्टी अथवा दल क्यों नहीं बदले। ऐसे हैं हमारे बिहार के नेता। ऐसी हैं इनकी सोच। इसलिए प्रभुनाथ सिंह जैसे नेता, नीतीश का दामन छोड़, लालू का दामन पकड़ लें और कहें कि हे लालू जी आप ही मेरे कैरियर निर्माता हो, मेरी कैरियर पर ध्यान दो। लालू भी – प्रभुनाथ को कहें, कि एवमस्तु तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी, तो क्या गलत हैं।
पर प्रभुनाथ सिंह का ये कहना कि उनके आने से बिहार में एक नया समीकरण बनेगा, पीएमआरवाई का, तो ये उन्हें कहने की इजाजत किसने दे दी। पीएमआरवाई का मतलब – कोई बुद्धिजीवी प्रधानमंत्री रोजगार योजना नहीं समझ लें। प्रभुनाथ सिंह के शब्दों में पी का मतलब पिछड़ा, एम का मतलब मुस्लिम, आर का मतलब उनकी जाति राजपूत, जिससे वे आते हैं और वाई का मतलब यादव। क्या इन्हीं पीएमआरवाई से वे बिहार विधान सभा में स्थिति मजबूत कर लेंगे। क्या जिन अक्षरों का इन्होंने उपयोग किया हैं, वो पिछले लोकसभा और पांच साल पहले के विधानसभा चुनाव में किसी दूसरे जगह छिटक गये थे क्या।
क्या इन जातियों का प्रभुनाथ सिंह जैसे लोगों ने ठेका ले रखा हैं और मान लिया कि इन जातियों और समुदाय का ठेका ले रखा हैं तो भी बाकी जातियां और समुदाय, इनके आगे पानी भरेंगे क्या। लालू और पासवान जैसे नेताओं से बिहार में एकता की बातें करना ही बेमानी हैं, लोग ठीक ही कहते हैं कि इस देश व राज्य को गर किसी ने बर्बाद किया हैं तो वे राजनीतिज्ञ हैं जो विशुद्ध रुप से राजनीतिबाज बनकर पूरे देश व राज्य में रहनेवाले, विभिन्न समुदायों को इतने टुकड़ों में बांट देना चाहते हैं कि देश व राज्य बर्बाद हो जाये और इनकी राजनीतिक कैरियर हमेशा हिट रहे, ताकि ये आराम से अपना और अपने आनेवाले पीढ़ियों का उद्धार कर सकें, लेकिन ये नहीं जानते कि अंधकार का साम्राज्य ज्यादा दिनों तक नहीं होता। मैं लालू प्रसाद से पूछना चाहता हूं कि जिस जय प्रकाश आंदोलन के वे प्रोडक्ट हैं, वे जयप्रकाश संपूर्ण क्रांति की बात किया करते थे, क्या प्रभुनाथ सिंह जैसे नेताओं के बयान से और उनकी पार्टी में ऐसे नेताओं के आने से संपूर्ण क्रांति हो जायेगी क्या। ऐसे भी लालू प्रसाद का पूरा कैरियर देखा जाये तो ये भी माई समीकरण की बात कुछ ज्यादा ही करते थे, ऐसे में गर प्रभुनाथ ने उसमें पीआर मिला दिया तो क्या हुआ, लालू प्रसाद को तो इससे और मजबूती ही मिलेगी, वे समझ रहे होंगे कि अब बिहार विधानसभा में उनकी वापसी तय हैं, लेकिन वे भूल रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में भी कमोबेश जाति की राजनीति करनेवाले बिहार के सारे के सारे नेता उनकी तरफ हो गये थे पर परिणाम कुछ दुसरा ही आया।
रही बात नीतीश की, तो ये भी कोई दुध के धूले नहीं हैं। थोड़ा बहुत अंहकार इनमें भी आ गया हैं, ये समझ रहे है कि बस अगली पारी भी इन्हीं की होगी, और इसी चक्कर में वे बहुत सारे ऐसे भी गलत निर्णय कर रहे हैं, जिनका खामियाजा वे भुगतेंगे ही। इनके पार्टी में भी बहुत सारे दुसरे दलों के नेता आने के चक्कर में हैं और कुछ इनकी पार्टी से जाने के चक्कर में हैं, क्योंकि जब जब चुनाव आते हैं तो बिहार क्या पूरे देश में ऐसे दृश्य दिखाई पड़ जाते हैं, पर इसके कारण बिहार की मर्यादाएं और सामाजिक माहौल न बिगड़ जाये, इसका ध्यान यहां के राजनीतिज्ञों को रखनी चाहिए, क्योंकि जो काम राजठाकरे महाराष्ट्र में कर रहे हैं, वो ही काम ये कमोबेश बिहार में कर रहे हैं, चाहे वो लालू हो या प्रभुनाथ या कोई अन्य। अंतर ये हैं कि राज ठाकरे अपनी राजनीति चमकाने के लिए, मराठी और गैर मराठी विवाद उछाल रहे हैं और बिहार के नेता पीएमआरवाई बनाम गैर पीएमआरवाई का मुद्दा उठा रहे हैं। दोनों में कोई अंतर नहीं हैं, बस समझ की फेर हैं, सभी देश को बर्बाद करने में तुले हैं. जरुरत हैं बिहार में रह रहे उन युवाओं को, आगे बढ़ने की जो बिहार को एक नयी दिशा देना चाहते हैं, वे आगे बढ़े और इस चुनाव में जन जन तक जाकर बतायें कि वे वोट किसी को भी दें, पर दे जरुर, पर ध्यान रहे कि बिहार की मर्यादा और सामाजिक माहौल न बिगड़ने पाये, क्योंकि बिहार के नेताओं ने अपनी घटिया स्तर की राजनीति शुरु कर दी हैं, मैं देख रहा हूं वे सब कुछ करने पर आमदा हैं – हो सकता हैं कि वे अपराधियों तक का शरण लें और कहें कि ये ही बिहार को नयी दिशा देंगे, इसलिए पीएमआरवाई के तहत इन्हें ही वोट दें। इसलिए बिहार के युवाओं का जगना बहुत जरुरी हैं।