Sunday, September 19, 2010

इसमें कौन सी नयी बात है...!


अर्जुन मुंडा की नयी सरकार पर आरोप है कि इस सरकार को व्यवसायियों ने अपने फायदे के लिए बनायी है और ये सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पायेगी। इस तरह का आरोप तो विधानसभा में ही संभवतः झारखंड विकास मोर्चा विधायक दल के नेता प्रदीप यादव ने लगाया था, जब अर्जुन मुंडा सदन में विश्वास मत प्राप्त कर रहे थे, लेकिन हम आपको बता देना चाहते हैं कि इस तरह की बातें झारखंड का बच्चा बच्चा जानता हैं, कोई इसमें नयी बात नहीं है।
पहली बात, क्या ये पहली बार हुआ हैं कि सरकार बनाने अथवा बचाने के लिए किसी राजनेता द्वारा व्यवसायियों से सहयोग लिया गया हो, ये तो हमेशा से होता रहा हैं और होता रहेगा, क्योंकि हमारे यहां राजनीति अब साधुओं अर्थात् सज्जनों की जमात नहीं करती, ये विशुद्ध राजनीतिबाज हैं जो विपरीत आचरण कर सत्ता हासिल कर स्वयं और अपने अनुयायियों को अनुप्राणित करते रहते हैं, इसके उदाहरण केवल अर्जुन मुंडा नहीं बल्कि कई राजनीतिज्ञ हैं, जिसकी एक लंबी लिस्ट हैं, जिसमें भारत के सभी राजनीतिक दल शामिल हैं।
कल एक राष्ट्रीय चैनल और आज उस राष्ट्रीय चैनल का हवाला देकर रांची से प्रकाशित कई समाचार पत्रों ने इस समाचार को प्रमुखता से प्रकाशित किया हैं, ऐसा लगता हैं कि व्यवसायियों से सहयोग लेकर, अर्जुन मुंडा ने अपराध कर डाला हैं। लेकिन अर्जुन ने अपराध किया अथवा नहीं किया, इसका निर्णय कौन करेगा, अखबारवाले और मीडिया के लोग या समय आने पर झारखंड की जनता।
कल तक तो ये ही अखबार व मीडिया वाले अर्जुन की जयजयकार कर रहे थे, अचानक ये सुर कैसे बदल गया। कमाल की बात हैं अजय संचेती भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य हैं, उन्हें आज भाजपा नेता कम और व्यवसायी ज्यादा बताया जाने लगा हैं। लगे हाथों भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रघुवर जो ज्यादातर विवादास्पद मुद्दों पर नो कमेंटस और मीडिया पर आंख भौं तान के निकल जाते हैं उनके मुख से ये कहलवाते हुए दिखाया गया, कि सबसे पहले अजय संचेती का उनके पास फोन आया था कि वे विधायक दल के नेता पद से इस्तीफा दे दें, बाद में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिन गडकरी का। हो सकता हैं कि रघुवर दास ने खुद को ये संवाद कहने के लिए ड्रामा भी कराये हो, क्योंकि राजनीति में साम दाम दंड भेद सब चलता हैं, ऐसे भी रघुवर दास मन ही मन अर्जुन से खार खाये हुए हैं और फिलहाल झारखंड में रघुवर दास नेतृत्व कर रहे है, केन्द्र के उन विक्षुब्ध नेताओं का जिन्हें फिलहाल गडकरी और अर्जुन मुंडा पसंद नहीं हैं, जो नहीं चाहते कि अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री हो, क्योंकि उनके पसंद का मुख्यमंत्री कोई दूसरा है, जिनकी पकड़ राष्ट्रीय चैनलों में भी मजबूत हैं। वो जो चाहे दिखवा सकते हैं और जो चाहे करवा सकते हैं। लेकिन इसका परिणाम क्या निकलेगा, शायद दो बंदरों और बिल्ली वाली कहानी भाजपा के ये विक्षुब्ध नेता नहीं जानते।
दूसरी बात कल एक राष्ट्रीय चैनल ने दिखाया और आज कुछ अखबारों ने फोटो छापा हैं कि जिन व्यवसायियों ने सरकार बनाने में प्रमुख निभायी, वे शपथ ग्रहण समारोह में अगली पंक्ति में बैठे थे, क्या कोई बता सकता हैं कि किसी के शपथ ग्रहण समारोह में अगली पँक्ति पर कौन बैठता हैं। अगली पंक्ति पर तो वहीं वैठेगा, जो धनवाला अथवा रसूखवाला हो, कोई रिक्शावाले या भिखमंगों को तो कोई बैठायेगा नहीं। मैं मीडियाकर्मियों से ही पूछता हूं कि गर मीडिया से ही किसी को इस दौरान बैठाना रहता तो इस शपथ ग्रहण समारोह में, अग्रिम पंक्ति में चरित्रवान पत्रकार बैठते क्या, कि यहां भी प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के मालिकों और प्रबंधकों का कब्जा रहता। कोई बता सकता कि आज पत्रकारिता के नाम पर जो राज्यसभा में जा रहे हैं, वे कौन लोग हैं..........................। वे वहीं लोग हैं, जो किसी न किसी प्रकार से विभिन्न राष्ट्रीय अथवा क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के टॉप के नेताओं को अपने कलम अथवा कैमरा के माध्यम से उपकृत करते रहते हैं और समय आने पर ब्याज के साथ, वो सब वसूल लेते हैं, जिसकी परिकल्पना नहीं की जा सकती। क्या ये सही नहीं कि मीडिया में, जो रसूखवाले थे, वे भी अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री पद पर बैठा देखना चाहते थे, मैंने तो अपनी आंखों से देखा कि शपथग्रहण समारोह के दिन ज्यादातर चैनलों के प्रतिनिधि और उनके आका मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के चरणों में बलिहारी जा रहे थे, क्यों बलिहारी जा रहे थे, वे वे ही मीडिया के लोग बेहतर बता सकते हैं, जिन्होंने पत्रकारिता को बाजार बना दिया है। रही बात झारखंड की तो यहां के विधायकों का इतिहास रहा हैं कोई नयी बात नहीं हैं. चाहे नरसिंह राव सरकार बचाने का मामला हो या परिमल नथवानी या के डी सिंह को राज्यसभा पहुंचाने की बात, ये तो खुलकर, डंके की चोट पर वो सब काम करने को तैयार रहते हैं, जो दूसरे लोग छुप कर करते हैं। और जब अर्जुन मुंडा ने व्यवसायियों के सहयोग से सरकार बना ही ली है तो उस पर छीटाकशी कौन करेगा। वे लोग, चलनी दूसे सूप के जिन्हें बहत्तर छेद। मीडिया पहले अपने गिरेबां में झाक कर देखे और झाविमो के बाबू लाल मरांडी जैसे नेता भी। जिन्होंने इस प्रकरण पर बखूबी बयान दे डाला। क्या बाबू लाल मरांडी बता सकते हैं कि इसी विधानसभा चुनाव में उनके द्वारा उपयोग किये गये उड़नखटोले के पैसे कहां से आये, फिल्म अभिनेत्रियों को कैसे चुनावी सभा में ले जाया गया, विधानसभा चुनाव में मीडिया पर पैसा कैसे पानी की तरह बहाया गया, कूटे में महाधिवेशन के दौरान करोड़ों रुपये कैसे खर्च हो गये, आखिर ये बिना व्यवसायियों के सहयोग से हो गया क्या। गर व्यवसायियों के सहयोग से नहीं हुआ तो जनता को बतायें कि अचानक कहां से उन्हें अलादीन का चिराग प्राप्त हो गया ।

Saturday, September 11, 2010

बधाई महामहिम फारुक साहब को…।


मैं अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में ढूंढ रहा हूं, एम ओ एच फारुक साहब को, पर वो मिल नहीं रहे, कल तक उनके नाम स्थानीय अखबारों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में सुर्खियों में रहता था, पर अब वो दिखाई नहीं दे रहा। लोग कहते हैं कि ये देश ऐसा हैं कि यहां उगते सूर्य को ही नमस्कार किया जाता हैं, पर शायद लोग भूल रहे हैं कि ये देश ऐसा भी हैं कि डूबते सूर्य को सर्वप्रथम अर्घ्य देने के बाद ही अपना व्रत प्रारंभ करता हैं, गर किसी को ध्यान नहीं हो, तो जरा कार्तिक शुक्ल रविषष्ठी व्रत जिसे छठ भी कहते हैं, उस ओर अपना ध्यान ले जाये।
चारों ओर जयजयकार हो रही अर्जुन मुंडा की। होनी भी चाहिए क्योंकि इस अर्जुन ने अपने तरकस से निकाल धनुष पर संधान कर ऐसी तीर छोड़ी हैं कि इस तीर से कई दिग्गज घायल हो गये, खुद जिस गुरु शिबू सोरेन ने राजनीतिक शिक्षा दी, वे खुद ही फिलहाल असहाय की स्थिति में हैं, जिस बाबु लाल मरांडी ने अर्जुन को पहली बार सत्ता सौंपी थी, वे सत्ता की चाहत में इधर से उधर भटक रहे हैं, पार्टी बना ली, फिर भी मुख्यमंत्री का पद नहीं मिला, पर जिसने कुछ भी नहीं किया, वो आज सत्ता के शीर्षस्थान पर हैं, कैसे। इस पर विचार करना चाहिए। विचार करना चाहिए, सत्ता की चाहत में बैठे, उन राजनीतिज्ञों को जो मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने की इच्छा रखते हैं। हम बता देना चाहते हैं कि सत्ता की राजनीति में मुख्यमंत्री पद की लालसा रखना कोई गलत बात नहीं, पर उसके लिए तिकड़म करना गंदी बात हैं। हालांकि बिना तिकड़म के राजनीति में कोई बात बनती ही नहीं। ऐसे भी साम दाम दंड भेद ये शब्द राजनीति के कोख से ही निकले हैं। चलिए झारखंड का बेटा अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बन गया । ये आज का अर्जुन हैं, ये न तो तीर चलाता हैं और न धनुष रखता हैं, पर हां, गोल्फ खेलता हैं, जबकि दोनों में लक्ष्य का निर्धारण और उसे पाना महत्वपूर्ण होता हैं। चुनाव के परिणाम आने के बाद मात्र नौ महीने में इतनी आसानी से अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री इस बार बन जायेंगे, इसका अंदाजा किसी को नहीं था। ऐसे भी इतिहास गवाह हैं कि इस अर्जुन को, सत्ता में आने के लिए कई बार संघर्ष भी करना पड़ा हैं, कभी राज्यपाल की भूमिका ने सत्ता से दूर इसे रखा तो कभी अपनों ने ऐसी तिकड़म लगायी कि इन्हें सत्ता मिलने में देर हो गयी, पर इस बार अर्जुन ने ऐसी जुगत लगायी, मीडिया और कारपोरेट जगत को ऐसा क्लच में लिया कि चारो ओर सिर्फ अर्जुन ही अर्जुन दिखाई पड़ने लगा, फिर क्या था, उधर भाजपा आलाकमान ने भी हरी झंडी दिखा दी, नतीजा सबके सामने हैं।
पर एक बात मैं कहे और लिखे बिना रुक नहीं सकता, जरा सोचिये कि आज एम ओ एच फारुक की जगह सैय्यद सिब्ते रजी या अन्य राज्यपाल होते तो क्या होता किसी ने इस बात का अंदाजा भी लगाया हैं। लोग को छोड़िये सत्ता किसी को मिले अथवा सत्ता न मिले उससे आम जनता की कोई दिलचस्पी नहीं होती पर मीडिया ने क्या किया, मीडिया ने उस शख्स को बधाई दी, अथवा दो शब्दों की उदारता दिखायी जिसने सचमुच में लोकतंत्र की मर्यादा रखी, खासकर ऐसे वक्त में जब चारों ओर लोकतंत्र का चीरहरण हो रहा है। बधाई झारखंड के राज्यपाल एम ओ एच फारुक को, जिन्होंने आज की राजनीति में, एक नया आयाम लिखा हैं, उन्होंने राजनीतिक परिपक्वता ही नहीं बल्कि शुचिता एवं शुद्धता की नयी परिभाषा लिखी हैं। याद करिये, जब इस राज्य में राज्यपाल सैय्यद सिब्ते रजी थे, उन्होंने क्या किया था, ये जानते हुए भी कि अर्जुन को बहुमत हैं, उन्होंने सत्ता से दूर रखकर उस वक्त शिबू को मुख्यमंत्री बनाने का न्यौता दे डाला था, पर एम ओ एच फारुक साहब को देखिये, जैसे ही अर्जुन मुंडा ने बहुमत जुटाई, बहुमत को राज्यपाल के समक्ष रखा। एम ओ एच फारुक ने तुरंत निर्णय लिया, राष्ट्रपति शासन हटवाने के लिए गृहमंत्री को अनुशंसा किया, ये ही नहीं जो उन्होंने राज्यहित में कुछ निर्णय ले रखे थे, उन्हें रोका, और नये सरकार पर फैसले छोड़ दिये। जल्द ही अर्जुन मुंडा को सत्ता भी सौंप दी। आज के युग में ऐसी मिसाल कहां मिलती हैं। बधाई हो एम ओ एच फारुक साहब। आपने एक नयी मिसाल कायम की हैं। राजनीति करनेवालों और राजनीति में रुचि रखनेवालों को आपने एक सबक दी हैं, आशा की जानी चाहिए कि लोग आपसे सबक सीखेंगे, हालांकि ये सच हैं कि मीडिया और कारपोरेट जगत जो अर्जुन मुंडा को सत्ता सौंपने में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहा था, आपके इस उदार चरित पर ध्यान देना उचित नहीं समझा, पर झारखंड में इमानदारी से राजनीति करनेवालों को आपका ध्यान हमेशा रहेगा।
आज के युग में सत्ता किसे अच्छी नहीं लगती, आप भी औरों की तरह तिकड़म लगा सकते थे, और कुछ दिन झेल सकते थे, विधानसभा को भंग करने की सिफारिश कर सकते थे, क्योंकि झारखंड विकास मोर्चा के कई नेता तो कह ही रहे थे, कि विधानसभा भंग कर दी जाये, पर आपने ऐसा नहीं किया, विधानसभा को निलंबित ही रहने दिया पर जैसे ही अर्जुन ने बहुमत का जुगाड़ किया आपने बिना किसी इफ-बट के वो फैसले लिये, जिस फैसले की आशा तो इतनी आसानी से न तो भाजपा को थी और न तो अर्जुन मुंडा को, मैं इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि मैं पत्रकार हुं और मुझे इसका अच्छी तरह अनुमान हैं। पर यहां की मीडिया जो अर्जुन के बयार में आपके इस उदार चरित को भूल गयी, एक शब्द भी आपके बारे में लिखना उचित नहीं समझा। ये देख व जानकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, फिर भी, आपको मेरी ओर से महामहिम फारुक साहब आपको कोटिशः बधाई। आशा हैं आप अपनी इस प्रकार की उदारता से राजनीति में और भी मिसाल कायम करते रहेंगे। ऐसे भी आपने बहुत कम ही समय में, जो राष्ट्रपति शासन के दौरान जो झारखंड हित में निर्णय लिये हैं, उसकी परिकल्पना नहीं की जा सकती। सूखा झेल रहे, झारखंड और भ्रष्टाचार को रोकने में जो आपने मह्तवपूर्ण फैसले लिए, उसका पालन आनेवाली सरकार करेंगी, इसका मुझे उतना भरोसा नहीं और न ही आम जनता को हैं।

Sunday, September 5, 2010

शिक्षक दिवस पर विशेष

गुरु क्या, ये तो शिक्षक के भी लायक नहीं...!

एक पत्रकार मित्र ने आज शिक्षक दिवस पर कुछ पंक्तियां मुझसे पूछी, संभवतः वे शिक्षक दिवस पर कुछ स्पेशल रिपोर्ट बनाना चाहते थे। गुरु और गोविंद में कौन बड़ा हैं, इससे संबंधित कुछ पंक्तियां वे मुझसे चाहते थे। शिक्षक दिवस के दौरान ऐसे भी भारत में ये पंक्तियां खूब चलती हैं --------
गुरु गोविंद दोउं खड़ें, काको लागू पायं।
बलिहारी गुरु आपनो, जो गोविंद दियो बतायं।।

और इस पंक्ति के बहाने आज के शिक्षक को गुरु बताकर, ईश्वर से भी, उन्हें श्रेष्ठ बताने की कोशिश की जाती हैं। जबकि आज के शिक्षक कभी गुरु हो ही नहीं सकते। क्योंकि कल के गुरु और आज के शिक्षक में आकाश जमीन का अंतर हैं। कल का गुरु शिक्षक नहीं था, वो मानव संसाधन के अंतर्गत न कभी काम किया था और न ही करने का कभी संकल्प किया था, पर आज का शिक्षक मानव संसाधन बन गया हैं, और एक संसाधन का क्या हश्र होता हैं, वो कल के गुरु का भान करनेवाला आज का शिक्षक खूब समझता हैं।
संस्कृत में एक श्लोक हैं -----------
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः।।

हालांकि इस श्लोक का भी आज के शिक्षक अपने ढंग से भावार्थ बताते हैं, जबकि मेरे अनुसार, गुरु को ब्रह्मा के सदृश होना चाहिए, जो अपने शिष्य का निर्माण करें, गुरु को विष्णु होना चाहिए, जो उसके चरित्र निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाये, गुरु को शंकर होना चाहिए, जो उसके सभी बुराईयों को शमन कर दें, ऐसे गुरु ही साक्षात् परब्रह्म के समान होते हैं, जो ऐसे हैं, उन्हें नमस्कार हैं, पर ऐसे गुरु आज कितने हैं।
जरा कल के गुरु की एक कहानी सुनाता हूं
महर्षि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को कहते हैं कि हे आरुणि। बारिश होनेवाली हैं, इसलिए तुम जाओ खेत में, वहां मेड़ बनाकर, खेत में जानेवाले पानी को रोकने का प्रयास करों ताकि खेत में लगी फसल बर्बाद न हो, महर्षि धौम्य के आदेश को सुनकर आरुणि खेत की ओर चल पड़ता हैं, भारी बारिश होती हैं, पर मिट्टी के मेड़ पानी में बह जा रहे हैं, अंतः में कोई विकल्प न देख आरुणि खुद को मेड़ बना कर लेट जाता है। रात बीत रही हैं, इधर महर्षि धौम्य अपने शिष्य आरुणि को आश्रम में न आया देख, विचलित हो रहे हैं, जैसे ही सुबह होती हैं, वे खेत की ओर अपने अन्य शिष्यों के साथ चल पड़ते हैं। देखते हैं कि आरुणि ने गुरु के वचन का पालन करने के लिए स्वयं को ही मेड़ बना डाला है,
आरुणि की इस दशा को देख, महर्षि धौम्य भाव विह्ववल हो रहे हैं, और अपने प्रिय शिष्य को उसी अवस्था में गले लगा लेते हैं, कहां हैं, ऐसे शिक्षक, जो इस आदर्श को अपना सकें, और उन्हें हम गुरु कह सकें।
जरा एक और कथा सुनिये --------------
रावण की सेना और उसके गुप्तचर भारत के सभी स्थानों को एक एक कर अपने गिरफ्त में ले रहे हैं। इधर गुरु विश्वामित्र को चिंता हो रही हैं, कि गर ऐसा ही चलता रहा तो भारत की दशा अत्यंत दयनीय हो जायेगी, अपने अंदर प्राप्त ज्ञान किसे दें, जिससे भारत की रक्षा हो सकें। वे अयोध्या का रुख करते हैं। अयोध्यापति दशरथ के पुत्र राम लक्ष्मण को अपनी विद्या के लिये योग्य मानकर उन्हें अपने साथ लेकर निकल पड़ते हैं, रास्ते में ही, राम लक्ष्मण की योग्यता की परीक्षा लेते हैं, जब ताड़का मार्ग में ही आ खड़ी होती हैं। दोनों परीक्षा में पास और फिर राम लक्ष्मण को उन्होंने सारी अपनी विद्याएं दे दी और राष्ट्र निर्माण का संकल्प लिया। बाद में गौतम नारी अहल्या का उद्धार कराया, राम का योग्य कन्या सीता के साथ विवाह भी संपन्न कराया और फिर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होकर नये भारत के निर्माण के लिए निकल पड़ें, और यहीं योग्य राम आगे चलकर क्या किया, आगे की कथा सभी जानते हैं, इसलिए यहां इससे अधिक बातें लिखना उचित नहीं। जरा अब बताईयें कि आज कितने शिक्षक ऐसे हैं जो विश्वामित्र और महर्षि धौम्य की सोच रखते हैं। जब ऐसी सोच इनकी हैं ही नहीं, तो फिर हम इन्हें गुरु क्यों कहें।
अरे ये तो शिक्षक हैं। इनका आज का चरित्र देखिये।
क. पैसे लेकर शिक्षा बांटते हैं। ये तो प्राईवेट फर्मों में पढ़ाते हैं, और आज कोई दूसरे फर्म, उन्हें ज्यादा पैसे देने की बात करें, तो बेस्ट आपर्चूयनिटी का बहाना बनाकर, आराम से अपने वर्तमान शिष्यों को श्रद्धांजलि देकर निकल पड़ते हैं, अपनी मस्ती और भौतिक आनन्द की खोज में।
ख. जिन सरकारी स्कूलों में ये पढ़ाते हैं, उन सरकारी स्कूलों में खूद अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते क्योंकि वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों की क्या स्थिति हैं, इसलिए वे इन्हीं सरकारी स्कूलों से खुद तो बंपर स्केल उठाते हैं, पर अपनी संतानों को इन स्कूलों से दूर रखते हैं, क्योंकि वे खुद कर्तव्यनिष्ठ होकर नहीं पढ़ाते, ये अलग बात हैं कि इन सरकारी स्कूलों में जैसे तैसे पढ़ रहे वंचितों के बच्चे अपनी तकदीर खुद संवार लेते हैं।
ग. आज का शिक्षक खुद को कांट्रेक्ट में बांध दिया हैं, ठेके पर नियुक्त होता हैं, पारा टीचर बनकर गौरवान्वित महसूस करता हैं, खुद कहता हैं कि वो पारा टीचर हैं, और जब उन्हें खुद की मानदेय कम लगती हैं तो सड़कों पर उतर जाता हैं, यहीं नहीं वो कहता हैं कि उसका नियमितिकरण कर दिया जाय, यानी जिन स्कूलों में शिक्षक नियुक्त हुए, जिन प्रक्रियाओँ के द्वारा। भले ही उन प्रक्रियाओं से, ये पारा टीचर की नियुक्ति न हुआ हो, पर सारा सुख, उन्हीं की तरह लेने की बात करता हैं, यानी शार्ट कट फार्मूला, से बंपर स्केल पाना चाहता हैं।
घ. चाहे बंपर स्केल पाने वाले नियमित शिक्षक हो या पारा टीचर। सहीं बात तो ये हैं कि ये कभी भी दिल लगाकर अपने कर्तव्य पथ पर नहीं हैं, गर ये आज कर्तव्यपथ पर होते, तो फिर ये नये – नये निजी विद्यालय खुलते ही नहीं, गर खुलते भी तो इनके आगे टिकते ही नहीं। हमें याद हैं कि एक समय था, जब जिला स्कूलों में नामांकन कराने के लिए बड़े बड़े लोगों की पैरवी होती थी, आज तो इन जिला स्कूलों में कोई अपने बच्चों को पढ़ाना ही नहीं चाहता, खुद वे टीचर भी नहीं पढ़ाना चाहते, जो यहां नियुक्त हैं। ऐसे में ये मानव संसाधन बन गये शिक्षक, देश व समाज का कितना भला कर रहे हैं, ये तो खुद ही वे जाने।
ड. यहीं नहीं इतनी गिरी हुई व्यवस्था में, इन्हीं शिक्षक बने गुरुओं को शिक्षा जगत का उच्च सम्मान सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का मेडल भी मिल जाता हैं, ये मेडल अथवा पदक कैसे और क्यूं मिलते हैं, इसकी भी गर जांच हो जाये, तो एक पदक घोटाला भी सामने आ जायेगा। जिन शिक्षकों को इस प्रकार के पदक मिलते हैं, जरा उनसे पूछिये कि आपने अपने जीवन में कितने राम, लक्ष्मण, कितने आरुणि, कितने भगत सिंह, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, लोकनायक जयप्रकाश नारायण आदि महापुरुष पैदा किये, तो पता लग जायेगा कि स्थिति क्या हैं। पर एक परंपरा हैं, पदक देनी हैं, इसलिए सभी प्रांतों में बैठे राज्य व केन्द्र के शिक्षाधिकारियों की टीम से मंगवा लिया जाता हैं कि किस शिक्षक को पदक देनी हैं, इसलिए ये शिक्षाधिकारी अपने ठकुरसोहाती विधा को अपनाते हुए, ऐसे ऐसे शिक्षकों का नाम भेज देते हैं, पदक के लिए, कि हमे हंसी आती हैं।
अंततः हमे याद हैं कि राजश्री प्रोडक्शनंस प्राईवेट लिमिटेड वालों ने बहुत पहले एक दोस्ती पिक्चर बनायी थी, जिसमें शिक्षक के कर्तव्य बोध का सफल चित्रण हुआ था। केन्द्र व राज्य सरकार और शिक्षक दिवस पर नाना प्रकार के कार्यक्रमों को आयोजित करनेवाले महानुभावों को चाहिए कि वो फिल्म दोस्ती की एक – एक सीडी इन शिक्षकों को उपलब्ध करायें, और ये शिक्षक उस फिल्म को आद्योपांत देखे, और सोचे कि क्या उनका वो चरित्र हैं जो दोस्ती फिल्म में शिक्षक, प्राचार्य और लिपिक का हैं। गर नहीं तो धिक्कार हैं, क्योंकि शिक्षक महोदय, आपका कुछ नहीं जा रहा हैं, देश मिट्टी में मिल रहा हैं, क्योंकि आप राष्ट्र निर्माता हो, गर राष्ट्र निर्माता ही अपने कर्तव्य बोध से भटक जायेगा तो देश गर्त में जायेगा ही, इसलिए वक्त हैं, देश को गर्त में जाने से बचा लो।