Saturday, November 26, 2011

पता नही पाकिस्तान भारत और हिन्दूओं से इतनी नफरत क्यों करता है...........

पाकिस्तान में बनी फिल्म बेदारी से लेकर आज के जमाने में बनी फिल्म खुदा के लिए तक में भारत और भारत में रहनेवाले हिंदुओं के प्रति इतनी ऩफरत क्यों भरी रहती हैं। हमें आज तक समझ में नहीं आया, जबकि जन्म से लेकर आज तक मैंने कोई ऐसी भारतीय फिल्में नहीं देखी या ऐसी भारत में कोई पुस्तकें नहीं देखी या पढ़ी जो पाकिस्तान से नफरत का पाठ पढ़ाती हो। पता नहीं क्यों पाकिस्तानी फिल्मों में भारत और हिंदुओं के प्रति नफरत क्यों भर दी जाती हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत और हिंदुओं का विरोध, वहां फिल्में हिट होने का आधार होती हैं, गर ऐसा हैं तो हम ये कह सकते हैं कि ये ऩफरत पाकिस्तान को और नर्क बना देगा। जरुरत हैं ऩफरत की जगह प्यार का पाठ याद करने और इसे सींचने की। हम अच्छी तरह जानते हैं कि भारत में भी ऐसे लोगों की संख्या हैं जो पाकिस्तान से शत्रुता रखते हैं और पाकिस्तान में भी ऐसे लोग हैं जो भारत से शत्रुता रखते हैं, पर क्या इन दोनों देशों में एक दूसरे से शत्रुता रखनेवालों की संख्या इतनी अधिक हैं, जो प्रेम शब्द को ही मिटा दें। गर प्रेम शब्द ही मिटा दोगे तो काहे का हिंदु और काहे का मुसलमान। तब तो, तुम दोनों से अच्छे तो वो जाहिल हैं, जो मंदिर और मस्जिद दोनों के दरवाजे पर बैठकर, भीख मांगकर, अपनी दुनिया चला रहे होते हो, एक तरह से सीख भी देते हैं कि जिंदगी क्या हैं.........................।
ऩफरत कैसे भरी जा रही हैं -- पाकिस्तान में उसकी बानगी देखिये।
1954 में भारत में एक फिल्म बनी जागृति। जिसके गीत लिखे थे - पं. प्रदीप ने। उनके ये गीत आज भी अमर हैं और भारतीय स्वतंत्रता दिवस हो या गणतंत्र दिवस, सभी में ये खूब गाये और गंवाये जाते हैं। शायद ही कोई भारतीय हो, जो इस दिन इनके गाने न सुन पाये हो। मैं इनके ज्यादातर गीतों को यहां उदाहरण बनाना नहीं चाहता, पर एक गीत का उदाहरण जरुर देना चाहुँगा। एक गाना था जागृति में जिसके अंतरा थे -- आराम के तुम भूल भूलैंया में न भूलों, सपनो के हिंडोंले में मगन होके ना झूलो, अब वक्त आ गया मेंरे हंसते हुए फूलों, उठो छलांग मार के आकाश को छूलो, आकाश को छूलो, तुम गाड़ दो गगन में तिरंगा उछाल के, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के। इस फिल्म में जिस बालकलाकार ने काम किया था, उसका नाम था रतन कुमार, जो मुस्लिम बाल कलाकार था। बाद में ये पाकिस्तान का रुख किया और इसनें 1957 में बेदारी बनायी, वहां जाकर उसने गीत का क्या पोस्टमार्टम कराया जरा सुनिये -- लेना हैं ये कश्मीर तुम ये बात न भूलो, ये बात न भूलों, कश्मीर में लहराना हैं झंडा उछाल के, इस मुल्क को रखना मेरे बच्चों संभाल के। यहीं नहीं -- दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल के तर्ज पर मो. अली जिन्ना के शान में इसनें गाना गाया -- यू दी हमें आजादी की दूनिया हुई हैरान, ऐ कायदे आजम तेरा अहसान हैं अहसान। इस गीत के माध्यम से गांधी को जिन्ना के सामने बौना और बेवकूफ दिखाने की कोशिश की गयी थी। कहां गांधी और कहां जिन्ना। गांधी आज विश्वव्यापी हो चुके और जिन्ना क्या हैं वो पाकिस्तान के लोग ही बेहतर बता सकते हैं। आज गांधी के जन्मदिवस पर पूरा विश्व 2 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाता हैं, क्यों मनाता हैं, हमें लगता हैं बताने की जरुरत नहीं। आकाश की ओर हम थूंकेंगे तो वह थूक मेरे उपर ही आकर गिरेगा। ये जान लेना चाहिए। ये उदाहरण इसलिए मैं दे रहा हूं कि एक पं. प्रदीप हैं जो अपने गीतों के माध्यम से अपने बच्चों में संस्कार डाल रहे हैं और कह रहे हैं कि भारत को कहां ले जाना हैं और पाकिस्तान की सोच देखिये वो सिर्फ कश्मीर पर ही आकर अटक जाता हैं, अरे कश्मीर तक अटकोगे तो कैसे अपने देश को आगे बढ़ाओंगे। पूरी दुनिया में अपना नाम और चरित्र दिखाओ ताकि तुम्हें लोग कहें कि हां एक पाकिस्तान की सोच कुछ विशेष प्रकार का हैं।
यहीं नहीं एक फिल्म देखी तेरे प्यार में, जिसमें पाकिस्तानी अभिनेता एक भारतीय सैनिक के केवल हाथ नहीं मिलाने पर पूरे भारत के हिदुओं पर ही गंदी टिप्पणी करते हुए कहता हैं कि पता नहीं कैसे यहां मुसलमान रहते होंगे, इस दोजख में। क्या एक भारतीय सैनिक किसी पाकिस्तानी नागरिक से हाथ नहीं मिलायेगा तो क्या पूरे देश के सौ करोड़ हिंदु गलत हो गये। इसी तरह इस फिल्म में तिरंगे का अपमान करते हुए दिखाया जाता हैं। और अब बात हाल ही में बनी फिल्म खुदा के लिए में, जिसमें इसी अभिनेता से एक विदेशी अभिनेत्री पूछ रही होती हैं कि पाकिस्तान कहां हैं। ये अभिनेता पाकिस्तान की चौहद्दी बताकर बता रहा होता हैं कि पाकिस्तान कहां हैं, पर जैसे ही वह भारत का नाम लेता हैं। वो विदेशी अभिनेत्री कहती हैं कि ओह इंडिया नेवर, आई लाईक इंडिया, हेयर इज ताजमहल। अभिनेता बोलता हैं कि यू नो, हू मेड ताजमहल। विदेशी अभिनेत्री पूछती हैं - हू। पाकिस्तानी अभिनेता बोलता हैं कि शाहजहां, जस्ट लाईक मी। ही वाज मुस्लिम। देन पाकिस्तान ऐंड इंडिया आर वन। शर्म आती हैं ऐसी सोच पर। शर्म आनी चाहिए, ऐसे संवाद लिखनेवाले लेखक, और फिल्म निर्माताओं पर। क्या एक मुस्लिम होने से सब कुछ ठीक हो जाता हैं और हिंदु हो जाने से सब कुछ गलत हो जाता हैं। ये कुछ उदाहरण हैं जो पाकिस्तानी फिल्म इंडस्ट़ीज में काम करनेवाले लोगों की सोच को दर्शाता हैं और जब ऐसी सोचवाली फिल्में वहां बनेंगी तो वहां का समाज कैसा बनेगा। आप सोच सकते हैं. यहां के बुद्धिजीवियों की कैसी सोच हैं।
ये तो रही फिल्मों की बात, आये दिन पाकिस्तानी समाचार पत्रों और इलेक्ट्रानिक मीडिया में, तथा विदेशी समाचार जगत में पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर किस प्रकार का अत्याचार होता हैं। पटी रहती हैं। पाकिस्तान में हाल ही में बाढ़ आया और उस बाढ़ में हिंदु बाढ़पीड़ितों को गोमांस परोस दिया गया, जब हिंदु भड़के तो सरकार और सरकार के नुमांइदों ने अपनी गलती स्वीकारी। यहीं नहीं पाकिस्तानी हिंदुओं की बेटियों का अपहरण करना, और उन्हें जबरन मुस्लिम बनाकर, उनसे शादी करना तो वहां आम बात हैं और अगर आपने उसका विरोध किया तो बस हो जाईये, उपर जाने के लिए तैयार। क्योंकि वहां की अदालत भी, आपको ठोकर ही मारेगी। पाकिस्तान में मंदिरों की क्या स्थिति हैं, वहां के अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति हैं, ये जानना हैं तो हाल ही में पर्यटन के नाम पर पाकिस्तान से लौटे सैकड़ों हिदु परिवार जो अब पाकिस्तान लौटना नहीं चाहते, उनके बयान सुन और पढ़ लीजिये पता लग जायेगा कि आखिर वे अपने वतन क्यों नहीं लौटना चाहते। पाकिस्तान बताये कि उसके देश में अल्पसंख्यकों की क्या स्थिति हैं, अब तक कितने लोग राष्ट्रपति अथवा पाकिस्तान के सर्वोच्च पदों पर पहुंचे हैं और हम बताते है कि जिन मुसलमानों की वो बात करते हैं और उनके दुख दर्द पर बेवजह चिल्लाते हैं, हम बताते हैं कि भारत में मुसलमानों की क्या स्थिति हैं। हमें तो बताने की जरुरत भी नहीं, पूरा विश्व जानता हैं कि भारत में अल्पसंख्यक किस प्रकार रह रहे हैं। यहां के अल्पसंख्यकों की जनसंख्या में वृद्धि हो रही हैं, पर पाकिस्तान में हिंदुओं की संख्या में लगातार गिरावट क्यों। कमाल हैं चलनी दूसे, सूप के, जिन्हें बहतर छेद।
पाकिस्तान के लोगों को जान लेना चाहिए कि नफरत से नफरत बढ़ती हैं, प्यार की सीख, सर्वाधिक जरुरी हैं। इसलिए प्यार करना सीखे और सीखाएँ, और भारत से ज्यादा प्यार करें, क्योंकि हम आपके सर्वाधिक निकट हैं, हमारे पुरखे और आपके पुरखे एक ही हैं, वेवजह खून की नदियां बहाने का ख्वाब पालकर कोई आप तीस मारखां या हम तीसमारखां नहीं बन जायेंगे।
और अगर आप ये सोचते हैं कि पूरे पाकिस्तान से हिंदुओं को मिटाकर या अल्पसंख्यकों का नामोनिसां मिटाकर आप महान बन जायेंगे तो ये आपकी सोच, आपको मुबारक। नफरत की आंधी में जन्म लेकर, आपने क्या पाया। आपने कभी सोचा। हमने क्या गंवाया और हमें क्या मिला, आपने सोचा, नहीं सोचा और आप सोचना भी नहीं चाहते, क्योंकि बस आपको तो हिंदुओं से नफरत हैं। हिंदुओं को गला काटने, उन्हें जबरत धर्मांतरण कराने, उनके बहु-बेटियों को बलात, अपहरण करने और उन्हें बलात्कार करने में बड़ा मजा आता हैं। वे भी बेचारे हिंदु क्या करेंगे, अदालत जायेंगे, कोई मुल्ला मौलवी आयेगा, बोल देगा कि वो तो अल्पसंख्यक थी, हिंदू थी। वो मुसलमान बना दी गयी, अदालत भी चुप। क्या बनाया हैं आपने पाकिस्तान को। ये मै इसलिए नहीं कह रहा हूं कि किसी ने हमें बोल दिया। अरे जनाब, दुनिया इंटरनेट की जगह पर बहुत छोटी हो गयी हैं। आप ही के यहां का आजाद चैनल और जियो चैनल में जो बहस होती हैं, और वो बहस कोई शख्स यू टूयब पर डाल देता हैं, मैं देख कर प्रतिक्रिया दे रहा हूं। आपके जिन्ना और अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान बनाया था, वो भी धर्मनिरपेक्ष और आपने उनकी मौत के बाद, वहां का राष्ट्रीय धर्म ही बना डाला - इस्लाम। और इस्लाम के नाम पर खुदा के नाम पर, आपने जो किया या कर रहे हैं, वो तो जियो के निर्माताओं ने फिल्म खुदा के लिए में दिखा ही दिया, कि आप किस पाकिस्तान में जी रहे हैं और अपने पाकिस्तान को कहां ले जाना चाहते हैं। पर मैं अपने हिंदुस्तान को वो हिंदुस्तान बनाना चाहता हूं, जहां सारे मजहब के लोग मिलकर रहे, खुश रहे, किसी को किसी से वैर न रहे। हमारे यहां भी कुछ सिरफिरे हैं, पर उनके लिए कानून अपना काम कर रहा हैं, उन्हें सजा भी मिलती हैं। सजा मिल भी रही हैं। ऐसा नहीं कि कोई पंडित या मुल्ला कह देगा तो कानून अपना काम करना बंद कर देगा। जो सपने हमारे पूर्वजों और देशभक्त नेताओं ने देखे हैं हमें खुशी हैं कि चाहे हमारे यहां किसी की सरकार आये, हिम्मत नहीं कि धर्मनिरपेक्षता की दीवार को दरकाने की कोशिश करे।
और अब आप हमसे 14 अगस्त 1947 को अलग हो गये, हमसे अलग होकर आपको क्या मिला और हमें क्या मिला, जरा गौर फरमाये ----------------
क. आपके यहां लोकतंत्र हमेशा मरता हैं और कभी - कभी ही दिखाई पड़ता हैं। इस लोकतंत्र को और कोई नहीं कभी पाक सेना का सेनाध्यक्ष जिया उल हक तो कभी परवेज मुशर्रफ गला घोंट देता हैं, जबकि हमारे यहां 15 अगस्त 1947 से लोकतंत्र जीवित हैं और प्रत्येक आमचुनाव में और मजबूत होकर निकलता हैं, गर आपको नहीं विश्वास हो तो याद करिये, अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार, जो एक वोट से गिर गयी, फिर लोग जनता के बीच गये, और जनता ने एक बार फिर अटल बिहारी वाजपेयी को जनादेश दिया। सारा विश्व देख रहा हैं कि भारत में लोकतंत्र कैसे दिन प्रतिदिन मजबूत होता जा रहा हैं। यहीं नहीं आपका राष्ट्राध्यक्ष, राष्ट्राध्यक्ष पद से हटने के बाद इतना पाकिस्तान से डरता हैं कि वो विदेश में शरण ले लेता हैं, जबकि अपने देश में आज तक ऐसा देखने को नहीं मिला। आज भी देश के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति पद पर शोभायमान बड़े बड़े शख्स भारत में ही रहकर, अपने जीवन को धन्य कर रहे हैं।
ख. भारत 15 अगस्त 1947 को जिस स्थिति में था, उसी स्थिति में हैं, लेकिन आपको कश्मीर से इतर नहीं सोचने की सनक ने आपके एक बहुत बड़े क्षेत्रफल को ही लील लिया। नहीं याद हैं तो मैं आपको बता देता हूं, पूर्वी पाकिस्तान आज बांग्लादेश हैं।
ग. भारत की संप्रभुता को कोई चुनौती नहीं दे सकता, पर आपकी संप्रभुता को कौन कौन देश चुनौती दे रहा हैं, वो शायद आपको भी मालूम हैं, पर नहीं मालूम होने का बहुत अच्छा नौटंकी कर लेते हैं। अमरीकन सेना ने आपके घर में घुसकर ऐबटाबाद में क्या किया। पूरा विश्व देखा, पर शर्म नहीं आती। आज आपके यहां से कोई विदेश जाता हैं तो उसे भारतीय कहना पड़ रहा हैं, क्योंकि वो जानता हैं कि विदेश में रहने पर पाकिस्तानी बोलने पर सम्मान नहीं मिलेगा।
घ. आज भारतीय हर क्षेत्र में अपनी लोहा मनवा रहे हैं, पर आपको शेखी बघारने, भारत के खिलाफ विषवमन करने में ज्यादा आनन्द आता हैं। आप खुद देखिये भारत के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की पूरी दुनिया में क्या बिसात हैं और आप के यहां की क्या बिसात हैं। एक उदाहरण दे देना चाहता हूं आप खुद देखिये संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के वोट से आप कैसे अस्थायी सदस्य के रुप में नियुक्त हो गये, पर उसके बदले में आप क्या दे रहे हैं भारत को।
ड़. हमारे राजनीतिज्ञ, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष विज्ञान के साथ विकसित भारत बनाने का सपना लेकर आगे बढ़ रहे हैं, पर आप अभी तक वहीं अटके हैं, जहां से चले थे, हमे लगता हैं कि आप इससे उपर जाना भी नहीं चाहते, ऐसे में आपको क्या मिला। आपने मंदिर भी तोड़े और खुद उस मस्जिद में भी सेना भेजकर, वहां गोले बरसाये, जहां आपने कभी नमाज पढ़ी थी, उसका कारण क्या हैं, ये विचार करने की जरुरत हैं। धर्मांध बनने से काम नहीं चलेगा। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि इस्लाम कभी किसी दूसरे की हत्या करने, उन्हें बर्बाद करने, दूसरे धर्म के लोगों को इज्जत लूटने की सीख नहीं देता, पर क्या किया जाये, जो आप सीखेंगे, वो खुद पर भी आजमायेंगे ही। पूरा विश्व आपको किस नजर से देख रहा हैं, इसकी भी चर्चा, आपके इलेट्रानिक मीडिया के लोग बखूबी कर रहे हैं, उसे भी देखिये।
च. आपकी खासियत हैं कि आपके यहां जो जाता हैं, आप उसका खातिरदारी खूब करते हैं, आप इसकी शान भी दिखाते हैं, खासकर फिल्मों में। हमारे यहां से भी जो लोग जाते हैं, आपके यहां. वे बताते हैं कि जब उन्होंने कहा कि वे हिंदुस्तान से आये हैं तो कई होटलवालों ने खाने - पीने के पैसे नहीं लिये। उसका प्रमाण मेरे यहां भी हैं, जब प्रभात खबर के हरिवंश जी और रांची एक्सप्रेस के बलबीर दत्त आपके यहां गये तो वहां से लौटने के बाद, इन दोनों हस्तियों ने आपकी खुब प्रशंसा की। बलबीर दत्त जी ने तो आपके यहां का मिला मानचित्र ही हु ब हु छाप दिया था, बाद में रांची एक्सप्रेस ने गलती सुधारकर छापना शुरु कर दिया। ऐसे हैं आप। पर हम भी, आप से कम नहीं - खातिरदारी में। आप एक मौका तो दें, पर क्या करें, जब भी आप आयेंगे, कश्मीर का राग अलापेंगे, हिंदुओं को काफिर और पता नहीं क्या क्या कहकर संबोधित करेंगे, ऐसे में, हम आपकी खातिरदारी कैसे करें। कुछ तो आपके यहां से इस प्रकार आते हैं कि एक जनाब मुबंई के जेलों में बंद हैं, वो नाम आपने सुना ही होगा -- कसाब का।
चलिए, बहुत कुछ हुआ, थोड़ा आप गिले शिकवे दूर करें, थोड़ा हम गिले शिकवे दूर करें, चलिये भाईयों की तरह नहीं तो कम से कम एक अच्छे पड़ोसी की तरह तो रहे, ताकि दुनिया कह सकें कि ये पाकिस्तान हैं और ये भारत, दोनों में कितना प्यार हैं, पर क्या करें, वो दिन आ पायेगा भी नहीं, इसका हमें बेसब्री से इंतजार रहेगा।

Tuesday, November 22, 2011

बाकी भूत-प्रेत...................


ये उस वक्त की बात हैं। जब मैं ईटीवी में कार्यरत था। मेरी पोस्टिंग धनबाद में थी। चूंकि परिवार और बच्चे रांची में रहकर पढ़ाई कर रहे थे, तो साप्ताहिक अवकाश के दिन रांची में बिताना मेरी मजबूरी हुआ करती थी, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे, सप्ताह में एक दिन भी मेरे साथ दूर रहे। इसी दौरान रांची - धनबाद और धनबाद - रांची करना मेरा साप्ताहिक कार्यक्रम हुआ करता था। पर इसी कालखंड में, एक से एक लोग यात्रा के दौरान मिले भी, जो देखने में तो बहुत सुंदर पर अंदर से उतने ही काले। सिर्फ अपने लिए जीने की चाह रखनेवाले, जबकि कई ऐसे भी थे, जिनको अपनी तो चाह नहीं, पर दूसरे के लिए जीना चाहते थे। उन्हीं में से एक घटना, अपने मित्रों के बीच शेयर करना चाहता हूं। आमतौर पर जहां से ट्रेन खुलती हैं, ट्रेनों की साफ - सफाई होती ही हैं, पर जैसे ही वो ट्रेन अपने गंतव्य की ओर धीरे-धीरे बढ़ती हैं, उसी ट्रेन में सफर करनेवाले, उस ट्रेन की बॉगी के साथ ऐसा शत्रुवत् व्यवहार करते हैं, जैसे लगता हैं कि अब इस ट्रेन से उनका वास्ता ही नहीं होगा। कभी - कभी मैं खुद व्यंग्यात्मक रुप से ऐसे लोगों से कह भी देता कि जनाब, आपने ट्रेन की पूरी कीमत वसूल ली हैं, ऐसा आपको करना भी चाहिए, क्योंकि ट्रेन की बॉगियां, इसी के लिए तो बनी हैं। जैसे आप खुद देखते होंगे कि ट्रेनों में पंखों के उपर जूते - चप्पल रखना, दरवाजों और शौचालयों के आसपास पान और गूटखों को पीक फेंकना, जालीदार बने सामान रखनेवाले जगह पर, उन जालियों में पान खोंसदेना या बेवजह की कागज, पालिथिन ठूस देना, जो हवाओं के आनेजाने के लिए बने हैं। यहीं नहीं, मूंगफली के छिलकों से पूरे कपार्टमेंट को गंदा कर देना, शौचालय में गये तो सीट से अलग शौच करना, फ्लैश नहीं चलाना, शौचालय के दीवारों पर कलम अथवा पेंसिल से अपनी कुत्सित भावनाओं को उकेरना, यहीं तो हम करते हैं, और करते आ रहे हैं, करते रहेंगे। गर पैसे ज्यादा हो गये तो एसीवाली बॉगी में भी वहीं हरकतें करना, पान की पींक बर्थ व सीट के नीचे फेंक देना, खाने-पीने के सामानों को यूज कर, उसके शेषांश इधर - उधर फेंक देना, और फिर इन गंदगियों के बीच भारतीय राजनीति पर चर्चा करते हुए, सारी गंदगियों और भ्रष्टाचार को लेकर, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं पर अपना गुस्सा निकालना, पर कभी भी किसी भी हालत में स्वयं को नहीं परखना कि हमारी थोड़ी सी गलती और नासमझी ने, उस जगह को नर्क बना दिया, जिस नर्क ने गंतव्य की ओर पहुचंने के क्रम में नाना प्रकार की बीमारियां उन्हें भी दी, जिन्होंने इसे फैला दी थी। ये वो लोग हैं, जो अपने घरों में रहते हैं तो ऐसी गंदगी अपने घरों में नहीं फैलाते, पर दूसरों के घरों और अन्य जगहों पर, इनकों सारा जगह कूड़ा ही नजर आता हैं, या यों कहें तो इन्हें कूड़े - कचड़े में रहना ही ज्यादा मजा आता हैं, इसलिए हर प्रकार की गंदगियां फैला देते हैं। एक दिन इन्हीं गंदगियों के बीच, धनबाद से रांची जाने का अवसर मिला। हम आपको बता दें कि धनबाद से रांची जाने के लिए हमें धनबाद एलेप्पी एक्सप्रेस पकड़नी थी। उस ट्रेन में मात्र एक ही जेनरल बॉगी होता हैं, जिसमें हम जैसे तैसे घूसे। भीड़ इतनी थी कि मुझे ट्रेन के बागी के प्रवेश द्वार पर ही टिकना पड़ा। ट्रेन खुल चुकी थी, एक व्यक्ति जो दिखने मे सज्जन, गले मे सोने की चैन, हाथ में महंगी घड़ी, सुट पहने, पांव में शानदार जूते और मुंह में गुटके चबाये थे, पास में ही खड़े थे। गुटके का गंध शायद उनको ज्यादा पसंद आ रहा था, पर उस गंध से कई लोग परेशान दीखे, मेरी तो हाल ये थी कि पूछिये मत। अचानक, मैने देखा कि जनाब ने, इधर - उधर नजर दौड़ायी, और ट्रेन के दोनो ओर बने शौचालय के बीच वाली जगह में गुटखे की ऐसी पिचकारी छोड़ी की कई लोगों के कपड़ों में वो लगने से बची। जनाब ने तो खुद राहत महसूस की, पर लोगों के हालत देखने लायक थे। मैने उस जनाब से कहा कि आप दिखने में तो रईस लगते है, कहां जाना हैं। उन्होंने बताया कि, उन्हें बस रांची जानी हैं। बात बढ़ी, मैंने कहा कि जब आप जैसे महानुभावों के लिए भारतीय रेल ने एक - एक बागी में छह- छह पीकदान, चार- चार शौचालय और उसमें भी पीकदान की व्यवस्था कर दी हैं तो फिर आप उसका उपयोग क्यों नहीं करते, क्यों दूसरो पर गुटखे का धौंस जमाते हुए, बागी को पीक से कलरफूल बनाने की कोशिश करते हैं, इससे लोगों को दिक्कत होती हैं, आपको समझ में नहीं आता। बस क्या था, जनाब भड़क गये, उन्हें इस बात को लेकर गुस्सा था कि मैंने उन्हें आईना क्यूं दिखाया, आईना दिखाया तो दिखाया, उसमें उनका चेहरा क्यूं नजर आया। वे पील पड़ें, चलिए आपको देख लूंगा। बात बढ़ती चली गयी। अचानक मैने देखा कि कोई मेरे पांव को स्पर्श कर रहा हैं, पता चला - कि स्पर्श करनेवाला व्यक्ति और कोई नहीं, नेत्रहीन हैं। शायद वो कुछ कहना चाहता हैं। नेत्रहीन व्यक्ति ने मुझसे कहा - ऐ बेटा।
मानुष मानुष बहुत हैं, मानुष में बड़ भेद।
कोई कोई तो मानुष हैं, बाकी भूत - प्रेत।।

उस नेत्रहीन ने, जैसे लगा कि सब कुछ क्लियर कर दिया। कि जो इस ट्रेन में सवार थे, सभी दीख तो मनुष्य रहे थे, पर इनमें भी मनुष्यों की संख्या कम ही थी। ज्यादा तो भूत-प्रेत ही दीख रहे थे। जिन्हें न तो इंसानियत और न ही साफ - सफाई से मतलब था। मतलब तो केवल एक था कि खुद साफ रहो और दूसरे को गंदा करते रहो। नेत्रहीन के संवाद ने तो स्पष्ट ये भी किया कि इन आंखवालों के बीच में एक ही आंखवाला था, जो नेत्रहीन था, पर अपने विचारों और दोहों से मुझे इतना प्रभावित किया, कि उसे घटना को आज तक मैं भूल ही नहीं पाया।

Friday, November 18, 2011

मुझे मेरा बचपन लौटा दो.....................


पता नहीं क्यूं...। आज मुझे मेरा बचपन याद आ रहा हैं। वो दौड़ लगाना, छुक- छुक करती रेल की तरह भागते जाना, तालाबों, खेतों - खलिहानों के बीच दौड़ते जाना, जाड़े के दिनों में हांडी में आलू रख औंधा लगाना, हवाओं से भी तेज भागते हुए, उसकी खिल्ली उड़ाना, अपने बाल दोस्तों के बीच सभा करना, मस्ती के आलम में डूबे रहना, बिजली कटने के बाद, बिजली आने पर हंगामा मचाते हुए, घर की ओर लौटना.... वो समय फिर जिंदगी में लौट कर क्यूं नहीं आता.........।
आज तो कंम्पयूटर का युग हैं, अपने बचपन की तलाश, मैं जब आज के बच्चों से करता हूं, तो पता चलता हैं कि आज के बच्चों और कल के बच्चों की सोच और बालपन में काफी अंतर आया हैं, कुछ में तो आज के बच्चे बहुत आगे निकल चुके हैं तो कुछ में बहुत पीछे..............।
कमाल के वो दिन थे, एक से एक खेल। मानो किसी ने खेल पर शोध कर, एक से एक खेल का इजाद किया हो। एक खेल खत्म नहीं हुआ कि दूसरा खेल शुरु और दुसरा खेल खत्म नहीं हुआ कि तीसरा खेल शुरु, खेलों के जैसे मौसम हुआ करते, ठीक उसी प्रकार जैसे पर्वों और त्योहारों के.....।
कहां से शुरु करुं और कहां से अंत। मुझे समझ में नहीं आ रहा, पर इतना जरुर हैं, जो भी लिंखूंगा, शायद वो पाठकों को पसंद आये या कुछ पाठकों को लगेगा कि अरे वे इस खेल को अपने जीवन में कभी उतार चुके हैं। खेलों में सबसे पहला और मनोरंजक खेल होता, पहाड़ - पानी। कई के घर के ओटे पहाड़ बन जाते और ओटे की जमीन पानी बन जाती। इसमें भाग लेनेवाले बाल सदस्यों की कोई सीमा नहीं रहती, जो भी शामिल हो जाये, अच्छा हैं, लेकिन सबसे पहले पानी में कौन रहेगा। इसके लिए चुनाव होता। वह भी चुनाव बड़ा मनोरंजक होता, कविताओं के सहारे, सबसे पहले पानी के अंदर रहनेवाले बाल सदस्य का चुनाव होता.................
कविता इस प्रकार की होती.......................
दस, बीस, तीस, चालीस, पचास, साठ, सत्तर, अस्सी, नब्बे, सौ,
सौ में लागा धागा, चोर निकलके भागा,
पाव रोटी बिस्कुट, मेम खाये कुट-कुट
साहेब बोला भेरी गुड।
जैसे ही गुड आता, जिसके पास ये शब्द बोलते हुए आ गये, वो बाहर होता जाता और जो अंत में पड़ा वो पानी में रह गया। अब पानी में रहनेवाला बाल सदस्य पहाड़ पर रहनेवाले बाल सदस्यों का पीछा करता, वह भी तब जब पहाड़ पर रहनेवाला कोई बाल सदस्य पानी में उतरने की कोशिश करता.....। जो कोई पानी में रहनेवाले बाल सदस्य से स्पर्श हो जाता, फिर वहीं वैसा क्रम दुहराता चला जाता....। इसी प्रकार ये क्रम चलता जाता, कब ऐसे में समय बीत जाता पता ही नहीं चलता। इसी तरह एक और खेल था -- बिल्ली चुहा। एक छोटा सा ओटा का कोना, जिसमें आवश्यकता से अधिक बच्चे बैठ जाते, और एक दूसरे को ठेलने की कोशिश करते, इसी क्रम में बच्चों का दल एक दूसरे को पछाड़ रहा होता, यानी ओटे से हटा रहा होता, हटनेवाला बच्चा और ओटे पर कब्जा करनेवाला बच्चा एक दूसरे को देख खिलखिला रहा होता, इस दरम्यान बच्चे, कुछ दोहे भी पढ़ रहे होते, जैसे - ऐ बिल्ली, क्या चुहा, धक्कम धुक्कम होए लड़ईया...............।
जब रात में बिजली कट गयी रहती तो हमारे मुहल्ले के गली में रहनेवाले किसानों के बच्चे सड़कों पर आ जाते. वे भी एक से एक खेल, खेला करते। खेल का नाम था - एक मन की सुतरी। इस खेल में भी बच्चों की संख्या अनिश्चित रहती, खेल बड़ा मनोरंजक होता। जो सबसे बड़ा बच्चा होता, वो ओटे पर बैठकर, एक बच्चे का हाथों से आंखें मूंदकर, ये पूछता कि आटी से पाटी, फलां बच्चे की ... किधर पाटी। गर वो बच्चा सही बता देता, तो कोई बात नहीं, लेकिन गर गलत बताता, तो उसे उस बच्चे को, अपने पीठ पर तब तक चढ़ाये रखना होता, जब तक वो सही उत्तर नहीं दे देता। इस क्रम में ओटे पर बैठा सबसे बड़ा सदस्य, एक हाथ से उसकी आंख मूंदकर, दूसरे हाथों को पीठ पर रख अंगूलियों की संख्या को दर्शाता और पूछता -- एक मन की सूतरी बरियारी घोड़ी के गो....। वो गर संख्या सही बता दिया कि पांच या दो। तो बस पीठ पर चढ़ा बाल सदस्य, नीचे उतर जाता और फिर उसे वो करना पड़ता, जो वो बाल सदस्य कर रहा था................।
इसी प्रकार का खेल था -- चिट्ठी का खेल। इसमें भी बच्चों की संख्या कोई निश्चित नहीं रहती। एक वरिष्ठ बाल सदस्य - एक अन्य बाल सदस्य को अपने पास रखता, और अन्य बाल सदस्यों को दूर भेज देता। फिर वरिष्ठ बाल सदस्य, एक एक कर बाल सदस्यों को अपने पास बुलाता, कहता - ए राजा।
दूसरा बाल सदस्य -- क्या खाजा
वरिष्ठ बाल सदस्य -- तेरे बाप कन से चिट्ठी आया।
दूसरा बाल सदस्य -- क्या क्या।
वरिष्ठ बाल सदस्य -- हाथी, घोड़ा, एरोप्लेन, हेलीकाप्टर, कार, फटफटिया
दूसरा बाल सदस्य -- अपने पसंद का कोई यातायात का साधन बोल देता, वरिष्ठ बाल सदस्य के इशारे पर कोई भी बच्चा, वो यातायात के साधन की आवाज निकालता हुआ जाता, ओर उसे ले आता। इसी प्रकार, एक एक कर बाल सदस्य, वरिष्ठ बाल सदस्य के पास आते जाते और खेल खत्म हो जाता।
दादी अम्मा के खेल का जवाब ही नहीं था। एक वरिष्ठ बाल सदस्य किसी उंचे जगह पर बैठकर, दादी अम्मा बन जाता, और दूसरे कई बाल सदस्य शोर करते हुए, दादी अम्मा बनी हुई बाल सदस्य के पास जाकर चिल्लाते - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउ
दादी अम्मा बोलती - नहीं बच्चों
फिर - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउं
दादी अम्मा बोलती - नहीं बच्चों।
फिर - दादी अम्मा, दादी अम्मा खेलने जाउ
दादी अम्मा बोलती - जाओ बच्चों, इसके बाद बच्चे खूब खेलकूद कर शोर मचा रहे होते। इसके बाद दादी अम्मा बच्चों को बुलाती और कहती।
दादी अम्मा - आओ बच्चों।
बच्चे शोर कर बोलते - नहीं आउंगीं
दादी बोलती - सोने का गिलास दुंगी।
बच्चे - नहीं आऊंगी।
दादी - सोने का कटोरो दुंगी।
बच्चे - नहीं आउंगी।
दादी - सोने का किताब दुंगी।
बच्चे - नहीं आउँगी।
दादी - सोने का भगवान दुंगी।
बच्चे - आउंगी।
और जब बच्चे, दादी अम्मा के पास पहुंचते, तो दादी अम्मा बना बच्चा, अपने बच्चों को लाड प्यार कर रहा होता।
फिर दादी पूछती। कहा गये थे - नानी कन।
दादी -- क्या - क्या खाये
बच्चे - लड्डू पेड़ा
दादी - हमारे लिये क्या लाये
बच्चे - गुड़़ का पकौड़ा, गुड़़ का पकौड़ा, बोलने के साथ ही बच्चे भाग निकलते, और इधर गुस्से से लाल पीली होती दादी, बच्चों को दौड़ा दी होती।
एक खेल था - सोने का पुल। ये ऐसा था कि रोज टूटता और रोज जूटता अथवा बनता। दो बच्चे एक दूसरे के विपरीत खड़े हो जाते, अपने दोनों हाथों को ऊंचा उठाते हुए, जोड़े रहते और पुल बन जाता। कई लड़कों का दल, पंक्तिबद्ध होकर, खड़ो होता। आगे वाला बच्चा - पुल से अनुरोध करता और कहता -- सोने के पुल में जाने दो।
पुल कहता -- सोने का पुल टूट गया।
बच्चे - हीरा मोती जूड़वा दो।
पुल - दाम कौन देगा।
बच्चे - पीछे वाला।
और इस प्रकार जो पीछे होता, पुल बना सदस्य उसे पकड़ लेता और पूछता किस तरफ रहोगे, हमारी या दूसरी तरफ। पकड़ा गया बाल सदस्य, नखरे दिखाता, और अपनी मर्जी के अनुसार पुल बने दो बालसदस्यों में से किसी एक का चुनाव कर लेता।
कितना पानी - गोपी चंदर।
अपने मुहल्ले में कई बच्चे ऐसे होते जो कई बाल सदस्यों के साथ मिलकर हाथों से जोड़ एक गोलाकर शृंखला बना लेता और गोल गोल घूमा करते। इस गोल- गोल घूमने के बीच एक बाल सदस्य होता, उससे पूछा करते, कहते - हरा समुंदर, गोपी चंदर, बोल मेरी मछली कितना पानी।
बीच में पड़ा मछली बना, बाल सदस्य, पांव के पास हाथ लाकर, कहता, इतना पानी। इसी तरह गोलाकार घूमते बच्चे पूछा करते और मछली बना बाल सदस्य हाथों से इशारा करते हुए बताता, कि इतना पानी, वो भी तब तक, जब तक पानी सर से पार न कर जाये, यानी बिना पानी के ही खेल का मजा आ जाता।
खेल - खेल में पढ़ाई का भी मजा, कई बच्चे ले लिया करते। गणित तो इससे मजबूत जरुर हो जाता। खेल का नाम था - सीताराम चिल्होरियो।
इस खेल में दो दल होते। जिसमें बाल सद्स्यों की संख्या समान होती। दोनों दल विपरीत दिशा में जाते। एक निश्चित समय में छुपा कर, लाईन पारकर, संख्याओं को निर्देशित करते। जब समय पार कर जाता और जिस दल को लगता था कि वो संख्या में जीत सकता हैं वो सीताराम चिल्हौरियो बोल दिया करताष यानी काम खत्म। अब आप इससे अधिक नहीं लिख सकते। दोनों दल एक दूसरे के लाईन पारे हुए पंक्तियों को काटने का प्रयास करते। जो दल नहीं ढूंढ सका वो पंक्ति के आधार पर, काउंट कर विजेता बन जाता।
बारिश के दिनों में में तो मजे ही मजे थे। भगवान से विशेष प्रार्थना की जाती कि हे प्रभु। स्कुल की छुट्टी के समय, इतना पानी बरसे की, बस भींगते हुए, घर जाने का मौका मिले, पर भगवान प्रार्थना स्वीकार ही नहीं करते, लेकिन जिस दिन प्रार्थना स्वीकार करते। उस दिन भींगने का मजा जरुर लेते। इधर मां भी जैसे कोपमुद्रा में दरवाजे पर खड़ी मिलती, खूब डांट मिलती, कभी भुजदंड से पिटाई भी हो जाती। मां को शायद बीमारी का ज्यादा खतरा रहता, लेकिन बीमारी ऐसी की आती ही नहीं। पिटाई स्वीकार था, पर बारिश में न भींगना मंजूर नहीं। गर कभी बुखार लग गयी तो सेवा सुश्रुषा शुऱु। भगवान से प्रार्थना से लेकर मस्जिद की दुआओँ तक की दौड़ हो जाती। घर में सभी लोग, इतना भाव देते की, पूछिये मत, ऐसा लगता कि इस रोज के कच - कच से अच्छा है कि बीमारी की एक्टिंग ही, कर ली जाये।
इधर जब इन्द्र भगवान जब ज्यादा मेहरबान हो जाते, तो लीजिए, बच्चों के दल ने सोचा कि क्या उपाय किया जाय। बादलों को फाड़ने की व्यवस्था भी बच्चों पर रहती। सभी बच्चे मिल जाते। एक लंबी फट्टी या लोहे के डंडे का जूगार किया जाता और एक छोड़ पर कपड़ें की लूत्ती बनायी जाती, जिसमें मिट्टी का तेल डालकर, आग लगाया जाता। फिर एक एक घर जाकर, उस लुत्ती में तेल डलवाया जाता। सारे बच्चे, घर - घर जाते और कहते जाते -- बदरी के ..... में लुत्ती फुत्ती, करे गोसाईयां घामे घाम। पता नहीं क्या और कैसे। इंद्र भगवान को बच्चों की ये विनती सुनायी पड़ जाती और देखते देखते आकाश साफ हो जाता। फिर क्या बच्चे अपनी जीत पर फूंले नहीं समाते।
इसी प्रकार, जब बारिश के क्रम में धूप दिखायी पड़ जाता तो माना जाता कि जंगल में सियार की शादी हो रही हैं। हाथी को देख लेने पर तो सारे बच्चे उछल पड़ते और सभी के जूबां पर एक ही दोहा.....
आम के लकड़ी कराकरी, हथिया --- भराभरी।
आम के लकड़ी कादो में, हथिया .... भादो में।
ये कविता पता नहीं होठों पर कैसे आ जाते... आज तक समझ में नहीं आया। किसी को देख - कैसे अपने आप कविता और दोहे बनकर तैयार हो जाती, होठों पर शब्दों का जाल फैल जाता, कई बार समझने की कोशिश की पर समझ में नहीं आया, सोचता हूं कि गर अगली बार नयीं जिंदगी मिली तो मैं इस बचपन के अंश को खोना नहीं चाहूंगा।

Monday, November 14, 2011

झारखंड निर्माण के 11 वर्ष -------------------

15 नवम्बर 2000 बिहार के कुछ जिलों को मिलाकर एक नया झारखंड प्रांत उदय ले रहा था। झारखंड के प्रथम मुख्यमंत्री के रुप में बाबू लाल मरांडी ने शपथ ली थी, प्रथम राज्यपाल बनने का सौभाग्य प्रभात कुमार को मिला था, जबकि विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष बनने जा रहे थे - इंदर सिंह नामधारी। नया प्रांत, नये सपनों के साथ जन्म ले रहा था। इसके पूर्व बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राजद के नेता लालू प्रसाद यादव ने ताल ठोक दी थी कि झारखंड उनके लाश पर बनेगा, पर उनके रहते झारखंड बन चुका था। जब झारखंड जन्म ले रहा था, तो वे रांची में भी थे, पर उनका जादू धीरे धीरे इस इलाके में विलुप्त हो रहा था, या हम कह सकते हैं कि उनका सितारा बुलंदियों से नीचे की ओर सरकना शुरु हुआ था जो आज भी सरकता ही जा रहा हैं। लालू और उऩके जैसे कई नेता ये भी कहते थे कि गर झारखंड बन गया तो बिहार में लालू, बालू और आलू ही दिखाई पड़ेंगे। सच्चाई ये भी हैं कि जब तक मुख्यमंत्री बाबू लाल मरांडी रहे, लगता था कि ये कथन सच हो जायेगा, पर जैसे ही उनकी तख्ता, उनसे खार खाये जदयू के नेताओं ने पलटी, झारखंड फिर ठीक से खड़ा नहीं हो सका। जबकि इसके विपरीत बिहार नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रगति के शिखर की ओर बढ़ रहा हैं, ऐसा इसलिए लिखना पड़ रहा हैं कि कुछ पत्र पत्रिकाओं ने नीतीश की कार्य कुशलताओं की प्रशंसा की हैं, लेकिन हमसे गर पूछे तो मुझे नीतीश न कल अच्छे लगे थे और न ही आज। ये अहंकारी पुरुष हैं, ये अलग बात हैं कि इनका कुछ काम ठीक दीखता हैं, पर इनके शासनकाल में भी लॉ एंड आर्डर की वहीं स्थिति हैं जो लालू के काल में थी। अरे जो व्यक्ति बिहार के लोकपर्व छठ पर घाटों की स्थिति नहीं सुधार सकता, जिसके शासनकाल में 24 से अधिक घाटों पर व्रत करने पर प्रतिबंध लगा दिये जाते हो, वो गर कहें कि हम विकास की रास्ते पर हैं, तो बड़ा आश्चर्य लगता हैं। फिर भी जब सब कह रहे हैं, ठीक हैं, तो चलों हम भी कह देते हैं, ठीक हैं, ऐसा कहना वैचारिक दृष्टिकोण से नीतीश के आगे आत्मसमर्पण कर देना होगा, फिर भी बिहार झारखंड के मुकाबले अच्छी स्थिति में हैं, ये मानने में हमें गुरेज नहीं।
हमें याद हैं, जब बिहार से झारखंड अलग हो रहा था, तब उस वक्त मैं पटना स्थित दैनिक जागरण कार्यालय में कार्यरत था और मुझे मोतिहारी की जिम्मेदारी सौपी जा रही थी। उस दिन मुझे झारखंड की राजधानी रांची से निकलनेवाली प्रभात खबर समाचार पत्र खूब याद आयी। वो इसलिए कि प्रभात खबर, अपने समाचार पत्र में कुछ पृष्ठ तो झारखंड के नाम से ही निकालता था। उस वक्त जब कई समाचार पत्र जो रांची से ही प्रकाशित होते थे, झारखंड लिखने से ही परहेज करते थे, पर आज झारखंड शब्द को लिखकर गौरवान्वित हो रहे थे। जिस दिन झारखंड बना, उस दिन तो इस समाचार पत्र ने ऐसे विशेषांक निकाले, जो संग्रहणीय़ थे, पर चूंकि मैं रांची में नहीं था, वो संस्करण मुझे मिले नहीं, जो मेरे मित्र व परिजन रांची में थे, उन्हें कहां था कि वो संजो कर रखे, पर देर से आने का कारण रहा या मित्रों की याददाश्त की कमी, वो संजो कर नहीं रख सकें, पर वो विशेषांक आज तक मुझे नहीं मिले, फिर भी जो लेखकों व अन्य पत्रकारों से जो मुझे संस्मरण मिले, वो बताते कि इस समाचार पत्र ने कितनी मेहनत की थी।
झारखंड बनने के बाद, इस प्रांत में विकास के रास्ते खुले थे, जिस बिहार प्रांत में सड़कें कागजों में ही बन जाती थी, यहां सडकें दिखाई देने लगी। पुल पुलियों को ठीक कराया जाने लगा। स्कूलों में कल्याण विभाग सक्रिय दिखा। लड़कियां सायकिलों पर स्कूल जाने लगी थी। आदिवासी बहुल इलाकों में आदिवासियों के कल्याण के लिए कई कार्यक्रम शुरु किये जाने लगे थे। सरकारी स्कूलों मे बिहार पैटर्न को छोड़ सीबीएसई पैटर्न लागू कर दिया गया। बच्चों को मुफ्त में किताबे मिलने लगी। शिक्षा का स्तर सुधार होता दिखा। जहां बिजली दिखाई नहीं पड़ती थी वो बिजली अब यहां दिखाई पड़ने लगी। उद्योग धंधे खुलने शुरु हुए। कई परियोजनाओं को मूर्तरुप दिया जाने लगा। निजी कंपनियों के साथ एमओयू होने लगे, हालांकि इन एमओयू का विरोध भी हुआ। लेकिन बाबू लाल मरांडी के शासनकाल में उठी डोमिसाईल की आग ने झारखंड की प्रतिष्ठा में वो आग लगायी कि इस आग से आज भी झारखंड झूलस रहा हैं, हालांकि इस डोमिसाईल की आग को मीडिया ने भी हवा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक समाचार पत्र और कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया के लोगों ने इस प्रकार से इस आंदोलन को हवा दी, जैसे लगा की इस आग से कभी झारखंड उबर नहीं पायेगा, पर खुशी इस बात की हैं कि डोमिसाईल की आग, अब वैसी नहीं, फिर भी कहीं न कहीं, किसी न किसी रुप में ये जिंदा हैं, और इसका भय झारखंड में बाहर से आकर बसे पुराने व नये लोगों में स्पष्ट दीखता हैं।
बिहार और झारखंड अलग - अलग हैं। आज बिहार प्रगति की ओर हैं पर झारखंड प्रगति से कोसो दूर हैं। उसके कारण स्पष्ट हैं। बिहार में एक नेतृत्व और उसकी सोच साफ दिखाई पड़ती हैं, पर यहां नेतृत्व की कमी और उसकी स्पष्टता साफ दिखाई नहीं देती। बाबू लाल मरांडी के समय लगता था कि एक सोच हैं, स्पष्टता हैं, पर उसके बाद सभी में नेतृत्व करने की क्षमता और स्पष्टता का अभाव दिखता हैं। झारखंड निर्माण के बाद, आज तक झारखंड को अपना विधानसभा, अपना सचिवालय नहीं मिला और न इसे बनाने की जरुरत समझी गयी। खेल के क्षेत्र में ये प्रदेश एक मिसाल कायम कर सकता हैं, हम ये भी कह सकते है कि ये स्टेट स्पोर्टस स्टेट बनने की क्षमता रखता हैं, पर इस ओर ध्यान नहीं दिया गया, राष्ट्रीय खेल का समय तो यहां इस प्रकार से बार बार बदले गये कि इस प्रदेश की प्रतिष्ठा दांव पर लगती चली गयी, ऐसे देखा जाय तो खेल में बिहार झारखंड के आगे कहीं टिकता नजर नहीं आता। नया राज्य बनने के बाद राजधानी रांची को जिस प्रकार नये ढंग से बसाने की बात होनी चाहिए थी, उस पर तो आज तक कोई सुनने को तैयार नहीं, आज भी रांची की सभी सड़कों पर सड़क जाम की स्थिति सामान्य सी घटना होती हैं, यहां एक व्यक्ति को एक किलोमीटर की यात्रा संपन्न करने में एक घंटे लग जाते हैं। ये केवल राजधानी की स्थिति नहीं बल्कि झारखंड के सभी नगरों की हैं। विस्थापन, पलायन और गरीबी इस झारखंड की सबसे बड़ी समस्या हैं पर आजतक किसी ने भी इन समस्याओं को झारखंड से त्राण दिलाने की युक्ति नही निकाली।
नक्सल और झारखंड तो जैसे लगता हैं कि एक दूसरे के लिए ही बने हैं और इस नक्सल की समस्याओं को बढा़ने में, खाद और बीज का काम करते हैं यहां के राजनीतिज्ञ और प्रशासनिक अधिकारी। राजनीतिज्ञ तो विधानसभा में कुछ और सड़कों पर नक्सलियों के लिए कुछ और बयान देते हैं। उसका मूल कारण हैं कि वो जानते हैं कि नक्सलवाद यहां की मिट्टी में किस प्रकार जड़ समा चुका हैं। कुछ तो मानते हैं कि नक्सलवाद की समस्या, यहां से कभी खत्म ही नहीं होगी, पर मैं ऐसा नहीं मानता। गर राजनीतिज्ञों और प्रशासनिक अधिकारियों में इमानदारी के गुण आ जाये, विकास के रास्ते पर कदम बढ़ा दे, नक्सलियों के साथ कठोरता से पेश आये तो ये नक्सली किस चूहे के बिल में होंगे, पता ही नहीं चलेगा। जब पंजाब से आतंकवाद समाप्त हो सकता हैं। असम समस्या को काबू में किया जा सकता हैं, तो ऩक्सलवाद किस चिड़िया का नाम हैं। सच्चाई ये हैं कि नक्सलवाद बढ़ाने में यहां के राजनीतिज्ञों के दोहरे चरित्र ने ही मुख्य भूमिका निभायी हैं। जब विकास के नाम पर लूट होगी, राजनीतिज्ञ दस पुश्तों के लिए, धन इकट्ठा करने में लगायेंगे, तो फिर नक्सलवाद कैसे नहीं बढ़ेगा। यहां भ्रष्टाचार का आलम ये हैं कि यहां एक पूर्व मुख्यमंत्री और उनके शासनकाल के कई मंत्री होटवार जेल में कैदी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, ये झारखंड के ऐसे बदनूमा दाग हैं, जो फिलहाल कहीं से भी धूलते नजर नहीं आते। जब - जब भ्रष्टाचार की बात आती हैं - झारखंड सूर्खियों में ही रहता हैं, चाहे वो नरसिंहराव सरकार बचाने की बात हो अथवा झारखंड प्रांत बनने के बाद एक से बढ़कर एक किये गये घोटाले की बात ही क्यों न हो।
आज यहां जो सरकार चल रही हैं - गठबंधन की। वो क्या हैं। वो भी भ्रष्टाचार की ही देन हैं। जो एक दूसरे को फूंटी आंख देखना नहीं पसंद करते, वो सरकार चला रहे हैं। क्यूं चला रहे हैं. क्या किसी को पता नहीं। खुद यहां के मुख्यमंत्री दिल्ली और विदेश की यात्राओं की झड़ी लगा दी हैं। बगल में बिहार हैं, वहां के मुख्यमंत्री तो लगता हैं कि इतनी दिल्ली यात्रा भी नहीं की होगी, जितना की यहां के मुख्यमंत्री ने एक साल में विदेश की यात्रा कर ली हैं। इसी से पता लग जाता हैं कि कौन अपने प्रांत के लिए क्या कर रहा हैं। यहीं नहीं जरा इस एक साल में देखिये -- एक ओर बिहार में सेवा का अधिकार लागू हो चुका हैं, वहीं झारखंड में सरकार ने घोषणा तो कर दी पर ये सेवा का अधिकार कब लागू होगा, इसका अभी सगुन ही देखा जा रहा हैं, ऐसे में हमें नहीं लगता कि इस 11 वें साल को पूरा कर लेने के बाद भी झारखंड में कोई नयी चीज देखने को मिलेगी, फिर भी निराशावादी से आशावादी होना अच्छा हैं। आशा करेंगे कि क्रिकेट में जैसे धौनी, सौरभ और अब वरुण ने झारखंड में आशा का संचार पैदा किया हैं। राजनीति व प्रशासनिक क्षेत्र में भी कुछ नये चेहरे दिखेंगे जो झारखंड को नयी बुलंदियों तक पहुंचायेंगे, फिलहाल जो पुराने चेहरे हैं, उनसे आशा करना बेमानी होगी, क्योंकि अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य बनता हैं। अतीत तो भ्रष्टाचार में गोता लगाता हुआ दिखा हैं, यहीं कारण हैं कि वर्तमान में कुछ हैं ही नहीं, पर देखे आगे क्या होता हैं..............

Tuesday, November 1, 2011

दरसन दीहिन अपान दीनानाथ, भेंट लीहिन हमार...............

को दस साल उस वक्त उम्र रही होगी। मां छठव्रत कर रही थी और गीत गाती जाती थी, साथ ही इशारों - इशारों में मुझे कुछ कह रही होती और मैं भी उन इशारों को समझ कर, दोनों हाथों को जोड़कर बैठ जाता, मां के गीतों के भाव सब कुछ कह देते कि वो भगवान भास्कर और छठि मईया से क्या चाहती हैं। मैं भी मां से पूछता कि मां ये छठि मईया कौन हैं, भगवान भास्कर को क्यों अर्घ्य देते हैं। मां बताती जाती, मेरा भी बालमन, एक प्रश्न का उतर जैसे ही खत्म होता कि दूसरा शुरु...। पर मां कभी गुस्साती ही नहीं। घर में छठ का होना बहुत ही अच्छा लगता, हमें पता हैं कि जिस घर में छठ होता, मुहल्ले के लोग छठव्रतियों और उऩके परिवार पर विशेष श्रद्धा लुटाते। नहाय खा के दिन तो मैं देखता कि जिसके घऱ में कद्दू फलता, वो बिना पैसे ही लिये कद्दू बांट देता, इसी तरह फलों की भी बारी होती, जिसके घर में घाघरा निंबू या केले के पेड़े होते गर उसके यहां उस कालखंड में फल प्राप्त हुए हैं तो वो स्वयं खाने के बजाय छठि मइया को भोग लगाना नहीं भूलता। पता नहीं क्यूं, मुझे आज भी याद हैं कि जब से होश आया -- तब से लेकर आज तक छठ व्रत के नहाय खा के दिन जो प्रसाद तैयार होता, उस प्रसाद के स्वाद को मैं, फिर सालों भर ढूंढने की कोशिश करता, प्राप्त ही नहीं होता, शायद छठि मइया और भगवान भास्कर के भाव का ही प्रताप हैं कि उस प्रसाद में, गजब के स्वाद मिल जाते हैं जो फिर दूसरे दिन के बाद से मिल ही नहीं पाते।
यहीं नहीं पूरा मुहल्ला दीपावली के समाप्त होते ही एक ही काम में लग जाता कि छठ व्रत को धूमधाम से कम, पर पवित्रता से अधिक मनाना हैं। सादगी खूब झलकती। साड़ी तो कम पर पीली धोती सूखाने का काम जरुर शुरु हो जाता। पीली धोती सुख रही हैं - मतलब इनके घर में छठ होना हैं। खरना के दिन कई घरों में भगवान सत्यनारायण की पूजा और शंख ध्वनि मन को और पवित्र बनाती। हमारे मुहल्ले में चूंकि किसानों के परिवार अधिक थे, इसलिए यहां सत्यनारायण की पूजा की समाप्ति के बाद झाल करतालों, ढोल के बीच - राजाराम जी की आरती, मन को और आह्लादित करती, और ठीक इसके बाद जिस दिन पहला अर्घ्य देना हैं, नवयुवकों की टोली, हाथों में झाडू लेकर सड़कों की ऐसी सफाई करती, जैसे लगता कि स्वर्ग धरती पर उतर आया हो। हमारे बाबूजी भी हाथ में पानी भरा बाल्टी लेते और जहां तक हो पाता, वे सड़कों के धूलों को उड़ने न देने का विशेष प्रयास करते, पानी छिडकते, कुछ युवाओं को मैं देखता कि वे बाबूजी के पानी की बाल्टी लेने का प्रयास करते और कहते कि बाबा आप पानी मत छीटिये, हम हैं न, सब कर देंगे, आप आराम से बैठिये, आप केवल दिशा निर्देश दीजिये, पर बाबूजी हमारे कहां माननेवाले, वे कहते कि हमें भी भगवान के सेवाकार्यों में लग जाने दो। एक दिन हमने ये कहते और करते बाबूजी से पूछ ही डाला कि भगवान को आपने देखा हैं, बाबूजी कहते हां, देखा हैं, जब कोई प्रसन्नचित हो, समाज सेवा या राष्ट्रसेवा कर रहा होता हैं तो वो भगवान ही तो होता हैं। मैं बोलता तब तो हमारा सारा मुहल्ला सच्चे अर्थों में समाज सेवा में लगा हैं, तब तो सभी भगवान हैं. बाबूजी कहते कि हां ये व्रत ही स्वयं को मनुष्य और देवत्व की ओर ले जाने की प्रेरणा देता हैं, गर सभी इसी प्रकार का काम करें जैसा कि आज कर रहे हैं तो फिर इस मुहल्ले में कहीं कोई गंदगी नहीं रहेगी और न ही कोई दुखी रहेगा, क्योंकि देख रहे हो, जो कल तक एक दूसरे से लड़ते थे, वे भी आज पूछ रहे हैं कि तुम्हारे यहां जो छठव्रत हो रहा हैं, उसमें कहीं कोई दिक्कत तो नहीं, अरे वो देखों, वो तो छठ का दौरा ले जा रहा हैं, कौन हैं वो, पता चला कि अरे वो तो भिखारी भाई हैं, पर ये क्या, ये तो ऐसे व्यक्ति का दौरा माथे पर लिये हैं, जिनसे कभी उनकी पटी ही नहीं। धन्य हैं छठि मइया और भगवान भास्कर जो काम कोई नहीं कर सका, वो आपने कर दिखाया।
यहीं हाल घाटों का होता, सभी एक दूसरे को सहयोग करते नजर आते, आगे या पीछे छठव्रती नजर आते, तो लोग उन्हें पहले जाने का रास्ता दिखाते, गर साष्टांग प्रणाम कर रही होती छठव्रती, तो उनके आगे शीष नवाना नहीं भूलते, उस वक्त लोग ये भूल जाते कि वो किस जाति की हैं, बस ख्याल यहीं हैं कि वो छठवती हैं। ये परिदृश्य आज भी हमारे मुहल्ले में देखने को मिलते हैं, कभी कभी सोचता हूं कि कितना अच्छा रहता कि ये छठव्रत प्रतिदिन हो जाता, पर सच्चाई ये हैं कि जो प्रतिदिन होता हैं, उसकी महत्ता घटते देर नहीं लगती, चलिए गर एक ही दिन स्वर्ग पृथ्वी पर आ जाये और हम बावले होकर, उसका आनन्द ले, तो क्या गलत हैं।
आज एक से एक लेटेस्ट टेक्नालाजी हमारे सामने हैं, सबके पास इयर फोन हैं पर उस वक्त ले देकर, एक रिकार्ड बजानेवाला ही यंत्र था और उसमें ले देकर दो ही छठ के गीत और उसी में पूरा छठ समाप्त। वो गीत थे -- जिसमें एक तरफ था -- उ जे केलवा जे फरेला घवद से, उपर सूग्गा मोर राय, उ जे खबरि जनइवो अदित से, आदित होखी न सहाय, और दूसरा गीत था -- दरसन दिहि न अपान दीनानाथ, भेंट लीहि न हमार। जिसमें ये भी संदेश होता कि हे ईश्वर गर बेटा देना तो सभा में बैठने लायक देना, नहीं तो संख्या बढ़ानेवाला नहीं देना, बेटी जरुर देना, क्योंकि बिना बेटी के घर का आंगन नहीं शोभता। जरा गीत के बोल देखिये - सभवा बैठन के बेटा मांगिल, गोरवा दबन के पूतोह, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान..... रुनकी झूनकी बेटी मांगिल, पढ़ल पंडितवा दमाद, दीनानाथ, दरसन दीहि न अपान.....। ये गीत के बोल स्पष्ट कह देते कि ये व्रत आनेवाले प्रारब्ध को ठीक करने का भी पर्व हैं। पर क्या आधुनिक समाज इस संबंध में कुछ सोच रहा हैं कि जैसे ये गीत विलुप्त हो गये, हमारे चरित्र भी विलुप्त हो गये, गर ये चरित्र, उन गीतों की तरह विलुप्त हो गये हैं तो जरुरत हैं, इस ओर ध्यान देने की, नहीं तो आनेवाली पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी।
किसी भी देश में पर्व व त्योहार, इसलिए नहीं बने कि आप केवल आनन्द मनाये, इसलिए भी बने है कि आनन्द के साथ - साथ उस पर्व की व्यावहारिकता को समझे। कल एक सज्जन हमसे मिले, उन्होंने कहा कि जनाब, इतनी महंगाई है कि आदमी क्या छठ करेगा। मैंने, उनसे साफ कहा कि क्या भगवान भास्कर और छठि मइया आपसे कुछ मांगे हैं क्या, और गर आपसे वो मांग भी ले तो क्या आप उनकी मांगों की पूर्ति करने के लायक हैं, गर नहीं तो फिर इस प्रकार के प्रलाप क्यों। मैंने तो देखा कि अपने मुहल्ले में कई ऐसे गरीब भी थे, जिनके पास फूंटी कौड़ी तक नहीं थी, पर वे भी छठव्रत करते, उनके उत्साह में अथवा जोश में किसी भी प्रकार की कमी नहीं दिखती। बस उपवास किया, चले गये मां गंगा के गोद में, जमकर नहाया, शरीर को रगड़ा और दोनो हाथ जोड़कर भगवान भास्कर के घ्यान में लग गये और जब अर्घ्य का वेला आया, उसी गंगा के गोद में बैठकर अथवा खड़े होकर, उसी के जल से अर्घ्य दे डाला, लीजिये व्रत संपल्न। छठि मईया खुश और भगवान भास्कर भी खुश।
कमाल की बात हैं कि जिस परम ज्ञान को आज की आधुनिक पीढ़ी विभिन्न विश्विविद्यालयों में पढ़कर नहीं प्राप्त कर सकी थी, उस परम ज्ञान को एक सामान्य, गरीब आदमी बिना कलम और किताब लिये प्राप्त कर लिया था. कि कार्तिक शुक्ल रवि षष्ठी व्रत के दिन ही आदिशक्ति का प्रादुर्भाव, भगवान भास्कर की रश्मियों में हो जाता हैं तो भला ऐसे में उन परम शक्तियों को प्राप्त क्यूं न करें। कम से कम ब्रह्मवैवर्तपुराण तो ये ही कहता हैं। शायद यहीं कारण रहा होगा कि अपने देश में एक से एक मणीषी हुए, जिन्होंने न तो कलम छूयी और न किताब पढ़ी, पर परमज्ञान को इस प्रकार पा लिया कि जिसकी परिकल्पना आज की पीढ़ी तो कम से कम नहीं ही कर सकती, क्योंकि आज की पीढ़ी तो सिर्फ ये देखती हैं कि उसे कितने का पैकेज मिलता हैं। भला छठव्रत करने से पैकेज मिलेंगे क्या, गर पैकेज मिलेंगे ही नहीं तो इससे अच्छा हैं कि वो काम करे, जिससे पैकेज यानी धन प्राप्त हो। जबकि भारत पैकेज अथवा धन प्राप्त करने का देश नहीं, बल्कि स्वयं को खोकर, दूसरे को आह्लादित व प्रसन्नचित करने वाले देश का नाम हैं। हमे लगता हैं कि छठव्रत और भगवान भास्कर का ये महापर्व यहीं संदेश सदियों से देता आ रहा हैं। धन्य हैं वो प्रांत, जहां से ये व्रत चलकर संपूर्ण विश्व में फैलता जा रहा हैं, इस परिदृश्य को देख तो मैं यहीं कह सकता हूं कि भारत जिसकी संस्कृति इतनी गहरी हैं, 21वीं सदी में अपना सशक्त व जागृत रुप अवश्य दिखायेगा।