Thursday, November 29, 2012

ट्रेन में वो अनोखा प्यार........................

ये उन दिनों की बात है। जब मैं ईटीवी में अपनी सेवा दे रहा था। उन्हीं दिनों ईटीवी मुख्यालय हैदराबाद में हर तीन - तीन महीने पर ईटीवी के मालिक रामोजी राव स्वयं बैठकें लिया करते थे। समय - समय पर कुछ लोगों को उस बैठक में आमंत्रित भी किया जाता था। संयोग से उन दिनों, मैं तीन - चार बैठकों में भाग लिया था। इन्हीं बैठकों में भाग लेने के दौरान, मैंने फलकनुमा एक्सप्रेस में कुछ दृश्य देखे, जो आज भी हमें रोमांचित करते हैं। कभी - कभी तो मेरी जुबां से, उन दृश्यों को याद कर, ये शब्द अनायास निकल पड़ते हैं कि लोग प्यार को क्या समझते हैं। शारीरिक भूख अथवा त्याग की पराकाष्ठा। 
आज फिर वो दृश्य याद आये हैं। मैं अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूं और उन्हें शब्दों में पिरोने की कोशिश कर रहा हूं। मैं, अपने मित्रों के साथ हैदराबाद से रांची के लिए लौट रहा था। सिकन्दराबाद के आठ नंबर प्लेटफार्म पर, फलकनुमा एक्सप्रेस लगी थी। मैं उक्त ट्रेन में यथोचित बर्थ पर जाकर विश्राम की मुद्रा में आ गया। ट्रेन चल पड़ी थी। मुझे इस ट्रेन को खड़गपुर में छोड़कर, खड़गपुर से ही रांची के लिए हावड़ा हटिया एक्सप्रेस पकड़ना था। बच्चों की याद आ रही थी। साथ ही पत्रकारिता जगत में मनुष्य के रुप में छुपे पशु भी धीरे धीरे एक - एक कर हमारे हृदय में अवतरित हो रहे थे। कैसे लोग, अपनी घटियास्तर की मनोवृत्ति को, अक्षरशः सिद्ध करने के लिए, नाना प्रकार का कुकर्म करते हैं। वह भी देखकर, मैं अचंभित था। कुछ लोग इस प्रकार के बारे में, हमसे कह चुके थे -- जनाब यहीं दुनियादारी हैं। मैं दुनियादारी, शायद समझ रहा था। इसी दुनियादारी के क्रम में रांची, डालटनगंज और धनबाद की परिक्रमा कर चुका था, पर मैं अपने परिवार के द्वारा मिले संस्कार की बात कहूं या 32 वर्षों तक उन संस्कारित व्यक्तियों की मिली श्रृंखला कहूं, जिससे हमें यहीं प्राप्त हुआ कि गंगा बहती रहती हैं, कुछ लोग उससे आचमन करते हैं और कुछ लोग उसी में गंदगी बहाते हैं, पर गंगा तो गंगा हैं, उसे इससे क्या मतलब की, उसके जल से कौन क्या करता हैं, वो तो सदैंव पहले भी बहा करती थी, आज भी बहती हैं और कल भी बहेगी। लेकिन अब तो चिंता होती हैं कि गंगा अब कैसे बहेगी, कई ने इसकी धारा को रोकने का वो प्रयास शुरु किया हैं कि अब गंगा के भविष्य को भी खतरा उत्पन्न हो गया हैं, फिर भी इन सब बातों से दूर, आज गंगा बह रही हैं। यहीं हमारे लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।
बात कर रहा हूं, अनोखे प्यार की, कही विषय से विषयांतर न हो जाउं, इसका मुझे डर बराबर लगा रहता हैं, फिर भी, अब मैं उस प्लाट पर आता हूं, जो हमारे विषय का महत्वपूर्ण बिंदु है। फलकनुमा एक्सप्रेस अपनी तेजी से बढ़ी जा रही थी। रात कब बीती, पता ही न चला। देखते देखते ट्रेन सुबह के वक्त श्रीकाकुलम को पार करते हुए, उड़ीसा प्रांत में प्रवेश कर चुकी थी। अचानक मैंने देखा कि जिस डिब्बे में हम थे। उस डिब्बे में ब्रह्मपुर स्टेशन के पास एक वृद्ध जिनकी उम्र 85 की होगी, दयनीय अवस्था में, अपनी 77 -78 वर्षीया वृद्ध पत्नी के साथ जैसे - तैसे ट्रेन में सवार हुए। ट्रेन में सवार टीटीई ने उन्हें नीचे उतारने की असफल कोशिश की, पर वृद्ध और वृद्धा की कातर आंखों ने, उक्त टीटीर्ई पर ऐसा करने से रोक लगा चुकी थी। उधर वृद्ध ने वृद्धा को एक ओर बिठाया, थोड़ी राहत की सांस ली। राहत की सांस लेने के बाद, उक्त गर्मी में, वृद्धा की प्यास कैसे बुझे, वृद्ध ने ट्रेन में ही बिखड़े प्लास्टिक के बोतलों का सहारा लिया और उसमें पड़े पानी से वृद्धा की प्यास बुझायी। प्यास बुझाने के बाद, वृद्धा को कुछ सांकेतिक भाषाओं में समझाते हुए, उसने हर डिब्बे की चक्कर लगानी शुरु कर दी। इधर मैं अपने बर्थ पर जाकर, आराम करना शुरु किया, तभी अचानक, मुझे नीचे से कुछ सरकने की आवाज आयी। नीचे देखने पर, हमने देखा कि उक्त वृद्ध कुछ खोज रहा था। हमें अधिक दिमाग लगाने की जरुरत ही नहीं पड़ी। उसके एक हाथ में प्लास्टिक के बैग में पड़े भोजन के अवशेष बताने के लिए काफी थे कि वह रेलयात्रियों के खाये हुए भोजन से बचे जूठन से कुछ अपने लिए और अपनी पत्नी के लिए भोजन की तलाश कर रहा था। देखते - देखते, वह बहुत कुछ अपने लिए निकाल चुका था। फिर उसने अपनी पत्नी के पास जल्दी पहुंचना जरुरी समझा। इधर ट्रेन भुवनेश्वर के आस - पास आ चुकी थी। मैं थोड़ा अपनी बॉडी को सीधा करने के लिए, डिब्बे के दरवाजे तक पहुंचा।
डिब्बे के दरवाजे पर जो हमने दृश्य देखा, वो चौकानेवाले थे। वृद्धा गर्मी से बेहाल थी। संभव हैं, उसे बुखार भी होगा, क्योंकि जो उसके चेहरे थे, वो बहुत कुछ कह रहे थे। अचानक प्लास्टिक के थैले से वृद्ध ने भोजन के जूठन से एक टूटा फूटा अंडा निकाला और अपनी वृद्ध पत्नी को खाने को दिया। वृद्ध पत्नी ने उसे खाने से मना कर दिया। उसने  ( वृद्ध पत्नी ने ) कहा कि पहले तुम ( वृद्ध ) खाओ। वृद्ध ने कहा कि तुम ( वृद्ध पत्नी ) बीमार हो, तुम इसे खाओगी तो तुम्हें ताकत होगा, और जल्दी ठीक हो जाओगी। इधर वृद्ध पत्नी ने कहा कि नहीं ये अंडा हैं, इसमें बहुत ताकत होता हैं, तुम ( वृद्ध ) खाओगे, तो तुम्हें ताकत होगी, फिर तुम ( वृद्ध ) जब स्वस्थ होगे, तो तुम  ( वृद्ध ) देखभाल हमारी ( वृद्ध पत्नी को )अच्छी तरह कर सकोगे, नहीं तो हमारी देखभाल कौन करेगा। इसी प्रेमालाप वाली तकरार में समय बीत रहा था, पर न तो वृद्ध और न वृद्ध की पत्नी ही खाने को तैयार थे, अंत में दोनों ने निश्चय किया कि दोंनो आधी - आधी खायेंगे ताकि किसी को किसी के प्रति हीनभावना न आये और दोनों ने ऐसा ही किया। 
ऐसी अवस्था जहां पर कोई किसी को पूछने को तैयार नहीं, वहां ऐसी सोच, रेल में यात्रा करते समय हमें एक संदेश दे गया। प्रेम का मतलब क्या - स्वार्थ या त्याग। गर स्वार्थ है तो वहां प्रेम रह कैसे सकता हैं। जहां त्याग होता हैं वहीं तो प्रेम हैं। सचमुच फलकनुमा एक्सप्रेस की वो प्रेमगाथा, हमें आज भी याद आती हैं और मैं बेचैन हो उठता हूं। एक सवाल ये भी अपने आप से पूछता हूं कि दुनिया में कितने लोग हैं जो अपनी पत्नी को इस प्रकार से प्रेम करते हैं या पत्नियां अपने पति के प्रति इतना सुंदर भाव रखती हैं।

Tuesday, November 13, 2012

दीपावली के मर्म को समझिये, अपने देश से प्यार करना सीखिये..............................

आज दीपावली है। पूरे देश में दीपावली की धूम है। हर जगह जिनके पास पैसे हैं, उन्होंने अपने अट्टालिकाओं को खूब सजाया है, साथ ही उन अट्टालिकाओं के अंदर अपने जरुरत के सामानों की खूब खऱीदारी की हैं। दीवाली के दिन धमाका करने और जमकर मिठाई खाने का भी अच्छा प्रबंध किया हैं। प्रबंध करना भी चाहिए क्योंकि लक्ष्मी जी ने इन पर जब कृपा की हैं तो वो कृपा दृष्टिगोचर होना ही चाहिए पर सच्चाई ये भी हैं कि इन अट्टालिकाओं के आस - पास के कई घरों में आज भी चूल्हें नहीं जलेंगे, शायद लक्ष्मी जी इस बार भी उनके घरों से रुठी नजर आ रही है, पर खुशी इस बात की, इन गरीबों ने कम से कम देश का तो अहित नहीं ही किया। गर इनके पास भी पैसे होते तो शायद ये भी वहीं करते, जो हर दीपावली के दिन अट्टालिकाओं में रहनेवाले किया करते हैं, यानी विदेशी वस्तुओं की खरीदारी कर, दूसरे देशों के आर्थिक स्थिति को और मजबूत करते।
खैर छोडि़ये कौन क्या कर रहा हैं, ये तो उसके विवेक और देशभक्ति पर निर्भर करता हैं कि वे इन सारी चीजों को किस रुप में देखता हैं। एक व्यक्ति जन्म लेता हैं अपने देश को मजबूत बनाने के लिए और दूसरा व्यक्ति जन्म लेता हैं, ये करने के लिए कि देश से उसे क्या मतलब, पशुओं की तरह खाना - पीना, ऐश करना और दूनिया से चल देना हैं। ऐसे में ये जान लेना जरुरी हैं कि इस दीपावली में कौन से देश ने सर्वाधिक दीपावली का फायदा उठाया। आज क्या हो रहा हैं कि दीपावली का सर्वाधिक मुनाफा किसी ने उठाया तो वो हैं चीन, जापान और अमरीका जैसे देश। जरा देखिये चीन क्या कर रहा हैं। हमारे दीपावली पर्व पर अपने देश की बनी सारी सामग्रियों को भारत के बाजार में ठेल दिया। यहीं नहीं अब लक्ष्मी - गणेश की प्रतिमा भी भारत में नहीं बल्कि चीन से बन कर आ रही हैं और उनकी पूजा हो रही हैं। चीन की बनी लक्ष्मी - गणेश से सुख-समृद्धि की कामना हो रही हैं। है न आश्चर्य की बात.....................। क्या चीन में बने गणेश - लक्ष्मी से हमारे देश अथवा हमारे घर की अर्थव्यवस्था सचमुच सुदृढ़ होगी कि कुछ उलट हो रहा हैं। हम अपने पैसों से इन चीजों को खरीद कर किसे मजबूत कर रहे हैं और इससे वो मजबूत होकर हमारे प्रति वह क्या रवैया अपना रहा हैं, क्या ये किसी से छूपा हैं। क्या ये सच नहीं कि वो अभी भी अरुणाचल प्रदेश व सिक्किम तथा कभी कभी जम्मू कश्मीर पर भारत के खिलाफ विषवमन करता हैं और गाहे बगाहे जब कभी मौका मिलता हैं, वो अपनी खीझ निकालता है, दूसरी ओर हम क्या कर रहे हैं। उनकी सामानों को खरीदकर उसे मजबूत बनाने और महाशक्ति बनाने में मदद कर रहे है और अपने देश भारत की खटिया खड़ा कर रहे हैं। आनेवाले समय में वो क्या करेगा किसी से छुपा हैं क्या................................
क्या ये सही नहीं है हमारे द्वारा ही मजबूत किये गये अपनी अर्थव्यवस्था से, ये अपने ही देश के हृदय में खंजर भोकते हैं। सीमा पर रहनेवाले हमारे जवानों के सीने में गोली उतारकर, हमारे जवानों के सीने को गोलियों से छलनी कर देते हैं। अपने देश के अंदर रहनेवाले नरपिशाचों पर वे पैसे खर्च करते हैं और ये नरपिशाच हमारे जवानों के खून से होली खेलते हैं। सच्चाई ये भी हैं कि इन घटनाओं को सभी जानते हैं, पर इन घटनाओं को नजरंदाज कर, हम एकमेव वहीं कार्य करते हैं, जिसमें उनकी घटियास्तर की निजी स्वार्थ छिपी रहती हैं। देशभक्ति तो दिखती ही नहीं। देशभक्ति तो सिर्फ अरबों - खरबों रुपये के बने क्रिकेट स्टेडियम में दिखाई पड़ती है। जब भारत किसी अन्य देश से क्रिकेट खेल रहा होता हैं और इक्के दूक्के राष्ट्रीय ध्वज किसी भारतीय के हाथों में दिखाई पड़ते हैं, पर ऐसी देशभक्ति से क्या मतलब.............। जिससे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत नहीं होती, जिससे देश महाशक्ति नहीं बन सकता। जिसमें जीत होने के बावजूद, हमारे देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को वो सम्मान नहीं मिलता, जितना की सम्मान अमरीका, जापान या चीन के राष्ट्राध्यक्षों को होता हैं।
जरा देखिये, दो दिन पहले धनतेरस था। अकेले झारखंड में रांची से प्रकाशित प्रभात खबर ने लिखा हैं कि धनतेरस के दिन, बाजार में बरसे 1255 करोड़ रुपये। ये केवल झारखंड का हाल था। गर पूरे देश की बात करें तो खरबों रुपये का वारा न्यारा हुआ, कारोबार हुआ। पर बात यहां पर आती हैं कि इऩ कारोबारों से कौन सा देश मजबूत हुआ। भारत या फिर अन्य देश। गर भारत की अर्थव्यवस्था, इतने कारोबार के बावजूद भी मजबूत नहीं होती और इसका फायदा दूसरे देश उठा ले रहे हैं तो फिर ऐसे पर्व के आयोजन अथवा मनाने का क्या औचित्य।
मैने अपनी आंखों से देखा, कि जिस देश में अपने ही देश के कुम्हारों के हाथों से बनाये मिट्टी के दिये जला करते थे, अब वहां चीन से बनी दिये और इलेक्ट्रानिक बल्बों ने कब्जा कर लिया हैं। जिन भारतीय बच्चों के हाथों में भारतीय़ खिलौने हुआ करते थे, अब उन हाथों में चीनी खिलौने हैं। इसी तरह आरामदायक और सभी विलासिता संबंधी वस्तूओं पर अमरीकी, जापानी और चीनी वस्तूओं की पैठ हो गयी हैं, ऐसे में ये देश कैसे आत्मनिर्भर होगा। एक बात और, जब देश को बाजार ही बनाना था, विदेशी वस्तूओं से इस भारतीय बाजारों को पाट ही देना था तो फिर अंग्रेजों को निकाल बाहर क्यों किया गया, वे भी तो वहीं कर रहे थे, जो आज के नेता, निमंत्रण देकर, विदेशियों को बुलाकर कर रहे हैं। आश्चर्य इस बात की हैं कि हमारे देश के नेता गुलाम हो सकते हैं, वे विदेशी शासकों के आगे ताता-थैया कर रहे हैं, तो हम भारतीय भी उनके साथ मिलकर ताता-थैया क्यों कर रहे है। जिन्हें ताता - थैया करना हैं, करते रहे। हम मजबूती से वो काम करे, जिससे अपना देश मजबूत होता हो। 
जरुरत हैं, दीपावली के मर्म को समझने की। क्या कहता हैं - दीपावली। दीपावली स्वयं को प्रकाशित करने का पर्व हैं, पर हम अंधकार में कब तक बने रहेंगे। कब तक अपने ही पैसों से, अपने ही घर में आग लगाकर तमाशा देखते रहेंगे, हम क्यों नहीं समझते, गांधी की भाषा, स्वदेशी की भाषा। हम क्यों नहीं समझते कि अपने देश के एक कुम्हार के द्वारा बनायी गयी मिट्टी के दीये से उस कुम्हार की दशा-दिशा भी सुधरती हैं और भारत की अर्थव्यवस्था भी सुधरती हैं। इतनी छोटी सी बात लोगों को समझ में क्यूं नहीं आती। खुद महात्मा गांधी, आचार्य बिनोवा भावे, लाल बहादुर शास्त्री का झोला ढोनेवाले कांग्रेसियों को ये बात क्यों नहीं समझ आती। हमें लगता है कि हम भारतीयों को अच्छी बातें बहुत देर में समझ में आती हैं और जब समझ में आयेगी तब बहुत देर हो चुका होगा............और हम ये गाने गा रहे होंगे वो गाना होगा- सब कुछ लूटा कर होश में आये तो क्या किया..............................

Friday, November 9, 2012

मेरे राम को कुछ भी बोलो, मेरे राम को कोई फर्क नहीं पड़ता...........................

मेरे राम को कुछ भी बोलो, मेरे राम को कोई फर्क नहीं पड़ता और न ही फर्क पड़ता हैं, राम पर विश्वास करनेवालों को, क्योंकि उनके लिए राम तो राम हैं, जिसके बिना उनका जीवन कभी सफल हो ही नहीं सकता और न ही ये दुनिया उनके बिना चल ही सकती हैं। जो राम पर विश्वास करते हैं, उनका विश्वास किसी जेठमलानी के बयान का मोहताज नहीं होता। दुनिया में राम जेठमलानी कोई पहले व्यक्ति नहीं, जिसने राम को बुरा कहा। ऐसे लोगों की संख्या तो बहुतायत में हैं, जिनकी दिन की शुरुआत ही राम की निंदा और रात का समापन राम की निंदा से ही होता हैं। ऐसे भी राम को समाप्त करने का बीड़ा कई बार अनेक राजनीतिक दलों और अन्यान्य धार्मिक व कई सामाजिक संगठनों ने किया हैं, पर राम को क्या फर्क पड़ा। वो तो आज भी वाल्मीकि के श्लोंकों में, मीरा और रविदास के भजन में, कबीर के दोहों में, तुलसी के चौपाईयों में और देश-विदेश के अनन्य कवियों के कंठाग्रों में शोभायमान हैं। राम तो ऐसे हैं कि वे अपने निंदकों और अपने चाहनेवालों पर भी समभाव रखते हैं, नहीं तो वनवास से लौटने के बाद वे कैकयी और मंथरा पर अपना असीम अनुराग नहीं लूटाते। ऐसे भी राम को जानने के लिए, आपको राम जेठमलानी जैसे नेताओं के पास जाना पड़े तो ये आपकी मूर्खता हैं, राम को जानने के लिए आपको वाल्मीकि, मीरा, रविदास, कबीर और तुलसी का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा।
जरा रविदास जी को देखिये, क्या कहते हैं...........................
जब रामनाम कहि गावैगा
तब भेद अभेद समावैगा
जो सुख हवैं या रस के परसे
सो सुखका कहि गावैगा
जरा रविदास जी की परम शिष्या श्रीकृष्ण की अनन्य भक्तवत्सला मीरा क्या कहती हैं.............
पायोजी मैंने राम रतन धन पायो
वस्तु अमोल दियोजी मेरे सदगुरु, किरपा कर अपनायो, पायोजी मैंने.....
खरच न खूटै, चोर न लूटे, दिन - दिन बढ़त सवायो, पायो मैंने................
कबीर के राम को देखिये.......................
कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूढें बन माहि
ऐसे घटि घटि राम हैं, दुनिया दिखैं नाहि
और तुलसी का तो जवाब नहीं, उन्होंने तो साफ कह दिया
नाना भांति राम अवतारा।
रामायण सत कोटि अपारा।।
ये महान संतों के उद्गार बताते हैं कि राम क्या हैं। राम को व्यक्ति विशेष मानना, और उन्हें व्यक्ति विशेष मानकर, अपने ढंग से उन पर प्रतिक्रिया दे देना, आपकी मजबूरी हो सकती हैं पर इससे राम को क्या.........। पर जिन्होंने राम को जान लिया, वे अनन्त सुख को प्राप्त कर, अपना और इस राष्ट्र दोनों का भला किया। राम का जीवन ही जीने का आधार हैं, अनन्त व परमसुख प्राप्त करने के लिए, राम को तो जानना ही होगा, पर राम को आप जानेंगे कैसे।
वेद कहता हैं, जीवेद शरदः शतम्। सौ वर्ष तक जियो, पर सौ वर्षों तक कैसे जियोगे। धन कमाने की लालसा तो आपको धनपशु बना दी हैं, और इसी धन में आप सुख प्राप्त करने की जिजीविषा लेकर स्वयं को समाप्त कर लेते हो, और कहते हो कि राम को मैं नहीं मानता, ये तो वहीं बात हुई कि कोई मूर्ख कहें कि मैं सूरज के अस्तित्व को नहीं मानता, मैं दिन व रात के अस्तित्व को नहीं मानता, मैं हवा को भी नहीं मानता। तो इससे सूरज, दिन, रात व हवा को क्या फर्क पड़ता हैं, क्या वो अपना काम करना बंद कर देगी या उक्त व्यक्ति से क्रोधित होकर उसके साथ बुरा बर्ताव करेगी।
मैं तो पहले भी कहा था, आज भी कह रहा हूं कि कार्तिक कृष्णपक्ष अमावस्या को होनेवाली दीपावली सिर्फ यहीं संदेश देती हैं कि हे प्रकाश की कामना करनेवाले मनुष्यों, तुम सत्य मार्ग पर चलों। जैसे ही तुम सत्यमार्ग पर चलोगे, राम तुम्हारे साथ होंगे। जब राम तुम्हारे साथ होंगे तो तुम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाओगे और एक मर्यादा पुरुषोत्तम व्यक्ति के लिए, संसार में कोई भी कार्य असंभव नहीं। ऐसे में एक भारतीय के लिए, जिसके लिए कोई कार्य असंभव नहीं हैं, उस भारतीय और भारत की ऐसी दशा क्यो। सभी भ्रष्टाचार - भ्रष्टाचार चिल्ला रहे हैं, एक दूसरे पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे हैं, पर सच यहीं हैं कि सभी किसी न किसी प्रकार से अपने आचरण को भ्रष्ट जरुर किये हुए हैं, ऐसे में सत्यमार्ग पर चलना और स्वयं राम बनना दोनों असंभव है। सच यहीं हैं कि अपने देश से राम बहुत दूर चले गये हैं। जरुरत हैं, उस राम को, चरित्र रुपी राम को अपने अंदर बैठाने की ताकि हम हर दिन दीपावली मना सकें ताकि हम हमेशा स्वयं को प्रकाशित कर सकें। उस वक्त हमें ये बोलने की आवश्यकता ही न पड़े कि हमें असत्य से सत्य की और अंधकार से प्रकाश की ओर या मृत्यु से अमरता की ओर चले, बल्कि हम इसे अपने कर्म द्वारा सत्यापित कर रहे होंगे।

Monday, November 5, 2012

इन बेशर्म पत्रकारों को तनिक लज्जा नहीं आती............................

आज सुबह सुबह मैंने सारे समाचार पत्रों को खंगाला हैं। सभी समाचार पत्रों ने नीतीश की स्तुतिगान की हैं। स्तुतिगान करना आवश्यक भी था, क्योंकि अब विज्ञापन नहीं छपते हैं। विज्ञापन के बदले, ऐसे समाचार छाप दिये जाते हैं, जो विज्ञापन का ही काम करता हैं और उसके बदले, उसकी एक बड़ी राशि समाचार से प्रभावित होनेवाले व्यक्ति अथवा संस्थानों से ले लिेये जाते हैं। ऐसा देश के सभी समाचार पत्र कर रहे हैं, इसलिए राष्ट्रीय से लेकर, क्षेत्रीय समाचार पत्रों ने भी वहीं किया, जिसका मैंने पूर्व में आकलन किया था। इसके पहले, इस तरह का काम, सभी राष्ट्रीय व क्षेत्रीय टीवी चैनल कल कर चुके हैं। 
आज सुबह - सुबह करीब सारे राष्ट्रीय चैनल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को फांसी पर लटकाने के लिए बेताब दीखे, लगे हाथों भाजपा के चिरप्रतिद्वंदी कांग्रेस पार्टी की ओर से भाजपा अध्यक्ष नितिन के खिलाफ बयान भी आ गया, जिसे इन चैनलों द्वारा दिखाया और सुनाया भी जा रहा हैं। हद हो गयी, इसे लेकर विशेष समाचार प्रसारित शुरु कर दिये गये हैं। समाचार क्या हैं, जरा आप ही पढ़िये और विचार कीजिये। भोपाल के एक कार्यक्रम में नितिन गडकरी ने एक बयान दिया कि विवेकानंद और दाउद के आईक्यू एक ही थे, पर एक ने उस आईक्यू द्वारा देश और विश्व को नयी दिशा दी तो दूसरे ने विध्वंसात्मक कार्य कर मानवता का अहित किया। अब आप ही बताये, इसमें गलत क्या हैं। आज भी हम राम और रावण, कृष्ण और कंस का तुलनात्मक विवरण अपने बच्चों को नहीं देते हैं क्या और इस विवरण के द्वारा, हम बच्चों में ये प्रेरणा नहीं भरते हैं क्या, कि तुम्हें राम बनना हैं, तुम्हें कृष्ण बनना हैं, तुम्हें विवेकानन्द जैसा बनना हैं, जिससे हमारा समाज और हमारा राष्ट्र गौरवान्वित हो। ऐसा हम जब करते हैं तो फिर नितिन गडकरी के खिलाफ हाय तौबा क्यों। ये तो वहीं बात हुई, बेसिरपैर के बाल का खाल निकालना। गर राष्ट्रीय चैनल के पत्रकारों को कोई बात नहीं समझ आती या वे पागल हो गये हो तो इसमें नितिन गडकरी को हलाल करने की आवश्यकता क्यों। इन्हें खुद आगरा अथवा रांची के मनःचिकित्सा अस्पतालों में जाकर शरण लेनी चाहिए।
इन दिनों देश का सर्वाधिक नुकसान तथाकथित पत्रकारों द्वारा हो रहा हैं। ये सभी कांग्रेसभक्त बनकर, देश की अस्मिता व इसके वैभवशाली इतिहास पर कुठाराघात कर रहे हैं और इसके बदले वे कांग्रेस से उपकृत होते जा रहे हैं। हमारे पास कई सबूत हैं, जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि अब तक इन मीडिया हाउस के मालिकों और पत्रकारों ने क्या किया हैं। कोई इस प्रकार के समाचारों को प्रसारित व प्रकाशित कर प्रधानमंत्री का प्रेस सलाहकार बन जाता हैं तो कोई राज्यसभा के सांसद के रुप में उपकृत होता हैं, कोई इसी के आड़ में अपना व्यवसाय चलाता हैं तो कोई अपने बेटे - बेटियों और संगे संबंधियों को सरकारी अथवा कारपोरेट जगत में लाखों - करोंड़ों के पैकेज पर नौकरी दिलवाता हैं। ऐसे में इन पत्रकारों द्वारा प्रकाशित अथवा प्रसारित खबरों पर अपना मन बनाना, देश के साथ खिलवाड़ करने के सिवा कुछ नहीं। इसलिए सभी देशवासियों को चाहिए, कि ऐसे पत्रकारों से अपनी दूरियां बनाये और इनके द्वारा प्रकाशित और प्रसारित समाचारों के प्रति कड़ा प्रतिवाद करें, ऐसा माहौल बनाये, कि इनके कुकर्मों से देश को बचाया जा सकें। क्योंकि परमाणु बम से भी ज्यादा खतरनाक, इनके विचार हैं। परमाणु बम से केवल एक खास इलाका प्रभावित होता हैं, पर इनके  खतरनाक विचार, पूरे भारत को निगलने के लिए तैयार हैं। ऐसे भी इन घटियास्तर के पत्रकारों की सोच पर अंकुश लगाने के लिए संविधान में कुछ भी नहीं हैं, ये स्वयं को देश के लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बताकर देश की जनता को दिग्भ्रमित भी कर रहे हैं। इसलिए सावधान हो, और इन घटियास्तर के चैनलों व पत्रकारों को अपने वैचारिक जागरुकता से पराजित करने के लिेए, मिलकर एक ऐसा कदम उठाये, कि ये सारे पत्रकार भारत की जनता से थर्रा उठे।

Sunday, November 4, 2012

बिहार को विशेष दर्जा क्यों, पुरुषार्थ जगाने के बदले, भीख मांगने की नयी परंपरा की शुरुआत क्यों...........

बिहार को विशेष दर्जा चाहिए। नीतीश ने इसके लिए अधिकार रैली पटना में बुलायी हैं। बड़ी संख्या में बिहार के सुदुरवर्ती इलाकों से लोग पहुंचे हैं, इस अधिकार रैली में। हालांकि इस प्रकार की रैली में लोग कैसे आते हैं, कैसे बुलाये जाते हैं, किस प्रकार के प्रलोभन दिये जाते हैं, ये बिहार की जनता रग - रग जानती हैं। ऐसे भी बिहार विकास के लिए कम, रैली और रैलाओं के लिए ही जाना जाता हैं। इसके पहले भी लालू प्रसाद जैसे घाघ नेता पटना में रैली बुला चुके हैं, उसका रसास्वादन भी कर चुके हैं, पर फिलहाल इनके हालत पस्त हैं। आज गर ये रैली बुलाये तो शायद ही, इनके द्वारा पूर्व में बुलायी गयी रैली, जितनी भीड़ भी जूट सके। पर जनता तो जनता हैं, कभी लालू तो अब नीतीश, आनेवाले समय में कभी दूसरे नेताओं को भी ये श्रेय वह दे दें तो अतिश्यिोक्ति नहीं होगी। 
चलिये भविष्य की बात छोड़े। अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य बनता हैं। अतीत गरीब रैला, लाठी में तेलपिलावन रैला से होते हुए अधिकार रैली तक पहुंच चुका हैं। हर जदयू विधायक ने अपने अपने हिसाब से इस रैली में अपने लोग को बुलाने में, जमकर कसरत की हैं, जिसका रिजल्ट अधिकार रैली में देखने को मिला हैं। हम आपको बता दें कि ऐसे पूरे देश में रैली व रैला का दौर चल पड़ा हैं। लखनऊ में बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी तो दिल्ली में आज ही के दिन कांग्रेस ने भी अपनी शक्ति प्रदर्शन कर, एक तरह से 2014 के लोकसभा चुनाव का शंखनाद कर दिया हैं। जमकर सभी पार्टियों ने एक दूसरे को लताडा़ भी हैं और भ्रष्टाचार कें मुद्दे पर स्वयं को पाक साफ और महंगाई के लिए एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ा। अब जनता परेशान है कि इन रैलियों में किसे वे पाक साफ समझे और किसे कटघऱे में रखे। इसी बीच हिमाचल प्रदेश में आज मतदान चल रहा हैं, जबकि गुजरात में मतदान होना बाकी हैं, पर गुजरात और हिमाचल से जो संकेत मिल रहे हैं, वो साफ हैं कि जनता कांग्रेस से दूरी बना चुकी हैं और लोकसभा का चुनाव जब भी हो, कांग्रेस को विपक्ष में इस बार बैठने का जरुर मौका मिलेगा।
और अब हम बात करते हैं, बिहार की। जब से दूसरी बार नीतीश ने बिहार में सत्ता संभाली। वे बिहार के विशेष दर्जा दिलाने की मांग पर ज्यादा जोर देते रहे। बात यहां आती हैं कि बिहार को ही विशेष दर्जा क्यों, अन्य प्रदेशों को क्यों नहीं। देश में और भी बिहार जैसे कई प्रांत हैं, जो विकास से कोसो दूर हैं, उन्हें क्यों नहीं विशेष दर्जा मिलना चाहिए। दूसरी बात, नीतीश को ये परमज्ञान उस वक्त क्यों नहीं प्राप्त हुआ, जब वे एनडीए के शासनकाल में केन्द्र में एक जिम्मेदार मंत्रालय संभाल रहे थे और बिहार में रावडी़ देवी का शासन था। बिहार में रावड़ी भी तो वहीं बात कह रही थी और ये बार - बार इसका विरोध कर रहे थे। यानी आप जो बोलो वो देववाणी और बाकी बोले वो असुरवाणी। क्या सोच हैं - नीतीश जैसे लोगों की। जो लोग नीतीश को नजदीक से जानते हैं कि वो अच्छी तरह जानते हैं कि ये व्यक्ति, स्वयंप्रभु, भाग्यविधाता, अपने को मानता हैं। ये अपने आगे किसी को नहीं लगाता, चाहे वो जदयू में शरद यादव जैसे लोग ही क्यों न हो। हालांकि इसी अहं में वो नरेन्द्र मोदी को भी चुनौती दे डालता हैं पर इसकी ताकत इतनी नहीं कि वो नरेन्द्र मोदी से आंख में आंख मिलाकर बात भी कर सकें। इसने अहं में आकर कई बार गुजरात की जनता का भी अपमान किया, पर गुजरात की जनता, ऐसे - ऐसे व्यक्ति को, ज्यादा महत्व नहीं देती, मुझे अच्छी तरह मालूम हैं। नीतीश के बार में, मैं एक और बात कह दूं कि जिनकी याददाश्त थोड़ा कमजोर हैं तो उनके लिए उदाहरण दे देता हूं कि ये वहीं नीतीश हैं -- जिसने पिछली बार लोकसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह की बांका से टिकट कटवा दी थी। ये अलग बात हैं कि दिग्विजय सिंह ने निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में लोकसभा का चुनाव लड़कर नीतीश को, उसकी औकात बता दी। आज दिग्विजय सिंह दुनिया में नहीं हैं, पर ऐसा नहीं कि उनके नहीं रहने से नीतीश के कारगुजारियों पर बोलने व लिखनेवाला कोई नहीं।
ज्यादातर लोग नीतीश को एक बेहतर शासक के रुप में मानते हैं। वे इसलिए मानते है कि लालू का जिसने शासनकाल देखा हैं, वे मानते है कि अब भी लालू से नीतीश बेहतर हैं, पर क्या, हम इन्हें भी अराजकता फैलाने का वहीं मौका दें, जो कभी लालू को दिया था। आज भी मुजफ्फरपुर की नवरुणा कहां हैं, किसी को पता नहीं। अपहरण, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थिति क्या हैं, बिहार में किसी से छुपा नहीं। फिलहाल बिहार तो आतंक का रणक्षेत्र बनता जा रहा हैं। देश के किसी भी हाल में आंतकी घटनाएं हो रही हैं, उसका किसी न किसी प्रकार से सूत्र बिहार में मिल जा रहा हैं। ऐसे में बिहार का क्या सम्मान हैं, और क्यो विशेष दर्जा मिलना चाहिए। हमारी समझ से परे हैं। 
मैं भी बिहार का रहनेवाला हूं। मैंने लालू यादव का शासन भी देखा और नीतीश का भी शासन देखा। वहां क्या स्थिति हैं। मुझसे बेहतर कौन जानता है। एक घटना सुनाता हैं। आज से तीन साल पहले पटना के गांधी मैदान में भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक चल रही थी। ये उस वक्त की बात हैं जब बिहार में विधानसभा के चुनाव की रणभेरी बज चुकी थी। एक दक्षिण से प्रसारित होनेवाली टीवी चैनल में जब हमने समाचार देखने के लिए, नौ बजे रात्रि में टीवी खोला तो देखा कि रात्रि के नौ बजे से लेकर नौ बजकर 22 मिनट तक नीतीश ही नीतीश दिखाई पड़ रहे थे। जब हमने इस संबंध में पता लगाया तो पता चला की नीतीश ने उक्त चैनल को पेड न्यूज के रुप में अपने पक्ष में इस्तेमाल करवाया। जब हमने इस संबंध मे पटना के ही एक वरिष्ठ पत्रकार जो नीतीश भक्त हैं, पूर्व में खुब पत्रकारिता जगत में नाम भी कमाया हैं, वयोवृद्ध हैं। इस संबंध में बात की तब उनका कहना था कि ये गलत नहीं हैं, हर नेता को अधिकार हैं कि वो अपने पक्ष में ऐसा करें । कमाल हैं नीतीश पेड न्यूज के आधार पर अति महत्वपूर्ण समाचारों को रुकवाकर अपने लिए चैनल को इस्तेमाल करें तो सहीं, बाकी करें तो गलत हैं।
अंत में, बिहार को किसी भी हालत में विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलना चाहिए, और इस प्रकार की केन्द्र पर बेवजह दबाव की राजनीति भी बंद होनी चाहिए। नहीं तो, हर प्रदेश के लोग ऐसा करना शुरु करेंगे। ऐसे में पूरे देश में अराजकता की स्थिति पैदा होंगी, देश टूटने के कगार पर होगा। अच्छा होगा कि बिहार के नेता, अपने पुरुषार्थ को जगाकर, स्वयं बिहार को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाये। ऐसे देश में कई राज्य हैं, जो स्वयं आगे बढ़े हैं, किसी से भीख नहीं मांगा और न ही विशेष राज्य का दर्जा के लिए, अधिकार रैली का आयोजन, अपने प्रांत में कराया, तो फिर बिहार में इस प्रकार की अधिकार रैली क्यों.........................

Saturday, November 3, 2012

आज लिखने व बोलने की नहीं, कर के दिखाने की जरुरत हैं..............................

सचमुच आज लिखने व बोलने की नहीं, कर के दिखाने की जरुरत हैं। रांची से एक प्रकाशित अखबार जिसकी, मैं तहेदिल से इज्जत करता हूं, गर उसे एक दिन भी नहीं पढ़ूं तो मैं बेचैन हो जाता हूं। पर मैं इन दिनों देख रहा हूं कि इस अखबार को भी, अन्य अखबारों की तरह हवा लगी हैं। वो ऐसी चीजे लिख दे रहा हैं कि जिसे पढ़कर, मन व्यथित हो उठा हैं। इस अखबार में चरित्र, धन, भ्रष्टाचार और अन्य विषयों पर हमेशा सारगर्भित आलेख पढ़ने को मिलते हैं, पर मेरा मानना हैं कि केवल लिख देने से, उन विषयों का समाज व राष्ट्र में पदार्पण हो जायेगा, ऐसा संभव नहीं हैं। कल यानी 2 नवम्बर को इस अखबार ने आदर्श डाक्टरों की सूची से संबंधित प्रथम पृष्ठ पर समाचार प्रकाशित किया। जिसमें रांची के डा. के के सिन्हा को आदर्श डाक्टर के रुप में स्थापित किया। मै रांची की ही जनता से पूछता हूं कि क्या डा. के के सिन्हा, जिनकी चिकित्सीय फीस 1000 रुपये हैं। जिनसे इलाज कराने के लिए महीनों इंतजार करना पड़ता हैं। साथ ही जिनसे इलाज कराने के लिए नेताओं व मंत्रियों से पैरवी करानी पड़ती हैं। जो मुख्यमंत्री, कारपोरेट जगत के मठाधीशों, विभिन्न अखबारों के मालिकों व संपादकों को मुफ्त इलाज मुहैया कराते हो और गरीबों से एक हजार रुपये, फीस वसूलते हो। जो अपने यहां इलाज कराने आये, मरीजों का निबंधन भी नहीं कराते हो, जिससे ये पता लगे कि उन्होंने एक दिन में कितने मरीजों की जांच की। ताकि पता चल सकें कि वे एक दिन में कितने रोगियों को देखकर, कितने रुपये उनसे वसूले। जिनका समाचार बाप - बेटे से संबंधित मारपीट का कई समाचारों में सुर्खियां बन चुका हो। क्या उक्त अखबार बता सकता हैं कि इन्होंने कब और किस समय, गरीबों के लिए अपने दरवाजे खोले। ठीक वैसे ही जैसे लालपुर के डा. एस पी मुखर्जी के दरवाजे, गरीबों के लिए सदा खुले रहते हैं। आदर्श का मतलब क्या हैं.............। अपने लिए अच्छा होना, सिर्फ अपने लिेए कमाई करना, और आदर्श होना ये दोनों अलग अलग बाते हैं। ये सभी को समझना चाहिए। आदर्श वहीं हैं, जिनका जीवन अपने लिए नहीं, बल्कि दूसरों के लिेए हो।
एक बात और। किसी व्यक्ति की आमदनी दस लाख रुपये प्रति माह हैं  और वो ईमानदारी की बात करें तो शोभा नहीं देता। शोभा उसे देता हैं, जिसकी आमदनी न के बराबर हो, और उसने पूरा जीवन ईमानदारी से, वह भी विपरीत परिस्थितियों में गुजार दें, तब वो प्रेरणास्रोत व आदर्श बन जाता हैं। इस रांची में एक से एक डाक्टर हैं, जो बेईमान भी हैं, चरित्रहीन भी हैं पर आदर्श भी हैं, लेकिन आदर्श का पैमाना जब डा. के के सिन्हा जैसे लोगों के पास आकर शरण लेता हैं,तो हम जैसे लोगों को असहनीय पीड़ा होती हैं।
आजकल आदर्शवादिता के नाम पर पुरस्कार देने की भी योजना चल पड़ी हैं। ऐसे ऐसे लोगों को पुरस्कार दे दिया जाता हैं कि हमें समझ में नहीं आता कि उन्हें ये पुरस्कार देने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी। हाल ही में रेडिशन ब्लू जैसे महंगे होटल में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के एक अधिकारी को, जो मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा के बहुत ही निकट हैं। सुनने में आया हैं कि जो वह बोलता हैं, मुख्यमंत्री उसकी बातों को अच्छे बच्चों की तरह मान लेते हैं। उसे पुरस्कृत किया गया। उसे ये पुरस्कार लक्ष्मी लाडली योजना के लिए दिया गया। यानी सारा श्रेय उसे दे दिया गया, जिसने लक्ष्मी लाडली योजना के लिए क्या किया। उसे खुद ही पता नही। घोर आश्चर्य हैं। इसी तरह एक बार, रेलवे के एक महिला कर्मचारी को भी पुरस्कृत कर दिया गया, ये कहकर कि उन्हें सर्वश्रेष्ठ पत्र लेखन के लिए, पुरस्कृत किया जा रहा हैं। सच्चाई ये हैं कि कितने पत्र उक्त महिला ने, उक्त अखबार को भेजे, उसे खुद ही पता नहीं होगा, पर पुरस्कार दिया गया और लेनेवाले ने ले भी लिया। 
ऐसे में, एक सवाल उठता हैं कि क्या इस प्रकार की कारगुजारियों से समाज बदलेगा, आंदोलन सफल होगा। उत्तर होगा - नहीं, तो क्या किया जाना चाहिए। हमारा नम्र निवेदन हैं कि स्वयं पर ध्यान दीजिये। वहीं लिखिये जो सार्थक हो। वो मत लिखिये, जिससे लोग दिग्भ्रमित हो जाये, क्योंकि जो आप लिखते हैं या छापते हैं, वो आप नहीं जानते कि यहां की जनता, उसको किस रुप में लेती हैं। गर लोगों का विश्वास डोला तो फिर झारखंड को एक बड़ी क्षति होगी, क्योंकि मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि रांची से जितने भी अखबार छपते हैं, उनमें से आप एकदम अलग हैं, पर आप भी जब अन्य अखबारों जैसे होंगे तो फिर झारखंड की जनता किस पर विश्वास करेगी। बड़ी विनम्रता से, करवद्ध प्रार्थना करता हूं कि झारखंड से निकलनेवाली और पूरे राष्ट्र में एक अलग छवि रखनेवाली इस अखबार को गिरने से बचाये। ये झारखंड हित में हैं...................................